नई दिल्ली [ ब्रह्मा चेलानी ]। मालदीव के तानाशाह अब्दुल्ला यामीन ने भारत और अन्य देशों की आपत्ति के बाद भी आपातकाल को एक माह के लिए और बढ़ा दिया। इसके पहले यामीन के इकलौते संरक्षक चीन ने अपने सरकारी मुखपत्र के जरिये भारत को धमकाते हुए कहा था कि यदि भारत मालदीव में किसी तरह का सैन्य हस्तक्षेप करता है तो बीजिंग ‘चुप नहीं रहेगा’ और इसे रोकने के लिए ‘कदम उठाए’ जाएंगे। यह एक तरह से कोरी धमकी ही थी, क्योंकि चीन के पास अभी तक इतनी ताकत नहीं कि वह अपने तट से दूर व्यापक सैन्य अभियान को अंजाम दे सके। चीन की बढ़ती नौसैनिक शक्ति के बावजूद भारत को उसके ही सामुद्रिक क्षेत्र में जवाब देने की कल्पना ही मूर्खतापूर्ण है। भारत चाहता तो चीन की इस धौंस का जवाब दे सकता था जिसमें मालदीव में त्वरित सैन्य कार्रवाई के जरिये यामीन को अपदस्थ कर जेल में कैद कर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को अंतरिम राष्ट्रपति बनाकर संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव की प्रक्रिया को संपादित कराता। वैसे हकीकत में भारतीय सैन्य हस्तक्षेप की कोई संभावना ही नहीं, क्योंकि इससे वह एक बड़ी हद तक उन सिद्धांतों का मखौल उड़ाता जो लंबे अरसे से भारत की थाती रहे हैं कि वह अन्य देशों की संप्रभुता का पूरा सम्मान करता है और उनके आंतरिक मामलों में दखल नहीं देता। सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर भारत ने मालदीव में हस्तक्षेप नहीं किया जहां बढ़ते चरमपंथ के चलते राजनीति दिनोंदिन जहरीली होती जा रही है।

यदि वहां हालात बिगड़कर गृहयुद्ध सरीखे हो जाते और राजधानी माले की सड़कों पर उन्माद शुरू हो जाता तब भारत ‘सुरक्षा के दायित्वबोध’ के तहत जरूर हस्तक्षेप कर सकता था। बिल्कुल वैसे ही जैसे नैतिक सिद्धांत के आधार पर नाटो ने लीबिया में हस्तक्षेप कर मुअम्मर गद्दाफी का तख्तापलट किया था। भारत ने मालदीव में इसके पहले 1988 में सैन्य हस्तक्षेप करके तख्तापलट करने वालों के मंसूबे नाकाम किए थे।

चीन मालदीव में अपनी पैठ और गहरी करना चाहता है

बीजिंग की धमकी केवल डोकलाम की तरह मनोवैज्ञानिक लड़ाई वाली ही नहीं थी, बल्कि इस अर्थ में और भी महत्वपूर्ण थी कि उसने अंतरराष्ट्रीय रूप से अलग-थलग पड़ते जा रहे यामीन का साथ दिया। भारत द्वारा संभावित कार्रवाई की सूरत में मालदीव को सुरक्षा का भरोसा जताकर चीन मालदीव में अपनी पैठ और गहरी करना चाहता है। वहां उसने पहले ही तमाम परियोजनाएं हथिया रखी हैं। मालदीव में लोकतांत्रिक रूप से चुने गए इकलौते राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद का दावा है कि अपनी ‘जमीन हड़पने की नीति’ के तहत चीन मालदीव के 17 टापुओं पर काबिज हो चुका है। यामीन की निरंकुश तानाशाही की ओर लगातार बढ़ते झुकाव को देखते हुए भारत ने जल्दबाजी में कोई कदम न उठाकर बुद्धिमानी का ही काम किया। असल में भारतीय विदेश नीति के समक्ष मालदीव संकट से परे भी चुनौतियां मौजूद हैं। अपने रणनीतिक- सामरिक दायरे में भारत के लगातार घटते प्रभाव का देश की सुरक्षा पर असर पड़ेगा। आज चीन का प्रभुत्व नेपाल, श्रीलंका और मालदीव जैसे उन देशों में भी बढ़ता जा रहा है जो अमूमन भारत के अधिक करीब माने जाते रहे हैं। बीजिंग की मंशा मालदीव में भी जिबूती जैसा नौसैनिक अड्डा स्थापित करने की है। इससे चीन भारत के सामने वैसा ही सामुद्रिक खतरा पैदा करेगा जैसा माओ के दौर में हिमालय के मोर्चे पर खड़ा किया था।

सत्ता बचाने के लिए लगाते है भारत से गुहार

मालदीव के मामले में हकीकत से भारत का सामना हाल-फिलहाल वहां आपातकाल की घोषणा के साथ नहीं, बल्कि फरवरी 2012 में हुआ था। तब अपनी सत्ता बचाने के लिए छटपटा रहे नशीद ने बड़ी व्यग्रता के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मालदीव में हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई थी जहां इस्लामी चरमपंथी उन्हें सत्ता से बेदखल करने पर आमादा थे। हालांकि नशीद चीन को लेकर अपने झुकाव से नई दिल्ली को तब कुपित कर चुके थे जब माले में दक्षेस सम्मेलन के दौरान सिंह के आगमन से एक दिन पहले ही वह चीन के नए दूतावास का खुद उद्घाटन करने चले गए थे। भारत को नशीद के तख्तापलट को न रोकने के कुछ नतीजे भी भुगतने पड़े। वहां इस्लामिक चरमपंथी मजबूत हुए और चीन के लिए अधिक गुंजाइश बनी। नशीद की विदाई के कुछ महीनों बाद ही मालदीव ने अपने मुख्य अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का काम भारतीय कंपनी जीएमआर इन्फ्रास्ट्रक्चर से छीन भी लिया।

भारत के हितों के खिलाफ काम करता है मालदीव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौर में मालदीव लगातार भारत के हितों के खिलाफ काम करता रहा। छह महीने पहले ही मालदीव ने नई दिल्ली को तब सख्त संदेश दिया जब उसने अपनी सामुद्रिक सीमा में तीन चीनी युद्धपोतों का स्वागत किया। इन युद्धपोतों ने माले और गिरीफुशी द्वीप पर लंगर डालकर मालदीव सुरक्षा बलों को विशेष प्रशिक्षण दिया। यामीन ने 2015 में संविधान में सशोधन कर जमीन पर विदेशी स्वामित्व को कानूनी जामा पहनाया। इस कदम को चीन की मदद के लिहाज से ही देखा गया। इसके तहत महासागरीय क्षेत्र की 70 प्रतिशत वांछित भूमि के लिए न्यूनतम एक अरब डॉलर के निवेश की परियोजना का पैमाना तय कर दिया गया। यह नई दिल्ली के ढुलमुल रवैये का ही नतीजा रहा कि यामीन ने हाल में चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर मुहर लगाई। भारत को अब कड़ाई से काम लेना चाहिए। अन्य लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ मिलकर मालदीव पर प्रतिबंध लगाकर दबाव बनाना चाहिए। वहां भारतीय हस्तक्षेप खतरनाक हो सकता है, क्योंकि किसी भी अधिकृत संस्था ने भारत को सेनाएं भेजने के लिए आमंत्रित नहीं किया। वैसे तो भारतीय सैन्य बल कुछ घंटों के भीतर ही माले को अपने नियंत्रण में ले सकते हैं, लेकिन एक ध्रुवीकृत देश में आखिर इसकी क्या परिणति होगी? इस्लामी चरमपंथियों के उभार और सत्तासीन लोगों के कड़े रुख को देखते हुए लोकतांत्रिक आजादी को बचाने के लिए वहां विश्वसनीय साथी तलाशना कड़ी चुनौती होगी। अगर यामीन के सत्ता से बेदखल होने के बाद चुनाव की स्थिति आती है तो भी वहां चीन का दबदबा कम होने के आसार नहीं हैं।

मालदीव को अपने पाले में लाने की कोशिश करेगा चीन

बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल और श्रीलंका में भी बीजिंग ने भारतीय कूटनीति को मात दी है और कई बार तो लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों के साथ सौदेबाजी में भी उसका प्रदर्शन बेहतर रहा है। मालदीव को उसके बढ़ते कर्ज का डर दिखाकर भी चीन उसे अपने पाले में लाने की कोशिश करेगा। मालदीव में सैन्य हस्तक्षेप जरूरी भी है तो इसके लिए भारत नहीं, बल्कि अमेरिका या ब्रिटेन को वहां फौज भेजनी चाहिए। एक तो भारत की तरह उनके लिए वहां गंवाने के लिए बहुत कुछ नहीं है और दूसरे लोकतंत्र की रक्षा उनकी विदेश नीति का हमेशा से एक अहम पहलू रहा है। हिंद महासागर में चीन का बढ़ता प्रभुत्व केवल भारत ही नहीं, बल्कि ब्रिटिश-अमेरिकी नौसैनिक वर्चस्व के लिए भी बड़ा खतरा है। हिंद महासागर में अमेरिका आज भी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है। हिंद महासागर के बीचोबीच स्थित ब्रिटिश नियंत्रण वाले द्वीप दिएगो गार्शिया में अमेरिका का बेहद अहम सैन्य अड्डा है। अमेरिका द्वारा इराक, अफगानिस्तान से लेकर हाल में सीरिया पर बमबारी करने में इसकी अहम भूमिका रही है।

(लेखक सामरिक मामलों के जानकार और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं)