[ संजय गुप्त ]: विधानसभा चुनाव वाले पांच में से तीन राज्यों-छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा की पराजय उसकी कमियों को ही उजागर कर गई। हालांकि हिंदी पट्टी के इन तीन राज्यों में केवल छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने उल्लेखनीय जीत हासिल की, लेकिन जीत तो जीत ही होती है। कांग्रेस को इसका श्रेय जाता है कि उसने तीनों राज्यों में भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया और वह भी तब जब उसके पक्ष में कोई लहर नहीं थी। इस श्रेय के हकदार कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हैं जिनके नेतृत्व और निर्देशन में इन तीनों राज्यों में कांग्रेस की नैया पार लग सकी। इसी के साथ वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने के लिए पहले से मजबूत दिखने लगे।

2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की अपने बल पर हासिल बहुमत की सरकार बनना और फिर एक के बाद एक राज्यों और खासकर नोटबंदी के बाद उत्तर प्रदेश में प्रचंड जीत दर्ज करने के बाद यह लगने लगा था कि भाजपा का विजय रथ रुकने वाला नहीं, लेकिन अब इसे लेकर संशय पैदा हो गया है। इसका एक बड़ा कारण 15 वर्षों से सत्ता पर काबिज छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भाजपा का सत्ता से बाहर हो जाना है। राजस्थान में तो सत्ता की अदला-बदली होती रही है, लेकिन छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश इसके लिए नहीं जाने जाते।

जिन विधानसभा चुनावों को आम चुनाव के सेमीफाइनल की तरह देखा गया उनके नतीजों को लेकर सत्ता विरोधी रुझान को जिम्मेदार बताना इसलिए सही नहीं, क्योंकि छत्तीसगढ़ में विपक्ष कमजोर भी था और वहां वोटों का विभाजन भी हुआ। जब माना जा रहा था कि अजीत जोगी के बसपा के साथ मिलकर लड़ने से भाजपा को मदद मिलेगी तब ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। यहां भाजपा हारी भी और एक तरह से हाशिये पर भी गई। चूंकि यह नहीं कह सकते कि रमन सिंह सरकार की ओर से बीते 15 सालों में किए गए तमाम काम असरहीन साबित हुए इसलिए भाजपा को इस राज्य में अपनी हार के कारणों की गहन समीक्षा करते हुए यह भी जानना होगा कि उसके कार्यकर्ता हतोत्साहित क्यों थे? छत्तीसगढ़ में गुटबाजी भी भाजपा की हार का एक कारण नजर आती है।

भाजपा के लिए छत्तीसगढ़ से अधिक संतोषजनक नतीजे राजस्थान के रहे। करीब छह माह पहले यह माना जा रहा था कि वसुंधरा राजे से लोग नाराज हैं, लेकिन तमाम सत्ता विरोधी रुझान के बावजूद कांग्रेस यहां बहुमत हासिल नहीं कर पाई। लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैलियों ने अंतिम क्षणों में राजस्थान की हवा बदली और इसीलिए कांग्रेस बहुमत तक नहीं पहुंच सकी। कांग्रेस को बहुमत के करीब ले जाने का श्रेय सचिन पायलट को जाता है। उन्होंने राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में जी तोड़ मेहनत की और शायद इसीलिए उन्हें उप मुख्यमंत्री का पद मिला, जो मध्य प्रदेश में किसी को नहीं मिला।

राजस्थान के मुकाबले मध्य प्रदेश में भाजपा और समर्थ दिखी। यहां उसके और कांग्रेस के वोट प्रतिशत में मामूली अंतर है। लगता है शिवराज सिंह यह नहीं भांप सके कि किस मोर्चे पर अधिक ध्यान देना है? यहां किसानों के साथ दलित-आदिवासी समूहों की नाराजगी उन पर भारी पड़ी। एससी-एसटी एक्ट को लेकर एक ओर जहां सवर्णों में नाराजगी थी तो वहीं दूसरी ओर दलित-आदिवासी यह मानकर नाखुश थे कि आरक्षण खत्म करने की मुहिम छेड़ने वाले भाजपा के लोग हैं।

यह तो साफ ही है कि किसान कर्ज माफी के वायदे ने कांग्रेस का काम आसान किया। राहुल गांधी की ओर से कर्ज माफी की घोषणा करते ही वहां के तमाम किसानों ने जिस तरह बैंक की किश्तें देना बंद कर दिया उससे यह पता चल गया था कि हवा का रुख किधर है। भाजपा थोड़ी सतर्क होती तो मध्य प्रदेश बचा सकती थी, लेकिन शायद उसे इसलिए भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, क्योंकि राज्य के आम लोगों ने मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं को एक सीमा तक ही अपने लिए लाभकारी पाया। वे उज्ज्वला, पीएम आवास योजना, शौचालय निर्माण योजना आदि से तो संतुष्ट दिखे, लेकिन रोजगार के सवाल पर असंतुष्ट। इससे इन्कार नहीं कि मोदी सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं से ग्रामीण जनता लाभान्वित हुई है, लेकिन भाजपा को यह देखना चाहिए कि जमीनी हकीकत कितनी बदली है, क्योंकि दावा यह है कि 22 करोड़ लोगों को इन योजनाओं के तहत कोई न कोई लाभ दिया गया है।

नि:संदेह यह भी दिखता है कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण झटका खाए व्यापारी अभी भी खुद को तकलीफ में पा रहे हैैं। व्यापारी वर्ग भाजपा का परंपरागत वोटर है। नोटबंदी और जीएसटी से सबसे अधिक परेशानी उसे ही उठानी पड़ी। व्यापारियों के बीच एक वर्ग ऐसा भी है जो दो नंबर में काम करने का आदी है। लगता है इस आदत को बदलने के बजाय उसने अपनी नाराजगी जताना या फिर नोटा का इस्तेमाल करना ठीक समझा।

यदि यह सच है कि तीन राज्यों के चुनाव में संघ के कार्यकर्ता भाजपा के पक्ष में उस तरह लामबंद नहीं हुए जैसे 2014 के आम चुनाव में हुए थे तो इसका मतलब है कि एक पुरानी समस्या नए सिरे से उभर आई है। चुनाव के दौरान राम मंदिर का मुद्दा भी उठा। जबसे सुप्रीम कोर्ट की ओर से अयोध्या विवाद की सुनवाई टाली गई तबसे यह मसला सतह पर आया और सरकार पर यह दबाव संघ की ओर से भी बढ़ा कि वह राम मंदिर निर्माण के लिए कुछ करे। फिलहाल यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और सरकार इस स्थिति में नहीं कि वह दखल दे सके। हो सकता है कि इन तीन राज्यों में मंदिर मसले पर नाराज कुछ लोगों ने भाजपा को वोट देने के बजाय नोटा का बटन दबाया हो।

विधानसभा चुनावों में जो और मसले उठे और खासकर प्रधानमंत्री मोदी एवं अन्य भाजपा नेताओं की ओर से उठाए गए उनमें वंशवाद और लंबे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस की ओर से कुछ बुनियादी समस्याओं की अनदेखी का मुद्दा भी रहा। आज जब वंशवाद हर दल में है और यहां तक कि भाजपा में भी साफ तौर पर दिखने लगा है तब केवल कांग्रेस पर निशाना साधना कितना उचित है? अगर कांग्रेस का कोर वोटर गांधी परिवार के प्रति प्रतिबद्ध है और उसे इससे कोई समस्या नहीं कि पार्टी इस परिवार के किसी सदस्य की ओर से संचालित होती रहे तो फिर इसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह वंशवाद के सवाल पर कांग्रेस के बजाय भाजपा की ओर आकर्षित हो जाएगा।

भाजपा को सोचना होगा कि वह वंशवाद के मसले को कितना तूल दे? नि:संदेह सवाल यह भी है कि साढ़े चार साल तक सत्ता में रहने के बाद मौजूदा समस्याओं के लिए पिछली सरकारों को जिम्मेदार ठहरा कर जनता को कितना संतुष्ट किया जा सकता है? साफ है कि भाजपा और साथ ही मोदी सरकार के लिए बेहतर यही है कि वह आम चुनाव में अपने किए गए कामों के आधार पर ही जनता के बीच जाए। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं। वैसे भी सरकारों के काम और उनके प्रति जनता का नजरिया ही उनका भविष्य तय करते हैैं।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]