राम जन्मभूमि: विवाद जारी रखना चाहता है AIMPLB, पुनर्विचार याचिका का फैसला गलत
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा राम जन्मभूमि पर आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश को न मानते हुए इसके खिलाफ जो पुनर्विचार याचिका दायर करने का फैसला लिया है वह गलत है।
अवधेश कुमार। अयोध्या मामले पर उच्चतम न्यायालय के फैसले से देश के बहुमत ने यह सोचते हुए राहत की सांस ली कि लगभग पांच सदी के विवाद का बेहतरीन हल निकल आया है। किंतु कुछ ही समय बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी यह कहते हुए सामने आ गए कि हम फैसले से संतुष्ट नहीं हैं, और इसके विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे। इसके बाद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा- हमारे साथ इंसाफ नहीं हुआ है। उन्होंने उच्चतम न्यायालय पर भी जिस तरह की टिप्पणियां कीं और अभी भी कर रहे हैं वो सब देश के सामने है। इस बीच ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का फैसला करना वाकई में दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड
वास्तव में फैसले के बाद आम मुसलमानों की प्रतिक्रिया यही थी कि अब इस मामले को यहीं समाप्त किया जाए। लेकिन इसके विरुद्ध ये लोग सक्रिए हो गए। जब याचिकाकर्ता कहने लगे कि हम अपील नहीं करेंगे तो उन पर प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव बनाने की पूरी कोशिश हुई और आज अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के चार पक्षकार अपील के लिए तैयार हैं तो इसके पीछे निहित स्वार्थी तत्वों का दबाव ही है। जिलानी ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर याचिकाकर्ताओं में से कोई नहीं जाएगा तब भी मुस्लिम समाज से कोई याचिका डाल सकता है, क्योंकि यह पूरे समुदाय का मसला है। पुनर्विचार याचिका में जाना हर वादी-प्रतिवादी का हक है। किंतु ये जिन तर्को के साथ पुनर्विचार के लिए जा रहे हैं उन सबका उच्चतम न्यायालय पहले ही जवाब दे चुका है।
न्यायालय के दस तर्क
न्यायालय ने इस संबंध में दस तर्क दिए हैं। पहला, उच्चतम न्यायालय ने माना है कि बाबर के सेनापति मीर बाकी की ओर से मस्जिद का निर्माण कराया गया था। दूसरा, वर्ष 1857 से 1949 तक बाबरी मस्जिद की तीन गुंबदों वाली इमारत और अंदरूनी हिस्सा मुस्लिमों के कब्जे में माना गया है। तीसरा, न्यायालय ने माना है कि बाबरी मस्जिद में आखिरी नमाज 16 दिसंबर 1949 को पढ़ी गई थी यानी वह मस्जिद के रूप में थी। चौथा, न्यायालय ने माना है कि 22-23 दिसंबर 1949 की रात को चोरी से या फिर जबरदस्ती मूर्तियां रखी गई थीं। पांचवां, गुंबद के नीचे कथित राम जन्मभूमि पर पूजा की बात नहीं कही गई है। ऐसे में यह जमीन फिर रामलला विराजमान के पक्ष में क्यों दी गई?
नहीं माना पक्षकार
छठा, न्यायालय ने खुद अपने फैसले में कहा है कि राम जन्मभूमि को पक्षकार नहीं माना जा सकता। फिर उसके आधार पर ही फैसला क्यों दिया गया? सातवां, न्यायालय ने माना है कि छह दिसंबर 1992 को मस्जिद को गिराया जाना गलत था तो मंदिर के लिए फैसला क्यों दिया गया। आठवां, न्यायालय ने कहा कि हिंदू सैकड़ों वर्षो से पूजा करते रहे हैं, इसलिए जमीन रामलला को दी जाती है, जबकि मुस्लिम भी तो वहां इबादत करते रहे हैं। नौवां, जमीन हिंदुओं को दी गई है, इसलिए पांच एकड़ जमीन दूसरे पक्ष को दी जाती है। न्यायालय ने संविधान के संबंधित नियमों का हवाला देते हुए यह बात कही। इसमें वक्फ एक्ट का ध्यान नहीं रखा गया, उसके मुताबिक मस्जिद की जमीन कभी बदली नहीं जा सकती है। और दसवां, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के आधार पर ही न्यायालय ने यह माना कि किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण नहीं हुआ था।
40 दिनों की बहस
सच यह है कि इन दसों प्रश्नों पर उच्चतम न्यायालय के 40 दिनों की बहस में दोनों पक्षों ने अपने-अपने तर्क और तथ्य दिए थे। फैसले में इन सबका जवाब दिया गया है। सबसे अंतिम तर्क मस्जिद के लिए जमीन के प्रश्न को लीजिए। न्यायालय ने इसे क्षतिपूर्ति नहीं कहा है। केवल इतना कहा है कि न्यायालय अगर मुस्लिमों के हक को नजरअंदाज करती है तो न्याय नहीं होगा। संविधान हर धर्म को बराबरी का हक देता है और सहिष्णुता तथा परस्पर शांतिपूर्ण सह अस्तित्व हमारे देश और यहां के लोगों की धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता को मजबूत करते हैं। संविधान पीठ ने कहा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यह नहीं बता पाया कि मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई थी। लेकिन न्यायालय ने सुन्नी वक्फ बोर्ड और अन्य मुस्लिम पक्षकारों द्वारा सर्वेक्षण की रिपोर्ट खारिज किए जाने के सारे तर्क अमान्य करार दिए।
सुन्नी वक्फ बोर्ड
मौजूदा न्याय प्रणाली को जिस तरह के प्रत्यक्ष साक्ष्य की आवश्यकता होती है उसकी बात न्यायालय ने कही है। न्यायालय ने साफ कहा है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड यह साबित नहीं कर पाया कि विवादित जगह पर उसका बिना किसी बाधा के लंबे समय तक कब्जा रहा। व्यवधान के बावजूद साक्ष्य यह बताते हैं कि प्रार्थना पूरी तरह से कभी बंद नहीं हुई। मुस्लिमों ने ऐसा कोई साक्ष्य पेश नहीं किया, जो यह दर्शाता हो कि वे 1857 से पहले मस्जिद पर पूरा अधिकार रखते थे। इस बात के पूरे सबूत हैं कि राम चबूतरा और सीता रसोई पर हिंदू 1857 से पहले भी पूजा करते थे। मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण 1528 में कराया था, लेकिन यह स्थल दशकों से निरंतर संघर्ष का केंद्र रहा।
एक नजर इधर भी
पीठ ने कहा कि 1856-57 में सांप्रदायिक दंगा भड़कने से पहले हिंदुओं को परिसर में पूजा करने से नहीं रोका गया। वर्ष 1856-57 के दंगों के बाद पूजा स्थल पर रेलिंग लगाकर इसे बांट दिया गया ताकि दोनों समुदायों के लोग पूजा कर सकें। इसके स्पष्ट साक्ष्य हैं कि हिंदू विवादित ढांचे के बाहरी हिस्से में पूजा करते थे। कानून-व्यवस्था और शांति बनाए रखने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने परिसर को भीतरी और बाहरी बरामदे में विभाजित करते हुए छह से सात फुट ऊंची ग्रिल-ईंट की दीवार खड़ी की। भीतरी बरामदे का इस्तेमाल मुसलमान नमाज पढ़ने के लिए और बाहरी बरामदे का इस्तेमाल हिंदू पूजा के लिए करने लगे।
विवाद को जारी रखने की कवायद?
बोर्ड का कौन सा प्रश्न अनुत्तरित है जिसके लिए ये पुनर्विचार याचिका लेकर जा रहे हैं? न्यायालय ने हर उस पहलू की जांच की है जो इससे जुड़े हैं। श्रीरामलला विराजमान के बारे में न्यायालय ने कहा कि 1989 में श्रीरामलला विराजमान की ओर से दायर याचिका बेवक्त नहीं थी। फैसले में राम जन्मभूमि के पक्ष में ऐसे-ऐसे साक्ष्य और तर्क हैं जिनको किसी सूरत में खारिज नहीं किया जा सकता। इन सबको यहां प्रस्तुत करना संभव नहीं। जानबूझकर ये खत्म हो चुके विवाद को बनाए रखना चाहते हैं। प्रश्न है क्यों? इससे तो सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा। आवश्यक है कि विवेकशील मुस्लिम निहित स्वार्थी नेताओं की मुखालफत करें। मुस्लिम समाज की ओर से मुखर विरोध ही इनका बेहतर जवाब हो सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
यह भी पढ़ें:-
कोई सुनने को तैयार नहीं पाकिस्तान का कश्मीर राग, फिर भी लिखा यूएन को पत्र
Indira Gandhi के वो फैसले जो हमेशा रहेंगे याद, वैश्विक मंच पर भारत को दिलाई थी पहचान
ये वेनिस है जनाब! पानी-पानी होने के बाद भी कायम है लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट