[ एम नागेश्वर राव ]: हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान के पहले अनुच्छेद में ‘इंडिया’ के साथ ही ‘भारत’ नाम भी जोड़ा तो कुछ तथ्यों को लेकर उनका दृष्टिकोण एकदम स्पष्ट था। एक तो यही कि इंडिया एकदम नया नाम था जबकि भारत सदियों पुरानी ऐसी सभ्यता थी जिसने हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख जैसे दुनिया के चार प्रमुख धर्मों को जन्म दिया। इन्हें हम इंडिक धर्म भी कहते हैं। साथ ही भारत नाम हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के मूल्यों को दर्शाता है।

महज भौगोलिक भूखंडों से राष्ट्र नहीं बनते

दूसरा यही कि भारतीय राज्य हमारी प्राचीन सभ्यता की विरासत का प्रतिनिधि एवं संरक्षक है। तीसरा यही कि प्रस्तावना में ‘राष्ट्र की एकता एवं अखंडता’ को लेकर जो प्रोत्साहन दिया गया है उसका सभ्यतागत निहितार्थ युगों-युगों से हमारी पीढ़ियों में हस्तांतरित होता रहा है। उनकी दृष्टि में भारत की सभ्यतागत पहचान बहुत पुरानी है जिसकी एकता एवं अखंडता संविधान के आकार लेने के बहुत पहले से ही सनातन धर्म से प्रेरित होती आई है। ऐसे में संविधान की नैतिक बाध्यता यही थी कि वह व्यापक रूप से हमारी प्राचीन सभ्यता को पोषित कर उसके मूल्यों को हमारे राष्ट्र एवं उसके नागरिकों में रोपित करे। यदि ऐसा न हो तो भारत वैसा नहीं रहेगा, क्योंकि महज भौगोलिक भूखंडों से ही राष्ट्र नहीं बनते।

दुनिया में कोई हिंदू राष्ट्र नहीं है

भले ही हिंदुओं की एक अरब से ज्यादा आबादी हो, लेकिन दुनिया में कोई हिंदू राष्ट्र नहीं है। अगर छोटे से नेपाल को अपवाद छोड़ दिया जाए तो केवल भारत ही हिंदू बहुसंख्यक देश है। साथ ही भारतीय भूमि पर जन्मे धर्मों में से बौद्धों को छोड़कर अन्य धर्मों के अनुयायियों की आश्रयस्थली भी है। उनके प्रति भी भारत की सभ्यतागत जिम्मेदारी है। अनुच्छेद 25 के परिशिष्ट-2 के तहत हिंदुओं के साथ ही बौद्ध, जैन और सिखों को भी श्रेणीबद्ध किया है। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण हकीकत है कि इन सभी को कुछ देशों में धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। चूंकि बौद्धों के अलावा शेष को शरण लेने के लिए कोई और देश नहीं सूझता तो वे भारत का ही रुख करते हैं। मगर जो लोग काफी लंबा अर्सा पहले अपनी जमीन छोड़कर भारत आ गए हैं, वे एक गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए जरूरी भारतीय नागरिकता चाहते हैं।

प्रताड़ितों के प्रति नहीं है गंभीरता

ट्रिप्स समझौते के तहत संसद ने भौगोलिक संकेतक (पंजीकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 1999 पारित किया था। अगर भौतिक वस्तुओं को लेकर इतनी संजीदगी दिखाई गई तो क्या हमें इतनी ही गंभीरता उन प्रताड़ितों के प्रति नहीं दिखानी चाहिए जो उन धार्मिक परंपराओं के वाहक हैं जिनका जन्म भारत में हुआ और जो सदियों से हमारी प्राचीन सभ्यता के प्रतिनिधि हैं। संविधान में नैतिकता हमारे सभ्यतागत आचार-विचारों से जुड़ी है, ऐसे में भारत भूमि पर जन्मे धर्मों के अनुयायियों की बेहतरी सुनिश्चित करना भले ही भारत की संवैधानिक बाध्यता न हो, लेकिन सभ्यतागत दायित्व अवश्य है।

उत्पीड़ित हिंदुओं को भारत में शरण मिलेगी

भाजपा ने वर्ष 2014 के चुनावी घोषणापत्र में वादा किया था कि ‘भारत उत्पीड़ित हिंदुओं के लिए स्वाभाविक आश्रयस्थल बना रहेगा और उन्हें यहां शरण दी जाएगी।’ इसी प्रयोजन से नागरिकता संशोधन विधेयक (कैब), 2016 संसद में पेश किया गया जो तबसे लंबित ही पड़ा हुआ है।

असम में एनआरसी की अंतिम सूची के बाद लोगों की नागरिकता अधर में लटकी

चूंकि असम में एनआरसी की अंतिम सूची के लिहाज से तमाम लोगों की नागरिकता अधर में पड़ गई है तो कैब को पारित कराने की प्रासंगिकता और बढ़ गई है। इस परिप्रेक्ष्य में 2016 के स्वरूप वाले कैब की खामियों पर विचार करना जरूरी है ताकि उससे सबक लेकर ऐसा नया कानून बनाया जा सके जो कानूनी पचड़ों में न फंसे और लंबे समय से उत्पीड़न की तपिश झेल रहे लोगों को नागरिकता मिल जाए।

नए कानून में सभी देशों को शामिल किया जाना चाहिए

कैब, 2016 की पहली खामी तो यही है कि इसमें धार्मिक उत्पीड़न को केवल तीन देशों अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान तक ही सीमित रखा गया है। यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि इंडिक धर्मों के अनुयायियों का केवल इन तीन देशों में ही उत्पीड़न होता है। यहां हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन की रिपोर्ट का उल्लेख समीचीन होगा जिसमें कहा यह गया कि हिंदू अमेरिकी छात्रों को लगातार निशाना बनाया जाता है और अपनी धार्मिक मान्यताओं के चलते वे सामाजिक रूप से बहिष्कृत महसूस करते हैं।’ ऐसे में नए कानून में सभी देशों को शामिल किया जाना चाहिए।

अपने देश पर हम और अनावश्यक भार नहीं बढ़ा सकते

दूसरा यही कि कैब, 2016 में इन तीन देशों के सभी अल्पसंख्यकों को शामिल किया गया है। यह बिल्कुल तार्किक नहीं लगता। भारत के लिए गैर-इंडिक धर्मों के लोगों के लिए ऐसी कोई सभ्यतागत बाध्यता नहीं है। हमने यहूदियों और पारसियों जैसे धर्मों के लोगों के प्रति भी समुचित सदाशयता दिखाई है जिन्हें अपनी भूमि से बेदखल कर दिया गया और उनके पास आश्रय लेने के लिए कोई और स्थान नहीं था। मगर ईसाई और मुस्लिमों पर यह बात लागू नहीं होती जो किसी भी ईसाई बहुल या मुस्लिम बहुल देश में शरण ले सकते हैं। यही बात यहूदियों के बारे में कही जा सकती है जिनके पास इजरायल के रूप में अब अपना एक अलग देश है। पहले से ही आबादी के बोझ तले दबे जा रहे अपने देश पर हम और अनावश्यक भार नहीं बढ़ा सकते।

भारतीय नागरिकता को केवल पारसियों तक सीमित रखना होगा

माननीय प्रधानमंत्री जी ने इस साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लालकिले से दिए अपने भाषण में जनसंख्या विस्फोट की समस्या पर उचित ही ध्यान आकृष्ट किया है। ऐसे में भारतीय नागरिकता को केवल इंडिक धर्मों के अनुयायियों और पारसियों तक सीमित रखना उचित होगा। तीसरा पहलू यही है कि विशेषज्ञ कैब, 2016 की संवैधानिक वैधता को लेकर सवाल खड़े कर चुके हैं। ऐसे में भले ही नया विधेयक कानून का रूप अख्तियार कर ले, लेकिन उसे अदालतों में चुनौती दी जा सकती है। इससे हिंदुओं और अन्य धर्मों के प्रताड़ित लोगों को शायद ही कोई राहत मिल पाएगी जो अर्से से मदद की बाट जोह रहे हैं। इस तरह देखें तो नागरिकता अधिनियम में संशोधन से पहले संविधान संशोधन अनिवार्य हो गया है।

धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर नागरिकता का प्रावधान

अब चौथे पहलू पर चर्चा हो जाए। चूंकि धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर ही नागरिकता का प्रावधान होगा तब इसके लिए धर्मांतरण की आड़ भी ली जा सकती है। हालांकि कोई भारत में आने के बजाय अपने देश में ही धर्मांतरण करके रहने को भी तरजीह दे सकता है। वहीं इस आशंका से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारतीय नागरिकता के लिए कोई धर्म बदल ले और नागरिकता के बाद वापस अपनी मूल धार्मिक पहचान हासिल कर ले। ऐसे में कड़े प्रावधानों के अभाव में यह आबादी में घुसपैठ का कानूनी जरिया बन जाएगा। कैब, 2016 ने इसका भी संज्ञान नहीं लिया।

संविधान में संशोधन कर 11ए के रूप में नया अनुच्छेद जोड़ना होगा

इसे देखते हुए संविधान में संशोधन कर 11ए के रूप में नया अनुच्छेद जोड़ना अनिवार्य होगा। फिर नागरिकता अधिनियम में संशोधन के जरिये किसी भी देश में प्रताड़ित हिंदुओं, बौद्धों, जैनों, सिखों और पारसियों के लिए नागरिकता का प्रावधान करना होगा। हालांकि इसके लिए कुछ सख्त प्रावधान भी करने होंगे। मसलन इसके दुरुपयोग पर न केवल नागरिकता से हाथ धोना पड़े, बल्कि उसकी संपत्ति भी जब्त कर ली जाए।

( लेखक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हैं )