[ हृदयनारायण दीक्षित ]: स्वस्थ जीवन और दीर्घायु सर्वोच्च अभिलाषा है। रोग रहित जीवन और स्वस्थ जीवन में अंतर है। रोगी शरीर में अंतर्संगीत नहीं होता। आयुर्वेद आचार आधारित आर्युिवज्ञान है और एलोपैथी उपचार आधारित चिकित्सा विज्ञान। स्वस्थ जीवन के लिए दोनों उपयोगी हैं, लेकिन यहां दोनों के समर्थक विद्वानों में परस्पर भिड़ंत है। शरीर रहस्यपूर्ण संरचना है। इसकी आंतरिक गतिविधि का बड़ा भाग जान लिया गया है। चिकित्सा विज्ञानियों को इसका श्रेय है। आयुर्वेद का जन्म लगभग 4000 वर्ष ईपू ऋग्वेद के रचनाकाल में हुआ और विकास अथर्ववेद (3000-2000 ईपू) में। मैकडनल और कीथ ने ‘वैदिक इंडेक्स’ में लिखा है, ‘भारतीयों की रुचि शरीर रचना संबंधी प्रश्नों की ओर बहुत पहले से थी। अथर्ववेद में अनेक अंगों के विवरण हैं और यह गणना सुव्यवस्थित है।’ इन लेखकों ने आयुर्वेद के दो आचार्यों चरक और सुश्रुत का उल्लेख किया है।

अल्पसमय में कोरोना से बचाव का टीका कम आश्चर्यजनक नहीं

यूरोप में एलोपैथी का विकास 16वीं-17वीं सदी के आसपास हुआ। एचएस मेन ने लिखा है, ‘भारतीयों ने चिकित्सा शास्त्र का विकास स्वतंत्र रूप से किया। पाणिनि के व्याकरण में विशेष रोगों के नाम हैं। अरब चिकित्सा प्रणाली की आधार शिला संस्कृत ग्रंथों के अनुवादों पर रखी गई। यूरोपीय चिकित्सा शास्त्र का आधार 17वीं सदी तक अरब चिकित्सा शास्त्र ही था।’ एलोपैथी सुव्यवस्थित आधुनिक चिकित्सा पद्धति है। इस चिकित्सा का नाम होम्योपैथी के जन्मदाता जर्मन चिकित्सक डा. सैमुअल हैनीमैन ने एलोपैथी रखा था। इसका अर्थ अलग या भिन्न मार्ग है। इसे पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान/आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी कहते हैं। इसका चिकित्सातंत्र बड़ा है और शोध का दायरा भी। इसने जानलेवा बीमारियों से करोड़ों लोगों को पुनर्जीवन दिया है। सर्जरी, रेडिएशन, सीटी स्कैन, एमआरआइ सहित तमाम घटक विस्मयकारी हैं। कोविड महामारी के दौरान लाखों मरीजों की जांच हुई। सर्वथा नए वायरस की जांच और उपचार विस्मयकारी है। अल्पसमय में कोरोना से बचाव का टीका भी कम आश्चर्यजनक नहीं। जीवन की परवाह त्यागते हुए उपचार करने वाले विज्ञानी, चिकित्सक और पैरा मेडिकल स्टाफ प्रशंसनीय हैं।

आयुर्वेद आयु का विज्ञान, रोगों से बचने के लिए जीवन शैली प्राकृतिक होनी चाहिए

आयुर्वेद आयु का विज्ञान है। यह चिकित्सा विज्ञान होने के साथ स्वस्थ रहने की जीवन शैली भी है। चरक संहिता की शुरुआत जीवन सूत्रों से होती है। कहते हैं, ‘यहां बताए गए स्वस्थव्रत का पालन करने वाले सौ वर्ष की स्वस्थ आयु पाते हैं। आरोग्य सुख है और रोग दुख। दुख का कारण रोग है।’ फिर रोगों का कारण बताते हैं, ‘इंद्रिय विषयों का अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग ही रोगों के कारण हैं।’ रोगों से बचने के लिए जीवन शैली प्राकृतिक होनी चाहिए। महामारी के दीर्घकाल में रोग निरोधक शक्ति की चर्चा पूरे देश में थी। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसकी प्रभावी दवा नहीं है। आयुर्वेद में गिलोय सहित अनेक औषधियां हैं। महामारी की अवधि में ऐसी ही औषाधियों की लाखों टन खपत बढ़ी। अश्वगंधा, जटामांसी, गुग्गुल जैसी औषधियों का प्रयोग बढ़ा है। चरक संहिता में सैकड़ों रोगों के उपचार हैं। अवसाद की भी औषधि है। बेशक सर्जरी नहीं है। ज्वर के उत्ताप पर भी वैदिक ऋषि सजग थे। कहते हैं, ‘कुछ ज्वर एक दिन छोड़कर, कुछ दो दिन बाद आते हैं। ज्वर अपने साथ परिवार भी लाता है। यह अपने भाई कफ के साथ आता है। खांसी इसकी बहन है। राजयक्ष्मा भतीजा है। इनकी औषधियां हैं।’ कोरोना के समय रोगी को समाज से अलग रखने की जरूरत हुई। अथर्ववेद (2.9) में कहते हैं, ‘रोग के कारण समाज से अलग रहे व्यक्ति पुन: जनसंपर्क में जाएं।’

आधुनिक चिकित्सा में साइड एफेक्ट बड़ी समस्या

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अनेक बीमारियों से बचने की औषधियां नहीं हैं। वैक्सीन इसका अपवाद है। आयुर्वेद में शरीर की रोग निरोधक क्षमता बढ़ाने की औषधियां हैं। यह क्षमता बढ़ाकर रोगों का प्रकोप रोका जा सकता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि एलोपैथी में सामान्य रोगों को दबाने की दवा दी जाती है। एसीटाइल सैलिसिलिक एसिड रक्त को तरल बनाने की दवा बताई जाती है। चिकित्सक इसे हार्ट अटैक से बचने की दवा बताते हैं। आयुर्वेद में रक्त तरलता की औषधियां हैं। आधुनिक चिकित्सा में साइड एफेक्ट बड़ी समस्या है। तमाम एलोपैथिक औषधियां रोग के साथ रोगी को भी पीटती हैं। रोगी को तत्काल राहत के लिए ऐसी औषधियों की उपयोगिता है। स्टरायड खतरनाक दवा है। कह सकते हैं कि इसका प्रभावी विकल्प नहीं है। औषधि विज्ञान के क्षेत्र में विकल्पहीनता उचित नहीं। ऐसे मामलों में शोध की आवश्यकता है।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और आयुर्वेद में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं, दोनों का उद्देश्य मानवता का स्वास्थ्य

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में निरंतर शोध चलते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन संसूचित रहता है। पहले शोध और फिर किन्हीं जीवों पर प्रभाव का आकलन। फिर मनुष्यों पर दवा के प्रभाव का आकलन। लगातार शोध से चिकित्सा विज्ञान समृद्ध होता है। ज्ञान-विज्ञान क्षेत्रीय नहीं होते। वे शोध सिद्धि के बाद सार्वजनिक संपदा बन जाते हैं। आयुर्वेद आयु का वेद विज्ञान है। इसमें भोजन, पाचन, श्वसन, चिंतन, तनाव, स्मृति और निद्रा भी स्वस्थ रहने के विषय हैं। आयुर्वेद में भी लगातार शोध की आवश्यकता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और आयुर्वेद में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। दोनों का उद्देश्य मानवता का स्वास्थ्य है। दोनों को परस्पर ज्ञान का आदान-प्रदान करना चाहिए। इस या उस चिकित्सा प्रणाली की खामियां निकालने का कोई उपयोग नहीं है।

दोनों पद्धतियों का एक लक्ष्य है

दोनों पद्धतियों का लक्ष्य एक है। दोनों की अपनी विशेषता है। दोनों का विकास वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हुआ है। दोनों विज्ञान हैं। दोनों की सीमा भी है। डायबिटीज से विश्व का बड़ा भाग पीड़ित है। इस रोग को समाप्त करने की दवा नहीं है। दोनों प्रणालियों को मिलाने की जरूरत है। कुछ बीमारियों का उपचार पहले आयुर्वेद को सौंपा जा सकता है। इसी तरह कुछ रोगों का प्रारंभिक उपचार आधुनिक चिकित्सा विज्ञानी करें। बाद का उपचार आयुर्विज्ञानी करें। दोनों के विशेषज्ञों में सतत संवाद चलते रहने की व्यवस्था करनी चाहिए। प्राचीनता और आधुनिकता का संगम राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में फलप्रद होता है। चिकित्सा और रोगोपचार के क्षेत्र में दोनों के विशेषज्ञ मिलकर शोध करें। आरोप-प्रत्यारोप का कोई औचित्य नहीं है।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )