[राजीव सचान]। दादरी और हैदराबाद के बाद हाथरस नेताओं का नया ‘तीर्थस्थल’ बनकर उभरा है। हाथरस के पीड़ित परिवार को सांत्वना देने और उसके लिए न्याय की गुहार करते हुए तमाम नेता इस शहर की ओर उसी तरह दौड़े चले जा रहे हैं जैसे वे दादरी में गोहत्या के संदेह में मारे गए अखलाक और फिर हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद वहां दौड़ कर गए थे। आखिर अन्याय और अत्याचार के शिकार हुए लोगों के प्रति हमारे नेताओं की संवेदना कुछ खास मामलों में ही क्यों जगती है?

यह सवाल नेताओं के साथ-साथ मीडिया और खासकर टीवी चैनलों के समक्ष भी है। टीवी चैनलों के पास तो इस सवाल का सीधा और बहुत सरल सा जवाब यह होगा कि वे तो टीआरपी की तलाश में रहते हैं और उसके लिए कहीं भी जा सकते हैं? विचार करें कि नेता या फिर राजनीतिक दल ऐसे किसी सवाल के जवाब में क्या कह सकते हैं? उनकी ओर से एक आसान जवाब तो यह हो सकता है कि उनकी संवेदना उन्हें ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए प्रेरित करती है। वे यह भी कह सकते हैं कि यह तो हम ही तय करेंगे कि किस मामले में हमारी संवेदना जगेगी और किसमें नहीं?

देश को यह संदेश देना चाहते हैं कि हम ही हैं दलित और पीड़ित परिवार के सच्चे हितैषी

वे ऐसा भी कोई जवाब दे सकते हैं कि मेरी मर्जी-ठीक वैसे ही जैसे पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अभी हाल में दिल्ली में अपने कार्यकर्ताओं की ओर से ट्रैक्टर जलाने पर कहा था कि मेरा ट्रैक्टर, मैं जो चाहे वह करूं! जो जवाब वह नहीं देंगे या नहीं देना चाहेंगे, वह यह होगा कि दरअसल हमारा मकसद तो केवल मौके का फायदा उठाना, प्रचार पाना और देश को यह संदेश देना होता है कि हम ही हैं दलित, वंचित या पीड़ित परिवार के सच्चे हितैषी।

मौकापरस्त राजनीति की है पराकाष्ठा

नि:संदेह कोई यह तय नहीं कर सकता कि किसी की संवेदना किस मामले में जगे और किसमें नहीं, लेकिन यह मौकापरस्त राजनीति की पराकाष्ठा है कि संवेदना व्यक्त करने का काम सिर्फ इस आधार किया जाए कि पीड़ित और आरोपित कौन है और घटना किस दल के शासन वाले राज्य में हुई है? यह शुद्ध गिद्ध राजनीति है। हाल के समय में राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठनों की ओर से संवेदना के प्रकटीकरण का जैसा जातीय और सांप्रदायीकरण किया गया है, उसकी मिसाल मिलना दुर्लभ है।

राजनीतिक दलों ने अपनी संवेदना को टुकड़ों में दिया है बांट

जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे का नारा गूंजने के बाद टुकड़े-टुकड़े गैंग का जो जुमला प्रचलन में आया था, उसी की तर्ज पर राजनीतिक दलों ने अपनी संवेदना को भी टुकड़ों में बांट दिया है। वे मौका और माहौल देखकर अपनी संवेदना व्यक्त करते हैं। कई बार तो वे एक जैसी घटनाओं में भी किसी एक पर तो अपनी संवेदना और चिंता खूब व्यक्त करते हैं, लेकिन उसी तरह की दूसरी घटना पर मौन रहना पसंद करते हैं। यह एक तथ्य है कि दलित उत्पीड़न अथवा भीड़ की हिंसा के मामले में कुछ खास घटनाओं पर तो खूब शोर मचाया गया, लेकिन ठीक उसी तरह की घटनाओं पर चुप्पी साध ली गई। ऐसा इसीलिए किया गया, क्योंकि उससे राजनीतिक हित नहीं सधते थे या फिर अपने नैरेटिव को साबित करने में मुश्किल होती थी।

विरोधी दल को लांछित करने में मदद मिलेगी या नहीं

अब राजनीतिक दल यही देखकर घटना विशेष पर अपनी संवेदना प्रकट करते हैं कि इससे विरोधी दल को लांछित करने में मदद मिलेगी या नहीं? चूंकि उनका लक्ष्य पीड़ित परिवार को सांत्वना देने के बजाय दल विशेष को कठघरे में खड़ा करना होता है, इसलिए वे यही जाहिर करते हैं कि अत्याचार तो विरोधी दल के इशारे पर ही हुआ। हाथरस कांड के मामले में भी ऐसा ही साबित करने की कोशिश की जा रही है। यही काम दादरी में अखलाक की हत्या और हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद भी किया गया था।

मानसिकता को भी खास तौर पर निशाने पर लेने की है

इस घनघोर मौकापरस्त राजनीति का नतीजा यह है कि उस विषाक्त मानसिकता पर प्रहार हो ही नहीं पा रहा, जिसके चलते ऐसी घटनाएं होती हैं। राजनीतिक दलों के लिए दलित उत्पीड़न के मामले में ऐसा मनमाना निष्कर्ष निकाला जाना तो बहुत आसान है कि शासन- प्रशासन संवेदनशील नहीं, लेकिन यह समस्या का सरलीकरण है, क्योंकि इस तरह की घटनाओं के मूल में तो समाज की वह मानसिकता है, जिसके चलते दलित, वंचित समूहों को नीची निगाह से देखा जाता है और वे अन्याय का शिकार बनते हैं। जब जरूरत इस मानसिकता को भी खास तौर पर निशाने पर लेने की है, तब यह बताने की कोशिश की जाती है कि सत्तारूढ़ दल अथवा उसका प्रशासन दलितों के हित की चिंता नहीं कर रहा है। इसे साबित करने में मीडिया का एक हिस्सा भी अतिरिक्त मेहनत करता है।

दलित उत्पीड़न एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या

हाथरस कांड सभ्य समाज को शर्मिंदा और साथ ही यह बयान करने वाला है कि किस तरह दलित समुदाय अब भी अत्याचार का शिकार हो रहा है, लेकिन यह देखना दयनीय है कि राजनीतिक दलों का सारा जोर यह साबित करने पर है कि यह खौफनाक घटना तो इसलिए घटी कि उत्तर प्रदेश में भाजपा शासन में है। इस तरह का निष्कर्ष निकालने वालों पर किसी का बस नहीं, लेकिन यह ध्यान रहे तो बेहतर कि दलित उत्पीड़न एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े यह स्पष्ट भी कर रहे हैं, लेकिन पक्ष-विपक्ष के दलों को तो अपने एजेंडे के हिसाब से ही नतीजे पर पहुंचना है। जब तक ऐसी गंदी और घटिया राजनीति होती रहेगी और तथाकथित संवेदना के टुकड़े-टुकड़े किए जाते रहेंगे, तब तक दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर लगाम लगने वाला नहीं है, भले ही कानूनों को कितना भी कठोर क्यों न बना दिया जाए? कोई इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकता कि देश को दहलाने वाले दिल्ली के निर्भया कांड के बाद दुष्कर्म रोधी कानून हद से ज्यादा कठोर कर दिए गए और फिर भी नतीजा ढाक के तीन पात वाला है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)