[ ब्रह्मा चेलानी ]: अमेरिका नि:संदेह दुनिया का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र है। इसके बावजूद वह दुनिया के सबसे पुराने और बड़े तानाशाह देश चीन से कुछ मामलों में समानता भी रखता है। वही चीन जो उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी एवं प्रतिस्पर्धी है। हार्वर्ड के प्रोफेसर ग्राहम एल्लिसन के अनुसार दोनों ही देश श्रेष्ठता की ग्रंथि से पीड़ित हैं और अपने समक्ष किसी को गिनती में नहीं गिनते। वे एकछत्र राज में विश्वास करते हैं। इसी कारण दूसरे देशों की जल सीमा में घुसपैठ करते रहते हैं। अमेरिका ने इसके लिए नौवहन परिचालन की स्वतंत्रता यानी फोनोप्स जैसी ढाल बना रखी है। इसके तहत उसके अभियान दक्षिण चीन सागर में बहुत आम रहे हैं। फिर भी विस्तारवादी चीन ने उसका भू-राजनीतिक नक्शा ही बदल दिया है।

अमेरिका ने भारत के ईईजेड में फोनोप्स का दांव चलकर कूटनीतिक बखेड़ा खड़ा कर दिया

चीन ने एक भी गोली दागे बिना यह कर दिखाया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे उसकी कोई कीमत भी नहीं चुकानी पड़ी। इस बीच मित्र देशों के खिलाफ अमेरिका के ऐसे अभियानों पर बहुत ध्यान नहीं गया, मगर हाल में यह धारणा भी टूट गई। दरअसल अप्रैल की शुरुआत में अमेरिका ने भारत के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र यानी ईईजेड में फोनोप्स का दांव चलकर एक कूटनीतिक बखेड़ा खड़ा कर दिया। मिसाइलों से लैस अमेरिकी युद्धपोत ने न केवल भारतीय ईईजेड में गश्त की, बल्कि बाकायदा बयान जारी करके कहा कि यह कवायद भारत के ‘अतिवादी सामुद्रिक दावों’ को चुनौती देने के मकसद से की गई थी। अपने ईईजेड में किसी भी सैन्य अभ्यास या अन्य किसी गतिविधि के लिए जहां भारतीय अनुमति आवश्यक है, वहीं अमेरिकी बयान में स्पष्ट रूप से कहा गया कि यह ‘भारत की पूर्व अनुमति’ के बिना ही किया गया।

अमेरिका के एकतरफा कदम पर भारत ने की तीखी प्रतिक्रिया

अमेरिका के इस एकतरफा कदम पर भारत में तीखी प्रतिक्रिया हुई। भारत ने कूटनीतिक शिकायत भी दर्ज कराई। चीन के उलट भारत ने न तो अंतरराष्ट्रीय जल सीमा में कोई अतिक्रमण किया। न कृत्रिम द्वीपों का निर्माण किया। न ही समुद्री सैन्यीकरण को बढ़ावा दिया और न समुद्री आवाजाही को बाधित किया। ऐसे में भारत के अतिवादी सामुद्रिक दावों को लेकर वाशिंगटन के कथित दावे कहीं नहीं टिकते। तिस पर अमेरिका ने दावा कि भारतीय ईईजेड में उसकी कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप है। दरअसल इस मामले में वह किसी विशिष्ट अंतरराष्ट्रीय कानून के बजाय सामान्य हीलाहवाली का ही सहारा ले रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि करीब 27 वर्ष पहले ‘समुद्रों के वैश्विक संविधान’ के रूप में अस्तित्व में आए संयुक्त राष्ट्र की संधि यूएनक्लोस पर तो अमेरिका ने हस्ताक्षर ही नहीं किए। विडंबना यही है कि अमेरिका ने जिस अंतरराष्ट्रीय संधि में शामिल होने से ही इन्कार कर दिया, वह उसी को ढाल बना रहा है।

अमेरिका ने 19 देशों के कथित अतिवादी सामुद्रिक दावों को दी चुनौती 

वास्तव में भारतीय ईईजेड में अमेरिका की हालिया हरकत उस सिलसिले में ताजा कड़ी ही है, जो वह पिछले कुछ समय से अपने दोस्त और प्रतिद्वंद्वियों के प्रति करता आया है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका ने स्वयं स्वीकार किया कि सितंबर 2020 तक 11 महीनों की अवधि के दौरान उसने 19 देशों के कथित अतिवादी सामुद्रिक दावों को चुनौती दी। इसमें हैरानी की बात यही है कि एशिया का शायद ही कोई कोई समुद्रतटीय देश अमेरिका की ऐसी गतिविधियों का शिकार होने से बचा हो। इनमें अमेरिकी छत्रछाया में रहने वाले जापान और फिलीपींस जैसे देशों के अलावा क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी उत्तर एवं दक्षिण कोरिया, भारत और पाकिस्तान जैसे देश भी शामिल हैं। यहां तक कि अमेरिका ने छोटे से देश मालदीव तक को नहीं बख्शा। थाईलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया और ताइवान जैसे उसके साझेदार देश भी इससे न बच सके। इतना ही नहीं श्रीलंका से लेकर म्यांमार और कंबोडिया से मलेशिया तक अमेरिकी पोत मनमानी करते रहे। वाशिंगटन ने इन सभी देशों पर किसी न किसी रूप में अतिवादी सामुद्रिक दावों के आरोप लगाए हैं।

अमेरिका दुनिया की निर्विवाद महाशक्ति नहीं रह गया

अपने दावों को लेकर अमेरिका का ऐसा नौसैन्य प्रदर्शन दर्शाता है कि पुरानी आदतें कैसे कायम रह जाती हैं? वह भी तब जब अमेरिका दुनिया की निर्विवाद महाशक्ति नहीं रह गया है। यूएनक्लोस में 168 देश शामिल हैं, लेकिन अमेरिका उसका हिस्सा नहीं है। उलटे वह नियमों की एकतरफा व्याख्या करके आक्रामकता दिखाता रहता है। यह उसी ‘अमेरिकी विशिष्टता’ के जुमले को सही ठहराता है, जो कभी दिवंगत सोवियत तानाशाह जोसेफ स्टालिन ने दिया था। अधिकांश अमेरिकी भी यही मानते हैं दुनिया में अमेरिका जैसा कोई और देश नहीं। दरअसल अमेरिकी विशिष्टता का आशय यही है कि वह स्वयं को अपवाद मानता है जिससे वह अपनी मर्जी से दुनिया में कहीं भी जो चाहे कर सकता है, भले ही वह अन्य देशों के कानून और उनकी सुरक्षा के विरुद्ध हो।

अमेरिका की ताकत में आई कमी, लेकिन उसकी मनमानी चालू है

अमेरिकी फोनोप्स यही साबित करता है कि भले ही अमेरिका की ताकत में कमी आ गई हो, लेकिन उसकी मनमानी अभी भी चालू है। वहीं दक्षिण चीन सागर का अनुभव दिखाता है कि अमेरिकी फोनोप्स की सक्षमता संदिग्ध रही है। इससे चीन के निरंतर विस्तार पर कोई विराम नहीं लगा। उलटे चीन रणनीतिक रूप से उस महत्वपूर्ण मार्ग पर हावी होता रहा जो हिंद महासागर और प्रशांत महासागर को जोड़ने वाली एक अहम कड़ी है, जहां से दुनिया का एक तिहाई सामुद्रिक व्यापार होता है। अमेरिका के ये दांव न केवल चीन पर नकेल कसने में नाकाम रहे, बल्कि इससे मित्र देशों में एक गलत संदेश गया। हालिया उदाहरण तो यही पुष्टि करते हैं। अमेरिका सामुद्रिक साझेदारी वाली जिस क्वाड पहल को गति देना चाहता है, उसके भविष्य की कुंजी भारत के हाथ में होगी। वह इस कारण कि उसके अन्य सदस्यों अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया तो पहले से ही द्विपक्षीय-त्रिपक्षीय सुरक्षा समझौतों से बंधे हैं। ऐसे में यह समझ नहीं आता कि एक पुराने मुद्दे को छेड़कर अमेरिका ने भारत को इस तरह असहज करने का काम क्यों किया? जबकि इसी आधार पर कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे श्वेत देशों को उसने रियायत दी।

चीन के बढ़ते दबदबे पर अंकुश लगानें के लिए अमेरिका फोनोप्स रणनीति पर करे पुनर्विचार

समय आ गया है कि अमेरिका एशियाई या अन्य देशों के खिलाफ फोनोप्स रणनीति की उपयोगिता पर पुनर्विचार करे। ऐसे एकतरफा कदमों से ये देश अमेरिका की ओर झुकने से तो रहे, बल्कि उनकी सुरक्षा संबंधी चिंता ही और बलवती होगी। इन देशों के खिलाफ अपनी नौसैन्य ताकत का इस्तेमाल करने के बजाय अमेरिका को ऐसे विधिसम्मत सामुद्रिक ढांचे के निर्माण पर ध्यान देना चाहिए जो चीन के बढ़ते दबदबे पर अंकुश लगाने में सहायक हो।

( लेखक रणनीतिक मामलों के विश्लेषक हैं )