छत्तीसगढ़, मनोज झा। इसमें कोई संदेह नहीं कि कोरोना के शुरुआती संक्रमण और प्रसार के समय छत्तीसगढ़ ने बेहद संवेदनशीलता और सूझ-बूझ के साथ इस चुनौती का मुकाबला कर राज्य में इसे फैलने से एक हद तक रोक दिया था। केंद्र सरकार के घोषित लॉकडाउन की दीर्घावधि में पूरे राज्य की मशीनरी के साथ जनता ने भी कंधे से कंधा मिलाकर इस समस्या से दो-दो हाथ किए। नतीजन उस दौर में जहां ज्यादातर राज्य एक के बाद एक कोरोना की गिरफ्त में आते गए, वहीं छत्तीसगढ़ मजबूत किले की तरह डटा रहा।

इस बात के लिए छत्तीसगढ़ की देश-दुनिया में प्रशंसा भी हुई। चिंताजनक यह है कि जून के शुरू में जैसे ही अनलॉक की अवधि शुरू हुई, हमारी मुस्तैदी ढीली पड़ने लगी। हम खतरे को नजरअंदाज करने लगे और कोरोना नामक खतरनाक दुश्मन को छत्तीसगढ़ के सुरक्षित किले के अंदर प्रवेश करने का रास्ता दे दिया। आज हालात ये हैं कि संक्रमण दर की दृष्टि से रायपुर व बिलासपुर जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहर दिल्ली, मुंबई और इंदौर से होड़ लेते दिखाई दे रहे हैं। आखिर मजबूत दुर्ग में दरार पड़ी कैसे? हम किनारे पर आकर ऊब-डूब क्यों कर रहे हैं?

लॉकडाउन की अवधि खत्म क्या हुई, हम तमाम एहतियात बिसरने लगे। पहली जून से शुरू हुए अनलॉक की अवधि में ऐसा कहीं से लगा ही नहीं कि हम वही सजग छत्तीसगढ़िया हैं, जिन्होंने दो महीने से ज्यादा समय तक कोरोना को एक के बाद एक पटकनी दी। संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए सरकार के साथ-साथ स्थानीय प्रशासन और एजेंसियां लगातार अपीलें करती रहीं, लेकिन हम बेफिक्र बने रहे। कुछ ऐसा, मानो कोरोना हमारे बीच से विदा हो चुका है। बाजार हो या सब्जी मंडी या फिर गली-मुहल्ले, हमने शारीरिक दूरी के नियम का उल्लंघन किया। कइयों ने तो चेहरे से मास्क को ऐसे हटा दिया मानो यह कोई डरावनी या नुकसानदायक चीज है। कइयों ने मास्क तो लगाए, लेकिन मुंह या चेहरे को बेपर्दा कर दिया। हमने रेहड़ी-ठेले पर गोल-गप्पे, समोसे और चाट-पकौड़ियों का चटखारा लेना भी शुरू कर दिया। प्रणाम की अपनी शानदार वैज्ञानिक परंपरा की ओर चार कदम आगे बढ़ाकर फिर हाथ मिलाने और गले मिलने की पाश्चात्य संस्कृति की ओर लौटने लगे। योग और व्यायाम के प्रति आलस्य भाव से अंगड़ाई भरते हुए इसे टालने लगे। इस प्रकार दूर खड़ा कोरोना हमारे पास आता गया, गली-मोहल्लों से लेकर शहरों तक को अपनी जकड़ में लेने लगा। आज स्थिति यह है कि जून की शुरुआत में जहां पूरे प्रदेश में महज 1,400 लोग संक्रमित थे, आज यह आंकड़ा छह हजार के पास पहुंच चुका है। रेड जोन भी पांच गुना बढ़कर सवा सौ के पार पहुंच गया है।

हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश सरकार को रायपुर और बिलासपुर के अलावा दर्जन भर अन्य जिलों में लॉकडाउन का एलान करना पड़ा है। इतना ही नहीं, प्रशासन ने चेताया भी है कि इस बार का लॉकडाउन ज्यादा सख्त रहेगा। मतलब कि फिर से वही बंदिशें, वही सख्ती, वही डंडा, वही चालान और इस बार जेल भी। हम जुलाई तक आकर वापस अप्रैल की ओर लौट रहे हैं। यह सफर तो घड़ी और कैलेंडर के विपरीत है, अधोमुखी है, दो कदम आगे चलकर चार कदम पीछे लौटने जैसा है। जितना कमाया, उससे ज्यादा अब गंवाने जा रहे हैं। ऐसे ही पिछले चार महीनों से जीवन-यापन के तमाम उपक्रम ठप पड़े हैं। अर्थव्यवस्था की रीढ़ टूटी हुई है। आवागमन थम गया है, स्कूल-कॉलेज बंद पड़े हैं, परीक्षाएं रद हो रही हैं और बच्चों को नहीं सूझ रहा है कि आगे कैसे और क्या करना है। कोरोना पर विजय पाने के लिए चिकित्सा विज्ञान रात-दिन एक किए हुए है। ऐसे में सवाल है कि हम क्या कर रहे हैं? हमसे तो व्यवस्था इतने भर का सहयोग चाहती है कि सावधानी बरती जाए, नियम-कायदे का पालन किया जाए और संक्रमण से दूर रहा जाए।

दुखद यह है कि हम इतना भर भी नहीं कर पा रहे हैं। हमें तो बस अलादीन के उस अदद चिराग यानी कोरोना वैक्सीन का इंतजार है, जिसके रोशन होते ही कोरोना छूमंतर हो जाएगा। इंतजार कोई बुरी चीज नहीं है, लेकिन उसमें तप का भाव होना चाहिए, एक तड़प होनी चाहिए। तब इंतजार का फल मीठा होता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सजग रहें, निरंतर सावधानियां बरतें, नियम-कायदों का ईमानदारी से पालन करें, तभी जय होगी। सब कुछ सरकार पर छोड़ने से काम नहीं चलेगा। आखिर हमारी भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। ध्यान रहे कि सभ्यताओं के इतिहास में हमारी वर्तमान पीढ़ी का मूल्यांकन अब इस बात से भी होगा कि हमने कोरोना नामक आपदा का मुकाबला किस जिजीविषा और अदम्य साहस के साथ किया था।

[राज्य संपादक, छत्तीसगढ़]