नई दिल्ली [सी उदयभास्कर]। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रमंडल सरकारों के प्रमुखों की बैठक में हिस्सा लेने के लिए लंदन में हैं। इस शिखर वार्ता को सीएचओजीएम भी कहा जाता है। मोदी पहली बार इसमें शामिल होने जा रहे हैं। 53 देशों के इस समागम में भारतीय प्रधानमंत्री को खासी तवज्जो मिल रही है। अपनी आबादी और आर्थिक बूते की बदौलत भारत राष्ट्रमंडल के दिग्गज देशों में शामिल है जो कुछ समय बाद अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। मेजबान ब्रिटेन के साथ कनाडा और ऑस्ट्रेलिया भी इस समूह के दिग्गजों में शामिल हैं।

हाल में संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों की पदक तालिका में भी इन चारों देशों का जलवा ही देखने को मिला। वर्ष 2018 में आयोजित हो रहे सीएचओजीएम का विषय है ‘एक साझा भविष्य की ओर।’ उम्मीद की जा रही है कि सम्मेलन में जुटे नेता सामाजिक-आर्थिक विकास, मानव सुरक्षा और लैंगिक चुनौतियों से जुड़े उन तमाम वैश्विक मुद्दों पर विचार-विमर्श करेंगे जिनसे दुनिया इस वक्त जूझ रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि दुनिया का भविष्य कई मायनों में अनिश्चित है और परमाणु हथियारों से लेकर ग्लोबल वार्मिंग, तमाम बीमारियों और आतंकवाद से लेकर ऐसी चुनौतियों की अंतहीन सूची है जिनसे दुनिया के वजूद पर खतरा मंडरा रहा है, लेकिन दुनिया के सामने एक ऐसा खतरा भी दस्तक दे रहा है जिसका असर बहुत लंबे अर्से तक महसूस होगा और यह खतरा है महासागरों में बढ़ता प्रदूषण। इस मुद्दे पर राजनीतिक रूप से उतना ध्यान नहीं दिया जाता जितने की दरकार है। उम्मीद की जानी चाहिए कि रिट्रीट के दौरान जरूर इस पर कुछ विमर्श होगा।

रिट्रीट राष्ट्रमंडल का एक प्रमुख आयोजन होता है जिसमें सभी नेता बिना सहयोगियों के ही एक दूसरे से अनौपचारिक बातचीत में शामिल होते हैं। 20 अप्रैल को होने वाला रिट्रीट इस मुद्दे को उठाने का उचित मंच होना चाहिए। एक डच फाउंडेशन द्वारा मार्च के अंत में जारी किए गए तीन वर्षीय अध्ययन के परिणाम चौंकाने वाले हैं। इसमें महासागरों की सफाई से जुड़ी तस्वीर खतरे की घंटी बजाने वाली है। दुनिया भर में समुद्र और महासागर लंबे समय से धरती से जमा होने वाले कचरे को खपाने में बर्बाद हो रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में महासागरों की सेहत के लिए प्लास्टिक सबसे बड़े खतरे के रूप में उभरा है। पहले ऐसी तकनीक नहीं थी जिससे व्यापक स्तर की निगरानी संभव हो सके, पर अब ऐसा किया जा सकता है।

समंदर की थाह लेने वाला कोई भी शख्स कचरे के तैरते हुए द्वीपों के बारे में जरूर बताएगा। कचरे का यह सैलाब समुद्री धारा और हवाओं के असर से प्रभावित होकर जुड़ता और बिखरता रहता है। इस पर गौर जरूर किया जा रहा है, लेकिन इससे आगाह नहीं किया जा रहा है। हालिया अध्ययन बताते हैं इनमें ग्रेट पैसिफिक गारबेज पैच यानी जीपीजीपी नाम के कचरे के सबसे बड़े भंडार का आकार फ्रांस से भी तीन गुना अधिक है। डच अध्ययन के अनुसार जीपीजीपी का आकार 16 लाख वर्ग किलोमीटर के बराबर है जिसमें 80,000 मीट्रिक टन के बराबर कचरा हो सकता है।

महासागर सफाई से जुड़े अध्ययन आगे दर्शाते हैं कि लगभग 80 लाख टन प्लास्टिक कचरा हर साल महासागरों में जा रहा रहा है। एक ब्रिटिश रिपोर्ट ने भी इसकी पुष्टि की है। इसके मुताबिक अगर इस पर विराम नहीं लगाया गया तो अब से सात साल बाद 2025 में यह तीन गुना तक बढ़ सकता है। वैश्विक राजनीतिक ढांचे को इस बड़े खतरे पर जरूर विचार करना चाहिए, क्योंकि महासागरों में जमा होता प्लास्टिक कचरा माइक्रोप्लास्टिक के रूप में बदल जाता है जिससे वह सामुद्रिक जीवन का हिस्सा बनकर प्लास्टिक अवशेष के रूप में मानवीय खाद्य शृंखला का हिस्सा बन जाता है।

ऐसा अनुमान है कि इसका एक मामूली सा हिस्सा पहले ही मानव खाद्य एवं जल शृंखला का हिस्सा भी बन चुका है जिसका वैश्विक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दीर्घावधिक प्रभावों का अध्ययन किए जाने की भी जरूरत है। महासागरों में प्लास्टिक के इस मौजूदा खतरे को जनसंहारक हथियारों की संज्ञा भी दी जा सकती है जो धीमी रफ्तार से अपना असर दिखा रहा है। इजरायली समुद्री विज्ञानी एवं शिक्षक डॉ. बेल्ला गालिल ने 1995 में प्रकाशित ‘मरीन पॉल्यूशन बुलेटिन अंक 30’ के माध्यम से पहली बार दुनिया को इस समस्या से रूबरू कराया था। उन्होंने भूमध्यसागर में प्लास्टिक कचरे की समस्या को उठाया था। उनका कहना है कि प्लास्टिक कचरे का दायरा कई कारकों पर निर्भर करता है। मसलन समुद्री धाराओं और प्रवाह प्रारूप, शहरीकृत तटीय आबादी का घनत्व और आमदनी का स्तर इसमें अहम भूमिका निभाता है।

पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में यह 100 किलोग्राम प्रतिवर्ष से लेकर विकासशील देशों में 20 किलोग्राम सालाना तक हो सकता है। हालांकि केवल प्लास्टिक ही नहीं है जो महासागरों की सेहत और उनमें पोषित होने वाले जटिल सागरीय जीवन को लील रहा है। दुनिया भर के सागर और महासागर मानव द्वारा उत्सर्जित

कुल कार्बन उत्सर्जन के एक चौथाई हिस्से को अवशोषित करने वाले प्राकृतिक माध्यम हैं। दीर्घअवधि में इसका दुष्प्रभाव पड़ना तय है। जहां ग्लोबल वार्मिंग पहले से ही समुद्री जल का तापमान बढ़ाने के साथ ही समुद्री एवं महासागरीय जल के रासायनिक स्वरूप को बदलने के साथ उसकी अम्लीयता बढ़ा रही है। इससे तटीय प्रवाल भित्ति को नुकसान हो रहा है जिसका खामियाजा बेहद नाजुक समुद्री खाद्य शृंखला को भुगतना पड़ रहा है।

तमाम वैश्विक अध्ययन महासागरों की सेहत को लेकर निराशाजनक निष्कर्ष पेश करते हैं, लेकिन कुछ ठोस मानवीय कदम कुछ बेहतरी की आस जगा सकते हैं। अपनी बात को बेहतर ढंग से रखने में महारत रखने वाले प्रधानमंत्री मोदी अन्य नेताओं के समक्ष वर्सोवा बीच के कायाकल्प का किस्सा सामने रखें। मुंबई में वर्सोवा बीच पिछले कई वर्षों से गंदगी की मिसाल बन गया था जहां स्थानीय स्तर पर कचरा निपटान की पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। दो साल पहले कुछ नागरिकों के संयुक्त प्रयासों से शुरू किए गए अभियान और हजारों मुंबईकरों के योगदान से वर्सोवा बीच की कायापलट हो गई।

इस साल 21 मार्च को समुद्र तट पर कछुओं की चहलकदमी से इस कवायद का फल भी मिलता दिखा। स्थानीय लोगों ने कहा कि तकरीबन 15 वर्षों बाद उन्होंने कछुओं के अंडों से जुड़ा यह वाकया देखा। हालांकि केवल यही मामला समुद्र की सफाई का पैमाना नहीं हो सकता, लेकिन यह इस बात की मिसाल जरूर है कि मानवीय दखल कुछ रंग जरूर दिखा सकता है। राष्ट्रमंडल देशों में से अधिकांश समुद्र तटों पर ही बसे हैं। ऐसे में महासागरों की सेहत उनके लिए बहुत मायने रखती है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसी वर्ष मार्च र्में हिंद महासागर में सुरक्षा और वृद्धि के लिए अपने सागर दृष्टिकोण को पेश किया है। अब समय आ गया है कि इस नजरिये को राष्ट्रमंडल के मंच पर विस्तार दिया जाए। महासागर मानवीय अस्तित्व और उसके भविष्य का अहम हिस्सा हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि लंदन के इस सम्मेलन में इस अहम मुद्दे पर चर्चा की जाए जिसकी अक्सर अनदेखी हो जाती है।

(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)