नई दिल्ली [ सुधीर पंवार ]। देश भर में किसानों का असंतोष चरम पर है। वे उत्साह में कहीं आंदोलन कर रहे हैं तो कहीं हताशा में खुदकुशी। मोदी सरकार के दौरान किसानों के हाल और बेहाल हुए हैं। बीते वर्ष मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन के दौरान कई किसानों की जान चली गई थी। वहीं हाल में मुंबई में हजारों किसानों का पैदल मार्च सुर्खियों में छाया रहा। मौसम आधारित जोखिम, छोटी होती जोतें, फसलों की बढ़ती लागत एवं बाजार मूल्यों में असंतुलन कृषि क्षेत्र की प्रमुख समस्याएं हैं। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी सेवाओं पर लगातार बढ़ता खर्च भी किसानों की परेशानी बढ़ा रहा है।

जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी लगातार कम हो रही है 

इस दौर में खेती घाटे का सौदा बन गई है। जहां औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र में वृद्धि दर सात प्रतिशत से अधिक है वहीं पिछले दो वर्षों में खेती में मूल्य आधारित वृद्धि दर दो प्रतिशत से कम रही है। किसानों एवं खेती की इस हालत के लिए सरकारी एवं प्रशासनिक तंत्र जिम्मेदार है जो कृषि क्षेत्र की वित्तीय प्राथमिकताओं का निर्धारण इस पर जीवन निर्वाह करने वाले किसान मजदूरों, जो देश की आबादी का लगभग 60 प्रतिशत है, के स्थान पर जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी से निर्धारित करता है। देश के जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी लगातार कम हो रही है तथा वर्तमान में 13 प्रतिशत के स्तर पर है। आर्थिक समीक्षा एवं अन्य सरकारी आंकड़े स्पष्ट करते है कि बंपर उत्पादन के बाद भी किसान गंभीर संकट में है, लेकिन सरकार के पास इससे निपटने की योजना नहीं है। इस वर्ष कृषि बजट की 60 प्रतिशत धनराशि कृषि ऋण के ब्याज अंतर को चुकाने एवं प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के प्रीमियम के लिए रखी गई है जिससे किसानों को कोई सीधा लाभ नहीं पहुंचता।

किसानों के वोट लेने के लिए ऋण माफी राजनीतिक अस्त्र

देश भर में किसान आंदोलनों की प्रमुख मांग संपूर्ण कर्ज माफी एवं स्वामीनथान आयोग की संस्तुतियों के आधार पर फसलों के न्यूतनम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी में 50 प्रतिशत लाभ शामिल करने की रही है। किसानों की इन दोनों मांगों का मूल आधार राजनीतिक दलों द्वारा घोषणा पत्रों एवं चुनावी सभाओं में किए गए वादे हैं। संप्रग सरकार द्वारा वर्ष 2008 में 72 हजार करोड़ रुपये की ऋण माफी से 2009 में मिली चुनावी सफलता के बाद ऋण माफी किसानों के वोट लेने के लिए राजनीतिक अस्त्र के रूप में सामने आई है।

पीएम मोदी ने किसानों का ऋण माफी का वादा अभी तक पूरा नहीं किया

शायद ही ऐसा कोई दल हो जिसने चुनाव में ऋण माफी का वादा न किया हो। प्रधानमंत्री मोदी ने खुद उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में इसका वादा किया था। राहुल गांधी ने भी पंजाब और गुजरात में यही दांव चला। हालांकि उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में कुछ कर्ज माफी हुई भी है, लेकिन इसका फायदा भी सभी किसानों को नहीं मिला। इससे किसानों को तात्कालिक लाभ तो दिया जा सकता है, लेकिन इससे कृषि क्षेत्र में आवश्यक संरचनात्मक सुधार नहीं हो सकता। इसमें सबसे ज्यादा जरूरत कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने की है। वर्ष 2004 से 2013 के बीच कृषि निवेश की दर जो 10 प्रतिशत वार्षिक थी, वह 2013-17 के बीच घटकर 2.3 प्रतिशत रह गई है।

भाजपा स्वामीनाथन आयोग के फार्मूले को लागू करने के वादे को नहीं निभा सकी

बाजार की मांग पर एवं अधिक आय के लिये किसान परंपरागत फसलें छोड़कर फल, सब्जी, दूध, मीट एवं फूलों की खेती अपना रहे हैं जिसके लिए अधिक पूंजी निवेश की आवश्यकता होती है। इसके लिए ऋण प्रवाह को बढ़ाने की जरूरत होगी, लेकिन यह तो कम हो रहा है। वर्ष 2004 से 2015 के बीच ऋण प्रवाह में 21 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि पिछले तीन वर्षों में यह घटकर पांच प्रतिशत सालाना के स्तर पर आ गया है। स्वामीनाथन आयोग के फार्मूले के अनुसार फसलों के एमएसपी निर्धारण में लागत मूल्यों पर 50 प्रतिशत लाभ शामिल होना चाहिए। भाजपा ने लोकसभा चुनाव घोषणा पत्र में इसका वादा किया था, लेकिन बीते चार वर्षों में मोदी सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। इस साल बजट में कुछ घोषणा जरूर हुई है, लेकिन उसके आवश्यक घटक भूमि के मूल्य की रेंटल कीमत जिसे तकनीकी भाषा में सी-2 कहते हैं, शामिल नहीं की गई। इससे किसानों को कोई लाभ होने वाला नहीं है।

एमएसपी का लाभ केवल 20 प्रतिशत किसानों तक ही पहुंचता है

खेती में आर्थिक संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि या तो सरकार लागत मूल्यों में सब्सिडी दे जिसे बाजार के दबाव में लगातार कम किया जा रहा है। या फिर निजीकरण के दबाव में विभिन्न राज्यों में सिंचाई में काम आने वाली बिजली के दामों में वृद्धि को वापस ले। संप्रग सरकार ने एनबीएस स्कीम लागू कर फास्फेटिक उर्वरकों के मूल्य बढ़ाए थे। वहीं अब प्रत्यक्ष लाभ अंतरण यानी डीबीटी की आड़ में यूरिया के दाम बढ़ाए जाने की तैयारी है। मोदी सरकार ने महंगाई नियंत्रण के उपायों से खाद्य पदार्थों की कीमतों को काबू में रखा है जिससे उसे शहरी वर्ग का समर्थन मिलता रहे तथा राशन पर दी जाने वाली सब्सिडी की राशि का भुगतान कम करना पड़े। अभी केवल 23 फसलों का एमएसपी निर्धारित होता है। वहीं यह भी सामने आया है कि एमएसपी का लाभ केवल 20 प्रतिशत किसानों तक ही पहुंचता है। इसीलिए एमएसपी निर्धारण से उन किसानों को कोई लाभ नहीं होगा जिनकी फसलें उन 23 फसलों में सम्मिलित नहीं होतीं जिनका निर्धारण सरकार करती है। ऐसे में एमएसपी से इतर भी लाभकारी उपाय करने होंगे।

किसानों को राहत देने के लिए नीति आयोग ने राज्यों को दिए सुझाव

मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन के बाद सरकार ने कुछ प्रयास जरूर किए हैं। सरकार ने नीति आयोग को ऐसा मॉडल विकसित करने को कहा है जिससे बाजार मूल्य कम होने से केंद्र एवं राज्य सरकारें किसानों को कम से कम लागत मूल्य उपलब्ध कराएं। नीति आयोग ने इसके लिए 15,000 करोड़ रुपये की जरूरत का आकलन किया है तथा राज्यों को सुझावों के लिए प्रारूप भेजा है।

किसानों के लिए नाकाफी कदम

कुछ राज्यों से भी बेहतर विकल्प आए हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव सरकार के दौरान 2013 एवं 2014 में चीनी के मूल्यों में कमी आने पर गन्ना किसानों को सरकार द्वारा निर्धारित मूल्यों के भुगतान के लिए सरकारी खजाने से 1,800 करोड़ रुपये किसानों को दिए गए। मध्य प्रदेश सरकार ने गत वर्ष भावांतर योजना लागू कर किसानों को 1,525 करोड़ रुपये का भुगतान किया है। अन्य मॉडल किसानों को सरकार द्वारा फसल उत्पादन के लिए निश्चित लागत राशि का भुगतान किया गया है। तेलंगाना में किसानों को प्रति एकड़ 8,000 रुपये की राशि दी गई। वहीं कर्नाटक ने सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए 5,000 से 10,000 रुपये प्रति हेक्टेयर की सहायता दी है। सरकार द्वारा किसान को भूमि के आधार पर लागत मूल्य प्रदान करना एक बेहतर विकल्प हो सकता है जिससे एक ओर कर्ज पर उसकी निर्भरता कम होगी तो दूसरी ओर कम ही सही, लेकिन आय की गारंटी मिलेगी। मॉडल कोई भी हो, लेकिन जीवनयापन के लिए आवश्यक जरूरत उपलब्ध कराना सरकार की प्राथमिकताआें में होना चाहिए। दुर्भाग्य से यह अभी नारों में तो है लेकिन नीतियों में नहीं है।

[ लेखक उत्तर प्रदेश योजना आयोग के पूर्व सदस्य हैं ]