लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन के कुछ ही देर बाद एक अन्य कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने जिस तरह यह कहा कि लोकप्रिय प्रधानमंत्री ने जजों की नियुक्ति पर कुछ न बोलकर उन्हें निराश किया उस पर हलचल मचनी ही थी। स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा प्रधानमंत्री की एक तरह से सार्वजनिक आलोचना दुर्भाग्यपूर्ण ही कही जाएगी। इसके कुछ दिनों पहले न्यायाधीशों की कम संख्या को लेकर दायर एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ने कहा था कि जजों की नियुक्ति पर केंद्र सरकार द्वारा अनावश्यक विलंब से न्यायिक व्यवस्था ध्वस्त हो रही है और यदि सरकार ने कोलेजियम की ओर से भेजे गए नामों की सूची पर कोई फैसला नहीं किया तो सुप्रीम कोर्ट निर्णय लेने को विवश होगा। देश में न्यायिक व्यवस्था निश्चित ही ध्वस्त हो रही है, लेकिन क्या इसकी जवाबदेही न्यायपालिका पर भी नहीं है? पिछले 23 सालों से जजों द्वारा अपारदर्शी तरीके से जजों की नियुक्ति की जा रही है। इस दोषपूर्ण व्यवस्था को सुधारने के लिए अप्रैल 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) बनाया गया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2015 में निरस्त करते हुए कोलेजियम व्यवस्था को फिर बहाल कर दिया। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने अजीब दलील दी कि छह सदस्यीय आयोग में विधि मंत्री की उपस्थिति से न्यायिक स्वायत्तता समाप्त हो जायेगी। यदि इसे वाजिब मानें तो कोलेजियम व्यवस्था तो और भी अधिक दोषपूर्ण है, क्योंकि इसमें जज ही जज की नियुक्ति करते हैं। ऐसा दुनिया के किसी अन्य लोकतांत्रिक देश में नहीं है।

एनजेएसी पर सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान दिए गए आंकड़ों के अनुसार देश के 13 हाईकोर्ट में 52 फीसदी या करीब 99 जज बड़े वकीलों और जजों के रिश्तेदार हैं। आरोपों के अनुसार जजों की नियुक्ति प्रणाली में 200 अभिजात्य रसूखदार परिवारों का वर्चस्व है। सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसफ ने कोलेजियम व्यवस्था में खामी पर सहमति जताते हुए सुधार के लिए खुलेपन की जरूरत जताई थी। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट अपने स्तर पर कोलेजियम व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए न्यायिक आदेश पारित करने में विफल रहा। उसने केंद्र सरकार को ही मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) में बदलाव करने का निर्देश दे दिया। अब सुप्रीम कोर्ट एमओपी में बड़े बदलाव के लिए राजी नहीं है और उसके बगैर नए जजों की नियुक्ति लटकी है। दरअसल यही वर्तमान संकट का प्रमुख कारण है। चीफ जस्टिस के अनुसार विभिन्न हाईकोर्ट में 43 फीसदी पद रिक्त होने से 38 लाख मुकदमे लंबित हैं, लेकिन तथ्य यह भी है कि उच्च न्यायालयों के अलावा अन्य अदालतों में 3.5 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। सवाल है कि ये मुकदमे क्यों लंबित हैं? इन अदालतों में तो जजों की नियुक्ति पर कोई गतिरोध नहीं है। न्यायिक सुधारों और जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव के बगैर केवल जजों की संख्या बढ़ाने से आम जनता को जल्दी न्याय कैसे मिलेगा? दक्ष संस्था के रूल ऑफ लॉ प्रोजेक्ट के आंकड़ों के अनुसार देश में 1940 और 1950 के दशक के मुकदमे अभी भी लंबित हैं। दूसरी ओर बड़े वकीलों की उपस्थिति से जयललिता और सलमान खान जैसे रसूखदारों के मुकदमों में तुरंत फैसला हो जाता है। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने जजों के भ्रष्टाचार को दर्शाते हुए एक हलफनामा दायर किया था। राजनीतिक भ्रष्टाचार पर सख्ती दिखाने वाला सुप्रीम कोर्ट जजों की अनियमितताओं के मामलों में सख्त कारवाई करने में विफल रहा। दिलचस्प है कि जजों को बर्खास्त करने के लिए संविधान में महाभियोग की प्रक्रिया निर्धारित की गई है, लेकिन उसके इस्तेमाल से आज तक कोई भी जज हटाया नहीं जा सका है।

आखिर हमारी अदालतें 19वीं शताब्दी के कानून और 20वीं सदी की मानसिकता से लैस होकर 21वीं सदी की समस्याओं को सिर्फ जजों की संख्या बढ़ा कर कैसे सुलझा सकती हैं? जब सीनियर एडवोकेट्स की नियुक्ति हेतु सभी जजों की सहमति चाहिए होती है तो फिर जजों की नियुक्ति हेतु पांच जजों की बजाय सभी जजों की सहमति क्यों नहीं ली जाती? जब लोकतंत्र के सभी हिस्से सूचना अधिकार कानून के दायरे में हैं तो फिर जज उसके दायरे में आने से परहेज क्यों करते है? जब संसद की कार्यवाही का सीधा टीवी प्रसारण हो सकता है तो फिर अदालतों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण या रिकार्डिंग को क्यों रोका जा रहा है? अगर जजों के बच्चे या रिश्तेदार हाईकोर्ट में वकालत कर रहे हैं तो फिर ऐसे जज अपना तबादला खुद कराकर नैतिक मिसाल क्यों नहीं पेश कर पा रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार तीन महीने से ज्यादा कोई आर्डर रिजर्व नहीं रखा जा सकता। इसके बावजूद तमाम मामलों में सालों साल बाद आदेश पारित हो रहे हैं। इस न्यायिक अव्यवस्था की जवाबदेही से सरकार भी नहीं बच सकती। सरकार द्वारा एक मामले में तीन साल तक जवाब न दायर करने के लिए चीफ जस्टिस ने उस पर 25000 का जुर्माना लगाया। यह सही कदम था, लेकिन गिने चुने मामलों में प्रतिशोधात्मक कारवाई की बजाय जुर्माने का नियम बेवजह के सभी मामलों में लगना चाहिए। ऐसा हो तो मुकदमों की संख्या स्वत: कम हो जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एडीआर मामले मे दिए गए फैसले के बाद सांसद और विधायक का चुनाव लडऩे वाले प्रत्याशियों को व्यक्तिगत विवरण का हलफनामा जरूरी हो गया है। यदि जज भी सत्ता केंद्रों के साथ अपने संबंधों का हलफनामा दें तो उनकी नियुक्ति पारदर्शी हो जाएगी। इस तरह का हलफनामा देने की मांग पर सरकार और सुप्रीम कोर्ट की खामोशी चिंताजनक है। नेम और शेम के तहत हलफनामे में विवरण के अनुसार रिश्तेदारों को चयन प्रक्रिया से बाहर होना ही पड़ेगा। इससे समाज के वंचित वर्ग के योग्य लोगों को जज बनने का मौका मिलेगा। हलफनामे में गलत तथ्य होने पर जजों को बगैर महाभियोग के हटाने में आसानी होगी। न्यायिक आयोग की स्थापना विधि आयोग और प्रशासनिक सुधार आयोग जैसी संस्थाओं के व्यापक अध्ययन और सिफारिश के बाद की गई थी। न्यायिक आयोग संबंधी कानून बहुमत से पारित हुआ था। इसके बाद उसे 20 राज्यों की सहमति भी मिली। यह कानून सर्वसम्मति से पारित हुआ था और इससे देश के मूड का पता चला था।

सरकार और न्यापालिका दोनों संविधान से बंधे होने के साथ देश की जनता के प्रति जवाबदेह हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कोलेजियम पर सुधार हेतु जनता से सुझाव मांगे थे, जिस पर बड़ी संख्या में सुझाव आए। ये 11 हजार पन्नों में हैं। जनभावनाओं के अनुरूप सुप्रीम कोर्ट को कोलेजियम में सुधार हेतु न्यायिक आदेश पारित कर संवैधानिक उत्तरदायित्व को पूरा करना चाहिए। इससे वर्तमान संकट खत्म होने के साथ न्यायपालिका की साख बहाल होगी जो लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत जरूरी है।

[ लेखक विराग गुप्ता, विधिक मामलों के जानकार एवं सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं ]