[ प्रदीप सिंह ]: गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है, ‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना।’ प्रकृति के इस नियम से राजनीति और चुनाव भी अछूते नहीं हैं। यह बात पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों से साफ हो गई है। इस जनादेश ने इस बात की फिर से पुष्टि की है कि वायदों और लोकलुभावन नारों से सत्ता हासिल तो की जा सकती है, लेकिन उसे बनाए नहीं रखा जा सकता। मतदाता चुनाव दर चुनाव यह बात राजनीतिक दलों को बताता है, परंतु भला राजनीतिक दल सीखते कब हैं? इन चुनाव नतीजों ने एक बात और बताई कि धर्म और आस्था के मसलों पर रोजी-रोटी के मुद्दे हमेशा भारी पड़ते रहे हैं और पड़ते रहेंगे।

कांग्रेस का कर्ज माफी, कृषि उपज का ज्यादा दाम देने का वादा, किसानों और नौजवानों की समस्या हल करने में भाजपा की राज्य सरकारों की नाकामी मतदाताओं को अपील कर गई। यह जनादेश भाजपा के लिए चेतावनी ही नहीं, खतरे की घंटी भी है। चेतावनी कि संभल जाओ वरना हम विकल्प चुनने से परहेज नहीं करेंगे। नतीजों के बाद अब चर्चा मतदान प्रतिशत की होगी, लेकिन यह कवायद पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए ही है। मतदान प्रतिशत की बात राजनीतिक दलों के लिए उस परीक्षार्थी की तरह है जो नतीजा आने के बाद पछताता है कि काश थोड़ी और मेहनत कर ली होती। वास्तविकता यह है कि हिंदी पट्टी के तीन राज्य भाजपा के हाथ से फिसल गए हैं। इन तीन राज्यों में भाजपा की हार से ज्यादा अहम बात है कांग्रेस की जीत।

इससे भाजपा का एक भ्रम टूट जाना चाहिए कि मतदाता ने कांग्रेस को विकल्प के रूप में देखना बंद कर दिया है। यह सही है कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की उतनी बड़ी जीत नहीं हुई है जैसी 2013 में भाजपा की हुई थी, परंतु जैसे क्रिकेट में मैच खत्म होने के बाद सारे आंकड़े बेमानी हो जाते हैं और हार-जीत ही जेहन में रह जाती है उसी तरह चुनाव में हार-जीत के अलावा बाकी बातें अकादमिक बहस के लिए रह जाती हैं।

इन चुनावों की कहानी यही है कि कांग्रेस की तीन राज्यों में सरकार बन रही और भाजपा तीन राज्यों की सत्ता से बाहर चली गई, परंतु इससे भी बड़ी और भविष्य की दृष्टि से अहम बात यह है कि राहुल गांधी न केवल राष्ट्रीय नेता के रूप में, बल्कि मोदी के प्रतिद्वंंद्वी के रूप में स्थापित हो गए हैं। किसी भी संसदीय जनतंत्र में नेता की हैसियत एक ही बात से आंकी जाती है और वह है उसकी वोट दिलाने की क्षमता।

पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालने के बाद से राहुल गांधी इस क्षमता का प्रदर्शन करने में बार-बार नाकाम हो रहे थे। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की जीत ने राहुल गांधी के रूप में मोदी को चुनौती देने वाला खड़ा कर दिया है। अब यह प्रश्न अप्रासंगिक हो गया है कि मोदी के सामने कौन? इससे पहले तक भाजपा की रणनीति थी कि 2019 के चुनाव को मोदी बनाम राहुल बना दिया जाए। अब कांग्रेस इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार है। इस जनादेश का एक बड़ा संदेश है कि मतदाता राहुल गांधी को गंभीरता से लेने लगा है। उसने राहुल गांधी को हास्य के पात्र के रूप में देखने से इन्कार कर दिया है। मतदाता ने एक लक्ष्मण रेखा खींच दी है कि अब बस। यह बात भाजपा नेता जितनी जल्दी समझ लें, अच्छा है। यह भी कि तीन राज्यों की पराजय मोदी की हार भले न हो, परंतु राहुल गांधी की जीत जरूर है।

लोकसभा चुनाव में अब कुछ ही महीने बचे हैं। इसलिए मोदी सरकार के पास ‘कोर्स करेक्शन’ के लिए समय बहुत कम है। भाजपा की हार में राजनीतिक मुद्दों से ज्यादा बड़ी भूमिका आर्थिक मुद्दों की रही है। किसानों की समस्या गंभीर मुद्दा है। यह सही है कि मोदी सरकार ने इसमें सुधार के लिए पिछली किसी भी सरकार से ज्यादा काम किया है, किंतु यह भी सच है कि ये कदम नाकाफी साबित हुए हैं।

करीब पांच साल सत्ता में रहने के बाद इस समस्या के लिए पिछली सरकारों की नाकामी बताकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। किसानों की बदहाली और बेरोजगारी की मार ने भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। इसका जवाब अयोध्या में मंदिर बनाने की कोशिश से नहीं दिया जा सकता। उत्तर प्रदेश में 15 साल और केंद्र में 10 साल तक सत्ता से बाहर रखकर मतदाताओं ने संदेश दे दिया था कि इस मुद्दे पर अब वह भाजपा पर भरोसा करने को तैयार नहीं है। किसानों के अलावा अनुसूचित जाति/जनजाति कानून में संशोधन के कदम से दलित,आदिवासी खुश तो नहीं हुए, परंतु सवर्ण नाराज जरूर हो गए। पार्टी का परंपरागत मतदाता व्यापारी और मध्यवर्ग पहले से ही नाखुश है।

छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनाव नतीजों ने यह भी साबित किया कि भाजपा के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में अब भी एक खेवनहार है। राजस्थान में चुनाव के आखिरी दौर में उनके प्रचार से ही पार्टी को सफाये का सामना नहीं करना पड़ा। वरना कांग्रेस के पक्ष में 2013 जैसा नतीजा आता। किसनों की कर्जमाफी का मुद्दा अब यक्ष प्रश्न की तरह मोदी सरकार के सामने खड़ा है। कर्ज माफी एक ऐसा उपाय है जिससे किसान की आमदनी या जीवन में कोई बदलाव तो आता नहीं परंतु अर्थव्यवस्था, खासतौर से बैंकिग व्यवस्था के विनाश का आधार तैयार हो जाता है। यह कर्ज लो और भूल जाओ की संस्कृति को बढ़ावा देता है। संप्रग शासन में चली इस संस्कृति का खामियाजा देश के लोग आज तक भुगत रहे हैं, परंतु मोदी को इस सच का भी सामना करना पड़ेगा कि तीनों राज्यों में कांग्रेस की जीत में इस एक मुद्दे की सबसे बड़ी भूमिका रही है। प्रधानमंत्री मोदी इस नीति के खिलाफ रहे हैैं।

उत्तर प्रदेश में पार्टी के घोषणा पत्र में वह इसे शामिल करने को तैयार नहीं थे। इसके लिए घोषणा पत्र कई दिन रुका रहा। छत्तीसगढ़ में भी चुनाव के आखिरी दौर में रमन सिंह ने किसानों के लिए कर्ज माफी की घोषणा की अनुमति मांगी, जो नहीं मिली।

तीन राज्यों में जीत से अब राहुल गांधी क्षेत्रीय दलों के साथ बातचीत की मेज पर ज्यादा आत्मविश्वास के साथ बैठेंगे। अभी तक उनके नेतृत्व की बात पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले उन्हें सम्मान की नजर से देखेंगे। इस सबके बावजूद राहुल गांधी और कांग्रेस को इस बात की चिंता होनी चाहिए कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा सरकारों से नाराज करीब सात-आठ प्रतिशत वोटर कांग्रेस की ओर नहीं आया।

भाजपा दोनों राज्यों में हारी जरूर है, पर मुकाबले से बाहर कतई नहीं हुई है। यह सही है कि अतीत में भी इन तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे का लोकसभा चुनाव के नतीजे पर कोई असर नहीं पड़ा, लेकिन पिछले चुनावों से इसकी तुलना नहीं हो सकती। इसीलिए तीन राज्यों के चुनाव नतीजे बदलते मौसम की दस्तक हैैं।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )