नई दिल्ली [शंभु सुमन]। लॉकडाउन के आरंभिक दौर में दिल्ली एनसीआर समेत देश के अन्य महानगरों से अपने-अपने राज्यों की ओर पलायन करने वाले मजदूरों का मामला अभी ठंडा नहीं हुआ था कि लॉकडाउन के दूसरे चरण के आरंभ होने से एक दिन पूर्व यानी मंगलवार को मुंबई समेत सूरत आदि शहरों में व्यापक संख्या में मजदूर रेलवे स्टेशनों पर अपने गृह राज्य जाने के लिए एकत्रित होने लगे थे। हालांकि किसी तरह उन्हें समझाकर भेज दिया गया, लेकिन हमें समझना होगा कि उनके सामने रोजी के साथ रोटी का संकट भी गहरा हो गया है जिस कारण भी शायद वे ऐसा कदम उठाने को बाध्य हुए।

इस महामारी के खत्म होने के बाद वैश्विक आर्थिक मंदी की आशंका के मद्देनजर देश भर में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और भुखमरी का माहौल बन सकता है। साथ ही उत्पादकता में भी गिरावट आ सकती है। ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ के ताजा सर्वेक्षण के अनुसार श्रम शक्ति की भागीदारी में लगातार गिरावट आ चुकी है। इसे दुरुस्त करने के लिए बड़े पैमाने पर मजदूरों को सक्रिय बनाना होगा। अपने-अपने घरों की ओर लौट चुके प्रवासी कामगारों को नए सिरे से काम पर लगाना आसान नहीं होगा। वे न तो वेतनभोगी हैं और न ही मनरेगा की तरह गारंटीशुदा मजदूर, जो दौड़े-भागे आ जाएंगे।

उनकी बेतरतीब हो चुकी जिंदगी को पटरी पर लाना उन कंपनियों के लिए बड़ी चुनौती होगी, जो आउटसोर्सिंग या ठेके के जरिये काम चला रहे थे। वे असंगठित क्षेत्रों के कामगारों को आर्थिक सुरक्षा देने में फिसड्डी रहे हैं। वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा जून 2019 में जारी की गई एक रिपोर्ट में मजदूरों की दशा का पता चल जाता है।

इस रिपोर्ट के अनुसार 71 फीसद मजदूर बगैर किसी लिखित अनुबंध के काम करते हैं। उनमें से 54 फीसद को छुट्टियों के पैसे नहीं मिलते हैं। साथ ही 52 फीसद मजदूर स्वरोजगार से जुड़े श्रमिक हैं जो खेती, छोटी दुकानों या फिर मेहनत-मजदूरी की सेवाएं देने वाले दिहाड़ी मजदूर हैं।

ऐसे में मजदूरों की स्थिति में सुधार कैसे हो सकता है? किस तरीके से कामगारों को योग्यता और श्रेष्ठता के अनुसार काम और समुचित मेहनताने की गारंटी मिले, ताकि लॉकडाउन या दूसरी किसी अन्य आपदा जैसी स्थिति में उनके हाथ और पेट खाली नहीं रहें। ऐसी स्थिति में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को एक नए प्रारूप में लाने की जरूरत है।

वह प्रारूप किसी दूसरे नियम-कानून से एकदम अलग और स्वतंत्र बुनियाद पर बनी होनी चाहिए। उदाहरण के लिए किसी भी दिहाड़ी मजदूर या कुशल कामगार की कार्यक्षमता, दक्षता और श्रमशक्ति की योग्यता के अनुसार निर्धारित मेहनताने का एक डिजिटल बेस बने। उसे कामगार होने की प्रामाणिकता का एक कार्ड मिले जिससे उसकी नियोक्ता द्वारा पहचान बार कोड या फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक से तुरंत हो सके और स्वत: प्रशासनिक दायरे में भी आ जाए।

साथ ही स्वास्थ्य या दूसरी सुविधाओं के लाभ भी इसी में गारंटी के साथ दर्ज रहें। इसे मनरेगा के प्रारूप के आधार पर भी लागू किया जा सकता है ताकी हर कामगार अपनी विशेष पहचान रख सके। बहरहाल श्रम एवं रोजगार मंत्रालय प्रवासी कामगारों का ब्योरा जुटा रहा है। उसका ध्यान देश भर के राहत शिविरों या कंपनियों के परिसरों या क्लस्टरों में रह रहे प्रवासी श्रमिकों पर है।

सरकार द्वारा लाखों कामगारों का डाटाबेस तैयार करने की यह कोशिश तभी लंबे समय तक फलदायी साबित होगी, जब उसे एक ठोस प्रारूप में लाया जा सके। यदि यह केवल समुचित राहत पैकेज के लिए किया जा रहा है तो यह क्षणिक लाभ का ही बनकर रह जाएगा।