[प्रो. सतीश कुमार]। देश की आजादी के लगभग 72 वर्षो बाद शिक्षा व्यवस्था को भारतीय ढांचे में डालने की कोशिश 2019 की प्रस्तावित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में की गई है जिसे तैयार करने वाली समिति के चेयरमैन प्रसिद्ध वैज्ञानिक के कस्तूरीरंगन हैं। समिति ने अपनी सिफारिशों को मानव संसाधन मंत्रलय के पोर्टल पर डाल दिया है। साथ ही इस संबंध में आम जनता से सुझाव को आमंत्रित किया गया है। लोगों से प्राप्त सुझाव के उपरांत ही सरकार इस बारे में नीतिगत निर्णय लेगी। वर्ष 2019 का शिक्षा अधिनियम 1988 के बाद पहला नियम होगा। वर्ष 1992 में आंशिक बदलाव किए गए थे, लेकिन वह महज कॉस्मेटिक बदलाव था। इस ड्राफ्ट की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि कट्टर वैचारिक आलोचक इस बात को तूल नहीं दे पाए कि सरकार ने शिक्षा का भगवाकरण कर दिया है, सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया है। सभी ने इसकी प्रशंसा की है। आलोचना केवल त्रिभाषा फॉमरूले को लेकर दक्षिण के राज्यों में राजनीति को हवा देकर की गई। हालांकि यह कोई आज की बात नहीं है, इसकी बुनियाद 1988 की शिक्षा नीति के तहत लागू की गई थी। सरकार ने गैर हिंदी भाषी राज्यों को आश्वासन दिया है कि पहले की तरह उन पर हिंदी थोपी नहीं जाएगी। दरअसल हिंदी आज विवाद के दायरे में भी नहीं है। जिस तरीके से सांस्कृतिक आयामों से हिंदी का प्रसार दक्षिण के राज्यों में हुआ है उससे राजनीति की रोटी सेकने का अवसर किसी के पास बच नहीं जाता।

लचर प्रणाली से दयनीय दशा

दुनिया की सबसे ज्यादा युवा आबादी भारत में है। भारत की गिनती एक नामचीन देश के रूप में होने लगी है, लेकिन शिक्षा की लचर प्रणाली के कारण हमारी दशा दयनीय होती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर हमारे कोई भी शिक्षण संस्थान अपनी जगह बनाने में सफल नहीं रहे हैं। इस बात का रोना हमारे पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी कई बार रो चुके हैं। आज भी परिस्थितियां बदली नहीं हैं, क्योंकि जिस व्यवस्था के तहत गुणों की तलाश की जाती है, वह व्यवस्था और प्रारूप ही बेढंगा है। देश की सोच की जगह विदेशी सोच, अपने इतिहास की जगह अन्य देशों का इतिहास और संस्कृति की उधेड़ बुन में देश की व्यवस्था अटकी रही। स्कूल और उच्च शिक्षा के बीच में कोई तारतम्य नहीं रहा। भूमंडलीकरण ने इस दशा को और पेचीदा बना दिया। पुस्तकों से खिसक कर ज्ञान मोबाइल और कंप्यूटर में समाहित होते जा रहे हैं। हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच पहले से ही तल्खी थी, भूमंडलीकरण ने बची-खुची रचनात्मकता को खत्म कर दिया। लाखों लोग ऐसी डिग्री लेकर बाजार में हैं जिन्हें स्कूली शिक्षा की जानकारी भी समुचित रूप से नहीं होती, बाजार जनित रोजगार ऐसे लोगों को लेने से परहेज करता है। फिर सवालिया निशान खड़ा होता है कि भारत में बेरोजगारी की तादाद बढ़ती जा रही है, सरकार ने पांच वर्षो में कुछ भी नहीं किया। समस्या की जड़ हमारी व्यवस्था में है। जब तक उसे दुरुस्त नहीं कर लिया जाता, भारत की पहचान एक समृद्ध देश के रूप में नहीं बन पाएगी। यह नई शिक्षा व्यवस्था उसी को दुरुस्त करने का सफल प्रयास है। 

स्कूली शिक्षा और भारतीय धारणा को समझने के लिए दो सच्ची कहानियां महत्वपूर्ण होंगी। कक्षा छह से आठ के कुछ बच्चों को शहर से गांव ले जाया जाता है। गांव में दिसंबर के महीने में लहलहाते खेत में गेहूं और आलू के पौधे लगे हुए थे। जब बच्चों से पूछा गया कि यह किस चीज के पौधे हैं, तो कोई भी बच्चा उन पौधों की सही पहचान नहीं कर पाया। दरअसल इसमें दोष उन बच्चों का नहीं है, बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था का है। दूसरी कहानी और दर्दनाक है। राजनीति विज्ञान से पोस्ट ग्रेजुएशन अंतिम वर्ष की परीक्षा दे रहे छात्रों से जब पूछा गया कि शीत युद्ध की व्याख्या करें, तो अधिकतर छात्रों ने लिखा कि ठंड की रात में शीत की बूंदों में लड़ी गई लड़ाई को शीत युद्ध कहते हैं। यह हमारी स्कूली शिक्षा से लेकर उच्चतर शिक्षा की स्थिति है। 

शिक्षा मंत्रलय में केवल शिक्षा

ऐसे हालात में जब बात गुणपरक आर्थिक व्यवस्था की हो तो कैसे हम अन्य देशों से मुकाबला कर पाएंगे। जिनकी जानकारी इतनी कमजोर और लचर हो, 2019 की शिक्षा व्यवस्था में इन अवगुणों को दूर करने की कोशिश की गई है। इसकी कई विशेषताएं हैं जिन्हें रेखांकित करना जरूरी है। साथ में इस बात की भी विवेचना की गई है कि इससे परिवर्तन कैसे होगा। पहला, इस मंत्रलय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रलय किया जाना तय किया गया है। अभी इसे मानव संसाधन मंत्रलय के रूप में जाना जाता है। यह शब्द ज्यादा व्यापक है, कई चीजों को अपने आप में समेटे हुए है। शिक्षा मंत्रलय के तहत बात केवल शिक्षा की होगी। दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन शिक्षा आयोग बनाने की है। समवर्ती सूची में शिक्षा को रखने के कारण कई विसंगतियां प्रांत स्तर पर दिखाई देती हैं। नियमों का पालन राष्ट्र स्तर पर नहीं हो पाता और न ही एकरूपता बनी रहती है। बच्चों के स्थान परिवर्तन की वजह से उनका भविष्य अधर में लटक जाता है। नई व्यवस्था में इन कमियों को दूर करने की कोशिश होगी।

विदेशी ढांचे का अनुपालन

भारतीय शिक्षा कभी भी भारत की नहीं रही। स्कूल में बच्चों को ग्रीष्मकालीन वर्कशॉप में जो काम दिए जाते हैं, वह अपने देश को जानने को छोड़कर सबकुछ होता है। इटली की वास्तुकला, चीन की चित्रकला और यूरोप के इतिहास की जानकारी। वहां अपना देश कहीं नहीं है। ब्रिटिश नीतिकार मैकाले ने सही कहा था कि भारत आनेवाली कई शताब्दियों तक ब्रिटेन का गुलाम शिक्षा पद्धति की वजह से बना रहेगा। इतने वर्षो में भारत को कोई भी सामाजिक वैज्ञानिक एक नए सिद्धांत को देने में सफल नहीं रहा है। केवल विदेशी ढांचे का अनुपालन हम तन्मयता से करते गए। उच्च शिक्षा में बनाए गए विषय भी पश्चिमी नक्शे-कदम पर थे। वर्ष 1948 की राधाकृष्णन समिति और 1964 की कोठारी समिति में भी शिक्षा को उपनिवेशिक मानसिकता से हटाने की बात की थी, लेकिन उस पर अमल नहीं किया गया, जिससे स्थिति कॉपी कैट की बनी रही। विदेशों में पढ़ने की होड़ और शिक्षा व्यवस्था में उसकी जबरदस्त पकड़ हमारे देश की पहचान बनी रही। शिक्षा के उच्च पदों पर उसी को बैठाया जाता, जिसकी डिग्री विदेशों से अर्जित की गई हो। यानी यह मान लिया गया कि हमारी व्यवस्था उतनी मजबूत नहीं है। 

रचनात्मक परिवेश ही है शिक्षा

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के चेयरमैन प्रो. डीपी सिंह ने उच्च शिक्षा को सुनियोजित और सुयज्ञ बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण बदलाव को अंजाम दिया है। उनका मानना है कि विश्वविद्यालय छात्रोन्मुख होना चाहिए, सबसे पहली प्राथमिकता विद्यार्थियों की होनी चाहिए। प्रो. डीपी सिंह ने कहा कि ऐसे और प्रावधान किए जा रहे हैं जिससे छात्रों की शोध गुणवत्ता को बढ़ाया जा सके। शिक्षा महज पुस्तकों तक सीमित नहीं होती, पढ़ाई केवल क्लासरूम तक नहीं होती, एक रचनात्मक परिवेश बनता है, जहां पर जीवन के हर पहलू की जानकारी शिक्षा के जरिये दी जाती है। यूजीसी इस पहल को मुकाम तक ले जाना चाहती है। 

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जगदीश कुमार ने कई ऐसे विषयों की पढ़ाई और शोध पर बल दिया जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई है। ज्ञान का एक ऐसा पुंज जिसे गैर प्रगतिशील समझकर दरकिनार कर दिया गया और हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं बन पाया। प्रो. जगदीश कुमार ने उस व्यवस्था को पुनस्र्थापित करने की कोशिश की है। ट्राइबल मेडिसिन और इकोलॉजी पर विशेष बल देने की बात की गयी है। जेएनयू की एक टीम इस विषय की गंभीरता के साथ उच्च शिक्षा को बढ़ाने की कोशिश में है। विद्यार्थी परिषद के संगठन मंत्री सुनील अम्बेकर भी ड्राफ्ट पॉलिसी की प्रशंसा इस अर्थ में करते हैं कि इस शिक्षा व्यवस्था में एक भारतीयता की झलक है। देश को मजबूत और संयोजित करने की एक परिकल्पना है। अगर यह देश मजबूत होना है तो हुनर की पहचान भी शिक्षा के द्वारा होनी चाहिए। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की तर्ज पर मदरसा की व्यवस्था को भी एक ट्रैक पर लाने की कोशिश की गई है। अर्थात धर्म की शिक्षा में विज्ञान और ज्ञान का समावेश भी यथोचित होना चाहिए। इस बात की पूरी उम्मीद है कि 2019 की ड्राफ्ट, शिक्षा नीति में बदलती है तो देश का स्वरूप भी बदलेगा। भारत अगर धर्म के कारण विश्व गुरु बनने की कल्पना करता है तो शिक्षा ही तुरूप का पत्ता साबित होगा। 

आजादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में कई चुनौतियां देश के सामने आईं। उसमें एक बेहद गंभीर समस्या भाषा की समस्या थी। भाषाई विषमता ने देश को खंडों में बांट दिया। एक वर्ग अंग्रेजी स्कूलों से निकलने वाला इलीट वर्ग बनता गया, और शेष सरकारी स्कूलों में पढ़कर बेतरतीब व्यवस्था के शिकार बनते गए। प्रतियोगिता परीक्षाओं में उच्च कोटि की नौकरियां भी अंग्रेजी में पढ़ने वालों की मिलती गई। बीते सात दशकों में मातृभाषा की स्थिति अछूत जैसी हो गई। गांधीजी की दिव्य दृष्टि ने भविष्य का लेखा जोखा कर लिया था। उनके विचार में बच्चों को उनके घर से दूर करना असली शिक्षा से दूर करना है, क्योंकि घर से बड़ा विद्यालय और कोई नहीं होता है। नैतिकता पर बल देते हुए शिक्षा द्वारा सहयोग की भावना और धार्मिक- जातिगत भेदभावों तथा द्वेष से दूर रहने की भावना को विकसित करना एक अहम विषय है। उनके अनुसार शिक्षा अनुभवों के आधार पर आगे बढ़नी चाहिए जिससे बच्चे को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास दिलाया जाए और उसे हर काम को बराबर सम्मान देना सिखाया जाए या ऐसा माहौल दिया जाए कि वो ये सारी बातें अमल में लाते हुए शिक्षित हों।

गांधीजी ने अपनी शिक्षा योजना में सबसे पहले माध्यम के सवाल को महत्वपूर्ण मानते हुए इस बात पर बल दिया कि भारत के विभिन्न प्रांतों में शिक्षा देने का काम प्रांतीय भाषाओं में किया जाना चाहिए। गांधीजी ने 1908- 1910 में इंडियन ओपिनियन में लिखा था- ‘हमलोगों में बच्चों को अंग्रेज बनाने की प्रवृत्ति पाई जाती है। यह प्रवृत्ति अपनेआप में घातक है।’ फरवरी 1916 में काशी हंिदूू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में भी उन्होंने यह बात सभी के बीच में रखी- ‘इस विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यंत ही अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है। मुङो उम्मीद है कि यह विश्वविद्यालय अपनी भाषा में बच्चों को शिक्षा देने में सफल होगा।’ इसके बाद 1917 में भागलपुर में छात्रों के एक सम्मलेन में भाषण देते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा- ‘मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के बराबर है। बहुत से लोग यह कहते हैं कि हमारी भाषा में वह शब्द नहीं है कि ऊंचे विचार प्रकट किए जाएं, जबकि यह दोष भाषा का नहीं है, उसे बढ़ाना हमारा ही कर्तव्य है।’ गांधीजी ने यह भी कहा कि जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की क्षमता विकसित नहीं हो जाती और वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समङो जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा। 

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के लिए गठित विशेषज्ञ समिति ने पाठ्यक्रम में भारतीय शिक्षा प्रणाली को शामिल करने जैसी सिफारिशों को लागू करने का ड्राफ्ट मानव संसाधन विकास मंत्रलय को सौंप दिया है। अनेक प्रकार की व्यावहारिक बातों के अलावा इसमें शिक्षा को रोजगार से जोड़ने पर भी पूरा जोर दिया गया है। साथ ही इसमें देश की भाषाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप बदलाव को भी रेखांकित किया गया है। कहा गया है कि आजीविका के साथ मूल्यों की शिक्षा देने और बच्चों को जीवन के लिए भी तैयार करने की आवश्यकता है। इसे समग्रता से लागू करने से पूर्व सरकार ने आम लोगों से भी सुझाव मांगे हैं। उम्मीद की जा रही है कि शिक्षा के क्षेत्र में इससे बड़ा बदलाव हो सकता है। (शिक्षाविद) 

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