[ राजीव सचान ]: अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे ने यह कहा कि सोशल मीडिया में जजों की आलोचना से न केवल विवाद पैदा होता है, बल्कि उनकी साख को चोट भी पहुंचती है। उनके इस कथन ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया तो इसका एक कारण यह भी रहा कि वह सुप्रीम कोर्ट के अगले मुख्य न्यायाधीश बनने जा रहे हैैं। जस्टिस बोबडे ने यह भी कहा कि सोशल मीडिया में न्यायाधीशों की बेलगाम आलोचना उन्हें परेशान करती है। इसी के साथ उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि सुप्रीम कोर्ट सोशल मीडिया पर होने वाली अनियंत्रित आलोचना पर काबू पाने के लिए कुछ नहीं कर सकता।

लोकतंत्र में हर व्यक्ति और संस्था को आलोचना का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए

कहना कठिन है कि अनियंत्रित आलोचना से उनका आशय क्या है? इसे परिभाषित करना भी कठिन है, क्योंकि जो आलोचना किसी के लिए बेलगाम हो वही किसी अन्य के लिए जायज भी हो सकती है। पता नहीं सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकार जो उपाय करने जा रही है उससे बात बनती है या नहीं, लेकिन ऐसी स्थिति का निर्माण आसानी से संभव नहीं कि अदालतों के फैसले आलोचना से मुक्त हो सकें। लोकतंत्र में हर व्यक्ति और संस्था को आलोचना का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। केवल इतना ही नहीं, आलोचना पर आत्ममंथन भी होना चाहिए, क्योंकि किसी की ओर से भी ऐसे फैसले लिए जाना संभव नहीं जिन पर अंगळ्ली न उठाई जा सके।

रविदास मंदिर को ढहाने वाला सुप्रीम कोर्ट के फैसले की हुई थी आलोचना

सुप्रीम कोर्ट के कई ऐसे फैसले रहे हैैं जिन पर उसे आलोचना का सामना करना पड़ा है। हाल में ऐसा ही एक फैसला दिल्ली के तुगलकाबाद इलाके में बने संत रविदास मंदिर को ढहाने का रहा। इस मंदिर को इस आधार पर ढहाने का आदेश दिया गया कि वह दिल्ली के वन क्षेत्र में बना है और मंदिर के आसपास की जमीन पर भी अवैध कब्जा कर लिया गया है। करीब दो महीने पहले दिए गए इस आदेश का देश के कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर विरोध हुआ, लेकिन आखिरकार वैसा ही हुआ जैसा सुप्रीम कोर्ट ने निर्देशित किया था। तमाम विरोध के बाद भी रविदास मंदिर को ढहा दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने उसी स्थान पर मंदिर बनाने का दिया आदेश

मंदिर ढहने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध जारी रहा। यह विरोध का असर हो या फिर अन्य कोई कारण, बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने उसी स्थान पर मंदिर बनाने का आदेश दे दिया। सरकार पहले इस स्थान पर मंदिर निर्माण के लिए दौ सौ वर्ग मीटर जमीन देने को तैयार हुई, फिर चार सौ वर्ग मीटर देने को राजी हो गई। चूंकि मंदिर निर्माण के लिए प्रतिबद्ध संगठन और अधिक जमीन चाह रहे हैैं इसलिए हो सकता है कि सरकार कुछ और जमीन देने के लिए तैयार हो जाए। अगर ऐसा होता है तो मंदिर परिसर पहले जितने क्षेत्रफल का ही हो सकता है।

जब बनवाने का हुक्म दिया तो 400 साल पुराने मंदिर को ढहाने का आदेश दिया ही क्यों था

जो भी हो, किसी के लिए भी यह समझना कठिन है कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने करीब चार सौ साल पुराने इस मंदिर को फिर से बनाने की जरूरत महसूस की तो फिर उसे ढहाने का आदेश दिया ही क्यों? यदि मकसद मंदिर के आसपास की अवैध कब्जे वाली जमीन को मुक्त कराना था तो फिर उसकी चपेट में मंदिर क्यों आ गया? मंदिर ढहाने का आदेश देते समय यह रेखांकित किया गया था कि इससे पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है? क्या यह मान लिया जाए कि उसी स्थान पर नए बने मंदिर से ऐसा नहीं होगा? यदि दिल्ली के वन क्षेत्र का भू-प्रयोग इतनी आसानी से तब्दील किया जा सकता है और अधिसूचित वन क्षेत्र को गैर अधिसूचित किया जा सकता है तो यह काम पहले भी तो किया जा सकता था।

मुंबई की आदर्श सोसायटी अवैध रूप से निर्मित होने के बाद भी अपने स्थान पर खड़ी

यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि क्या रविदास मंदिर एकलौता ऐसा मंदिर था जो वन क्षेत्र में स्थापित था और उसके कारण पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा था? इस सवाल पर विचार करते समय मुंबई की आदर्श सोसायटी की उस बहुमंजिला इमारत का स्मरण हो आना स्वाभाविक है जो अवैध रूप से निर्मित होने के बाद भी अपने स्थान पर खड़ी है। यह इसके बाद भी खड़ी है कि मुंबई उच्च न्यायालय ने उसे ढहाने का आदेश दिया था। बाद में इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। वास्तव में देश में ऐसी न जाने कितनी इमारतें हैैं जो उस जमीन पर हैैं जो किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल होनी थीं। अगर इन सबको नहीं ढहाया गया है तो फिर क्या रविदास मंदिर को भी ढहाने से बचाया नहीं जाना चाहिए था?

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भी सड़कों पर अवैध रूप से बने धर्मस्थल हटे नहीं

क्या बीच की ऐसी कोई राह नहीं निकाली जा सकती थी जिससे मंदिर तो बना रहता, किंतु उसके आसपास का अवैध कब्जा मुक्त हो जाता? यहां इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अर्सा पहले सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सार्वजनिक स्थलों और खासकर सड़कों पर बने धर्मस्थल हटाए जाने चाहिए, लेकिन क्या यह कहा जा सकता है कि देश में सड़कों पर अवैध रूप से बने सभी धर्मस्थल हटा दिए गए हैैं?

श्रद्धालुओं की भावनाओं और आस्था को लेकर मंदिर निर्माण का आदेश देना पड़ा

स्पष्ट है कि दिल्ली के रविदास मंदिर को ढहाए जाने को लेकर जो तमाम सवाल उठे उनका जवाब मिलना चाहिए और यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए कि मंदिर ढहाने के बाद समाधान की जो पहल हुई वह पहले क्यों नहीं हो सकती थी? नि:संदेह अगर समय रहते ऐसा किया जाता तो दिल्ली के साथ-साथ देश के अन्य अनेक हिस्सों में जो तमाम धरना-प्रदर्शन हुए उनसे बचा जा सकता था। क्या यह विचित्र नहीं कि मंदिर ढहाए जाने के बाद यह महसूस किया गया कि श्रद्धालुओं की भावनाओं और आस्था का आदर करना आवश्यक है? आखिर सवाल खड़े करने वाले ऐसे फैसले आलोचना से कैसे बच सकते हैैं? उक्त फैसले ने सुप्रीम कोर्ट के ही उस निर्णय की याद ताजा करा दी जिसके तहत पहले उसने सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य किया, फिर कुछ समय बाद इस अनिवार्यता को खत्म करने का आदेश जारी किया।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )