[अमित शर्मा]। कहते हैं कि जिसकी दिशा खराब होती है उसकी दशा भी खराब हो जाती है। पंजाब में आजकल आम आदमी पार्टी (आप) का हाल भी कुछ ऐसा ही है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकली इस पार्टी ने पंजाब में जिस मकसद के साथ अपने कदम राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ाए थे, उससे भटकती नजर आ रही है। पंजाब में प्रजातंत्र को धनबल और बाहुबल के चंगुल से छुड़ाने का ख्वाब दिखाने वाली 'आप' आज खुद भी उसी परंपरागत राजनीति का हिस्सा बन कर रह गई है जिसे बदलने का दावा इसका शीर्ष नेतृत्व करता रहा है। कारण, पार्टी दिग्गजों में निजी हितों की पूर्ति के लिए 'आप' की जगह 'मैं' का आ जाना।

अब बात बेशक दिल्ली में बैठी पार्टी हाईकमान की हो या फिर पंजाब में नेतृत्व संभाल रही टीम की, कोई भी इस 'मैं' के जाल से अछूता नहीं रहा। अब चाहे सुच्चा सिंह छोटेपुर हों या पार्टी से बर्खास्त दो चुने गए सांसद, या फिर हाल ही में नेता प्रतिपक्ष के पद से 'ट्विटर' पर हटाए गए सुखपाल सिंह खैहरा, सब कहीं न कहीं आलाकमान की इसी 'मैं' की भेंट चढ़ गए। आप की बुनियादी सोच को दरकिनार कर सुपरबॉस बनने की ख्वाहिशों ने पंजाब में आम आदमी पार्टी की बुनियाद हिलाकर रख दी है।

'मैं' में उलझी 'आप'

आखिर 'आप' में यह 'मैं' पनपी कहां से? दरअसल जब तक पंजाब में आम आदमी पार्टी ने चुनावी जीत हासिल नहीं की थी सब ठीक चल रहा था। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले तक दिल्ली में बैठी केजरीवाल ब्रिगेड से लेकर राज्य में पार्टी नुमाइंदों तक हर कोई आम आदमी से हाथ मिला रहा था। पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को खड़ा करने से लेकर चुनाव घोषणापत्र बनाने तक पार्टी के हर छोटे -बड़े कार्यकर्ता यानी आम आदमी को साथ लेकर चल रहा था। देशभर में मोदी लहर के बावजूद पंजाब के चार 'आम आदमी' दिल्ली में प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुने गए। ...लेकिन पंजाब में इसी बड़ी सियासी जीत से शुरुआत हुई उस दृष्टिकोण की जिसमें 'आप' की जगह ले ली 'मैं' ने।

2014 के लोकसभा चुनावों की जीत ने पंजाब से लेकर दिल्ली तक आम आदमी से नेता बने हर उस व्यक्ति में राजनीतिक महत्वाकांक्षा को ऐसी हवा दी की सुपरबॉस बनने की चाहत में हर स्तर पर इस बात को तजरीह दी जाने लगे की अपनी प्राथमिकताओं को आप की जरूरतों से कैसे आगे रखा जा सके। पूर्ण स्वराज के सिद्धांतों का व्याख्यान करने वाली आम आदमी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व किसी भी अन्य राजनीतिक दल की तरह हर उस व्यक्ति विशेष को निशाना बनाने लगा जिसने सियासी जीत हासिल होने के बाद केजरीवाल ब्रिगेड द्वारा प्राथमिकताओं में लाए जा रहे इस बदलाव को चुनौती दी। जीते हुए चार सांसदों में से दो ने पार्टी की बदली विचारधारा से सार्वजनिक रूप से किनारा कर दिन-प्रतिदिन 'मैं' में उलझती उस 'आप' को पहली बार परिलक्षित किया।

इसके बाद से यह सिलसिला ऐसा शुरू हुआ जो अब तक थमा नहीं। हर परीक्षा की घड़ी में आप नेतृत्व ऐसे फैसले लेता गया जिससे पार्टी अपने सिद्धांतों से दूर दिखी। विधानसभा चुनाव के दौरान पंजाब के कन्वीनर सुच्चा सिंह छोटेपुर का पार्टी से निष्कासन और फिर विरोध के बावजूद प्रदेश नेतृत्व की जगह केजरीवाल के नाम पर चुनाव लड़ना, इन सब ने इसी बदलाव को इंगित किया। राजनीतिक पंडितों और समीक्षकों द्वारा पंजाब में शर्तिया सरकार गठित करने की भविष्यवाणियों के बावजूद आम आदमी पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ा।

लेकिन केजरीवाल ब्रिगेड के लिए यह सब भी शायद कोई सबक लेकर नहीं आया। नेता प्रतिपक्ष को लेकर फिर उसी 'मैं' ने बार-बार असर दिखाया। पार्टी आलाकमान ने दो वर्ष के भीतर दो बार विपक्ष के नेता का नाम बदल डाला या फिर शिरोमणि अकाली दल के एक विवादित नेता के हक में अचानक माफीनामा जारी कर राज्य में अपनी ही पार्टी के बुनियादी ढांचे की नींव ही हिला कर रख दी। आखिरी कड़ी हाल ही में सुखपाल सिंह खैहरा को विपक्ष के नेता पद से हटाए जाने के रूप में सामने आई। ट्विटर पर सुनाए एक फैसले ने आठ विधायकों समेत अनेक जिलाध्यक्षों को पार्टी की बदलती सोच से ऐसा अलग किया कि आज राज्य में पार्टी के वजूद पर ही खतरा मंडराने लगा है।

चूंकि प्रदेश में कांग्रेस और अकाली दल- भाजपा गठबंधन के वर्चस्व के बीच आम आदमी पार्टी उम्मीद की एक किरण के रूप में जनता के सामने आई थी, सो अगर वाकई केजरीवाल ब्रिगेड पंजाब में पार्टी के अस्तित्व को लेकर चिंतित है तो निसंदेह उसे अपने तौर- तरीके बदलने होंगे। आज जरूरत है अरविंद केजरीवाल को अपने भाषण के सोशल मीडिया पर वायरल हुए उस अंश में छिपी चेतावनी महसूस करने की जिसमें वह अपनी पार्टी के विधायकों को नसीहत दे रहे हैं- आपसे बस एक ही निवदेन है कि कभी मैं (घमंड) में मत आना. आज आपने भाजपा और कांग्रेस वालों की इस 'मैं' को तोड़ा है। ध्यान रहे कहीं कल ऐसा न हो कि किसी अन्य आम आदमी को खड़ा होकर हमारी 'मैं' को तोड़ना पड़े।

[स्थानीय संपादक, पंजाब]