[रमेश ठाकुर]। उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णय सुनाए जाने के बाद दशकों या फिर कहें कि सदियों पुराने अयोध्या में राम जन्मस्थल से जुड़े विवाद का पटाक्षेप हो गया है। हालांकि पिछले कई दशकों से यह देश का एक बड़ा राजनीतिक मसला भी बना हुआ था, लेकिन अदालत का फैसला आने के बाद निश्चित तौर पर किसी भी राजनीतिक दल को इसका फायदा मिलेगा, इसकी गुंजाइश कम है, क्योंकि लोग आर्थिक तरक्की की राह पर देश को आगे ले जाने की कवायद में जुटे हैं।

देश के सबसे बड़े धार्मिक मसले को सुलझाने में जब हमारी समूची सियासी व्यवस्था विफल हुई, तब न्यायतंत्र के मंदिर ने ही रामलला के जन्म स्थान पर फैसले के रूप में समाधान निकाला। इस फैसले से देशवासी अब इतना जरूर समझ गए हैं कि राजनीतिक प्रसासों से सभी मसले नहीं सुलझ सकते हैं। हां, इतना जरूर है कि उन मसलों की आड़ में सियासी दल राजनीतिक फायदा जरूर उठाते हैं। देखा जाए तो दशकों से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के मुद्दे पर यही होता आया। पीढ़ियां गुजर गईं, उम्मीदें धूमिल हो गईं, वायदे चकनाचूर होते गए, दो धर्म आपस में लड़ते रहे। लेकिन इन सबके बीच सियासी दलों ने जमकर राजनीतिक रोटियां सेकीं।

राम मंदिर के मसलेे पर सियासी दलों के हाथ- पांव फूलते रहे

वैसे कायदे से देखा जाए तो अवाम को खुश रखना और उनकी खैरियत-सलामती का पहला जिम्मा हुकूमतों पर होता है। पर कई बार हुकूमतें उन जिम्मेदारियों को निभाने में विफल हो जाती हैं। कमोबेश राम मंदिर का मसला भी कुछ ऐसा ही रहा, जिसे सुलझाने में सियासी दलों के हाथ- पांव शुरू से ही फूलते रहे। आजादी के बाद से अब तक मंदिर मसले की आड़ में राजनीति होती आई, पार्टियों के लिए मंदिर निर्माण वोट बैंक का जरिया बना। मंदिर के नाम पर कई सरकारें बनीं, पार्टियों का जन्म हुआ, देशभक्त वाले संगठन खड़े हुए, कई नेता स्थापित हुए। लेकिन मसला जस का तस बना रहा।

गौरतलब है कि निचली अदालतों समेत इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक लंबे अरसे तक जिरह होने के बाद जब यह मामला दिल्ली स्थित सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, तो यहां प्रतिदिन करीब तीन माह तक सुनवाई हुई। आखिर में नौ नवंबर की तारीख इस फैसले के लिए मुकर्रर हुई जिसने दशकों पुराने रार को खत्म किया। मंदिर कब बनेगा इस बात का सपना देखते-देखते कई बुजुर्ग परलोक चले गए, लेकिन मंदिर का मसला वैसा ही रहा।

फैसले के साथ ही मंदिर मुद्दा हमेशा के लिए गायब 

कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी का जन्म मंदिर के नाम पर हुआ। प्रत्येक चुनाव में पार्टी ने अपने घोषण पत्र में जनता से मंदिर बनाने का वादा किया, लेकिन दूसरी पार्टियों द्वारा लगाई गई अड़चनों के चलते उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। जनता ने भी उनका भरपूर साथ दिया। लेकिन किसी नतीजे पर पार्टी नहीं पहुंच सकी। भाजपा के अलावा उत्तर प्रदेश के प्रमुख दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी खूब सियासत की। फैसले के साथ ही फिलहाल मंदिर मुद्दा सियासी दलों के घोषणा पत्रों से हमेशा-हमेशा के लिए गायब हो गया है।

देश की नींव संविधान, लोकतंत्र और भाईचारे पर टिकी होती है

एक सवाल मन में यह उठता है कि राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के सुनाए गए निर्णय को निर्णय नहीं कह सकते। उन्होंने निर्णय नहीं, बल्कि मसले का समाधान किया है। गौरतलब है कि बात अगर वर्ष 1947 से लेकर 2019 तक की जाए, तो समाज की सोच में बड़ा परिवर्तन आ चुका है। अब कोई बेवजह के मसलों में उलझना नहीं चाहता। देश की जनता इस बात को ठीक से समझ चुकी है कि देश की सियासत ने उन्हें लंबे समय तक मंदिर के नाम पर बांटकर रखा। सुप्रीम कोर्ट से निकले इस समाधान के बाद शांति-सौहार्द की एक अच्छी तस्वीर देखने को मिली। पूरी दुनिया की नजरें शनिवार को सुप्रीम कोर्ट पर थीं। कहते हैं किसी भी देश की नींव संविधान, लोकतंत्र और भाईचारे पर टिकी होती है। फैसले के दिन इन तीनों की परीक्षा होनी थी। लेकिन जब फैसला सुनाया गया, तब देश की अटूट एकता और अखंडता जरा भी नहीं हिली। सभी पक्षों ने अक्षुण्णता को बनाए रखने में अपनी बड़ी भूमिका निभाई।

वोटबैंक की राजनीति कहें या फिर स्वार्थ की सियासत

सियासत ने भले ही देश को बांटने की कोशिशें की हों, पर यह वही अखंड भारत है, जिसके बगीचों में आज भी एक साथ खुशबूदार सुगंधित रंगों के फूल खिलते हैं। सोच के विपरीत फैसले पर भी मुस्लिम पक्षकारों ने स्वागत किया। मुस्लिम वर्ग ने खुशी में हिंदुओं को मिठाइयां खिलाईं। इस तरह की तस्वीरें समूचे भारत से देखने को मिलीं। उच्च अदालत के फैसले के बाद पूरे देश में जो आपसी एकता देखने को मिली, वह शायद आजादी के बाद कभी देखने को नहीं मिली हो। मंदिर जैसे नासूर मसले का अंत हो जाने के बाद हिंदुस्तान की आपसी एकता एक बार फिर अपने मूल सनातनी रसूलों की तरफ लौटती दिखाई देने लगी है। वोटबैंक की राजनीति कहें या फिर स्वार्थ की सियासत, मंदिर के नाम पर दो धर्मों की एकता को हमेशा कुत्सित करने के प्रयास किए गए। गंदी सियासत का ही नतीजा रहा जिसे न समझने की भूल वामपंथी, कांग्रेसी और मुसलमान करते आए। सर्वोच्च अदालत ने इस पुराने विवाद में उलझी अयोध्या की राम जन्मभूमि पर मालिकाना हक के केस को फिलहाल समाप्त कर दिया है।

इस महत्वपूर्ण निर्णय में पांच एकड़ जमीन मुस्लिम पक्षों को देने की बात कही गई है। अब जिम्मेदारी केंद्र सरकार की बनती है कि वह दोनों पक्षों का ख्याल रखकर आगे बढ़े। मंदिर का निर्माण भी हो, और उचित स्थान पर मस्जिद भी बनाई जाए। धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से संवेदनशील हो चुके मुकदमे में लगातार चालीस दिनों की मैराथन सुनवाई में प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस एसए बोबडे, डीवाई चंद्रचूड़, एस अब्दुल नजीर और अशोक भूषण ने पंच परमेश्वर के रूप में जो निष्पक्ष तरीके से समाधान निकाला है, उस पर मात्र ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष ओवैसी जैसे एकाध लोगों के अलावा किसी को कोई ऐतराज नहीं हुआ।

दरअसल असदुद्दीन ओवैसी टाइप के लोग अब भी देश को धर्म के नाम पर गुमराह करना चाहते हैं। लेकिन उनकी दाल अब गलने वाली नहीं। जनता उनके एजेंडे को जान-समझ चुकी है। अगर इस प्रकार के लोगों ने इस मामले में अड़ंगा नहीं लगाया होता, तो मंदिर निर्माण को तपस्या के रूप में लेने वाले योद्धा बाला साहेब ठाकरे, लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के प्रयास कबके सफल हो गए होते। मंदिर बनाने की अलख जगाने वाले इन लोगों के प्रयासों पर आधुनिक युग के कई नेताओं ने पानी फेरने का काम किया। इसलिए मंदिर बनाने का जो रास्ता सुप्रीम कोर्ट ने अपने स्तर से साफ किया है उसका श्रेय किसी राजनीतिक दल को नहीं दिया जाना चाहिए। अच्छा हुआ, मंदिर का फैसला कोर्ट से हुआ जिसे सर्वधर्म समभाव ने माना। अगर यह निर्णय किसी सियासी दल द्वारा किया गया होता, तो शायद नहीं माना जाता। उससे निश्चित रूप से देश में अराजकता का माहौल उत्पन्न होता। निर्णय पर राजनीति होती।

[स्वतंत्र पत्रकार]

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