क्षमा शर्मा। कुछ दिनों पहले देश की राजधानी में जंतर-मंतर पर सेव इंडियन फैमिली के बैनर तले पुरुषों के लिए काम करने वाले लगभग पचास गैर सरकारी संगठनों (एनजीओज) ने पुरुषों के अधिकारों के लिए प्रदर्शन किया। इसे पुरुष सत्याग्रह का नाम दिया गया, लेकिन इस प्रदर्शन की कोई खास चर्चा नहीं हुई। कारण शायद यह सोच रही कि पुरुषों को कभी कोई तकलीफ नहीं होती। यदि हम आधी आबादी की बात करें तो देश में आधी आबादी पुरुषों की भी है। कुछ अपराधी पुरुषों के उदाहरण भर से सभी पुरुषों से मुंह मोड़ लेना कहां तक जायज है? यह कैसे मान लिया गया है कि देश की पचास प्रतिशत आबादी जो पुरुषों की है, वह सिर्फ अपराध ही कर रही है।

जंतर-मंतर पर हुए प्रदर्शन में कहा गया कि कहीं भारत निरपराध पुरुषों को जेल में डालने वाला प्रमुख देश न कहलाने लगे, क्योंकि यहां करीब पचास कानून महिलाओं के लिए हैं। उनके लिए काम करने वाले दस हजार से अधिक एनजीओज हैं। अलग से मंत्रालय है। सरकार की नीतियां हैं। लड़कियों के लिए वजीफे और स्कूल-कॉलेजों में नामांकन में प्राथमिकताएं हैं। केंद्र और प्रांतों में महिला कमीशन हैं।

इस तरह यहां सरकार की सभी नीतियां महिलाओं पर आकर खत्म हो जाती हैं, जबकि झूठे आरोपों में फंसाने के बावजूद पुरुषों की रक्षा के लिए न कोई कानून है, न मुफ्त कानूनी सहायता है और न उनके कल्याण के लिए सरकारी योजनाओं में कोई अलग से बजट है। पीड़ित पुरुषों के लिए काम करने वाले लोगों ने बताया कि दहेज निरोधी कानून (498ए), घरेलू हिंसा, दुष्कर्म, यौन उत्पीड़न, कार्यस्थलों पर प्रताड़ना और पोक्सो कानून का बड़े पैमाने पर पुरुषों के खिलाफ दुरुपयोग किया जा रहा है। और अपुष्ट आधार पर भी मीटू जैसे अभियान भी चलाए जाते हैं। कई बार नाम लेने भर से पुरुषों को अपराधी बना दिया जाता है।

दरअसल महिला हितैषी कानूनों के तहत लाखों लोग जेलों में बंद हैं। कई बार दस साल बाद जब वे निरपराध साबित होते हैं, जेल से छूटते हैं, तब भी उन लोगों को कोई सजा नहीं मिलती, जिन्होंने उन पर झूठे आरोप लगाए। इसलिए जो भी झूठे आरोप लगाए, चाहे स्त्री हो या पुरुष, उसे दस साल की कठोर कारावास की सजा दी जाए। झूठी गवाही देने वालों को भी यही सजा मिले। पुरुषों के साथ उनकी मां, बहनें, दादियां भी सिर्फ किसी महिला खासतौर से पत्नी के कहने भर से जेल की सजा पाती हैं। इसीलिए जेलों में बड़ी संख्या में औरतें बंद हैं। पुलिस पत्नी और उसके परिवार वालों के कहने से कई बार पति के सभी घर वालों को पकड़ लेती है। दूर-दराज के रिश्तेदारों को भी नहीं बख्शा जाता।

कई महिला कानून जैसे कि दहेज निरोधी 498ए या दुष्कर्म कानून पैसे वसूली गिरोह के हाथों पड़ गए हैं। जो इनका दुरुपयोग करके खूब पैसे वसूलते हैं। ऐसे बहुत से गिरोह पकड़े भी गए हैं। पुरुष सत्याग्रह मुहिम में शामिल लोगों का कहना है कि वे महिलाओं की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन आरोपों की सही जांच की जानी चाहिए और दोषी को सजा मिलनी चाहिए।

जांच किसी के कहने के आधार पर नहीं, सुबूतों के आधार पर होनी चाहिए। उनकी शिकायत थी कि जब देश में महिलाओं, बच्चों, जानवरों, पेड़-पौधों तक के लिए सरकारें अलग से कमीशन बना सकती हैं तो पुरुषों के लिए क्यों नहीं? देश में एक अपराधी के भी कुछ अधिकार हैं, मगर पुरुषों के नहीं। क्या पुरुष वोट नहीं देते। हालत यह है कि हर नौ मिनट पर एक पुरुष आत्महत्या कर रहा है। हर वर्ष 94 हजार पुरुष आत्महत्या करते हैं। इनमें विवाहित पुरुषों की संख्या 65 हजार होती है। पुरुषों की आत्महत्या दर महिलाओं से छह प्रतिशत अधिक है।

कई बार पुरुष अगर अपने निरपराध होने के सुबूत भी देते हैं तो उन्हें नहीं माना जाता, जबकि महिला के कहने भर से उन्हें अपराधी साबित कर दिया जाता है। बड़ी संख्या में पुरुष गरीब हैं, बीमार हैं, बेरोजगार हैं, परिवारों का बोझ उनके कंधों पर है, माता-पिता से लेकर अपने परिवार की देखभाल उन्हीं को करनी है, मगर उनकी सुनने वाला कोई नहीं।

25 प्रतिशत पुरुष आयकर देते हैं। देश निर्माण में अपनी भूमिका निभाते हैं, मगर नेताओं के लिए उनकी कोई कीमत नहीं। उनके लिए कोई मंच नहीं, जहां वे अपनी बात कह सकें। पुरुष चाहते हैं कि उनके लिए अलग से पुरुष कल्याण मंत्रालय बनाया जाए। गरीब पुरुषों को मुफ्त कानूनी सलाह दी जाए। कानून लिंगभेद से मुक्त हों और सबको न्याय देने वाले हों। साफ है कि पुरुषों के वोट चाहिए तो सभी दल अपने-अपने घोषणा पत्रों में बताएं कि अगर वे जीते तो पुरुषों के लिए क्या करेंगे? उनके कल्याण के लिए कौन-सी योजनाएं बनाएंगे? साथ ही वे पुरुष आयोग बनाने का भी वायदा करें।

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार एवं स्तंभकार हैं)