भारत से जुड़ी पॉजिटिव खबरों को खारिज करने में जुटा अंतरराष्ट्रीय-भारतीय मीडिया का एक तबका
जब भारत महामारी से निपटने और अपनी अर्थव्यवस्था के कायाकल्प की चुनौती के लिए खुद को तैयार कर रहा है तब मीडिया के लिए जरूरी है कि वह भारत से जुड़े विमर्श की संतुलित तस्वीर पेश करे।
बैजयंत जय पांडा। कोरोना वायरस से उपजी महामारी के खिलाफ भारत की जंग एक नए दौर में पहुंच गई है। इस जंग के दौरान यह आम सहमति उभरी है कि देश ने इस आपदा का सामना बहुत सक्षमता और कुशलता से किया है। इसी कारण इसकी रोकथाम के लिए लगाए गए लॉकडाउन को चरणबद्ध तरीके से खोलना भी शुरू कर दिया गया है। इसी कड़ी में ग्रीन, ऑरेंज और रेड जैसे सभी प्रमुख जोन में कुछ गतिविधियों की इजाजत दे दी गई है। इससे हालात और सहज होंगे। भारत इस संकट से जिस बखूबी ढंग से निपट रहा है उसकी पुष्टि न केवल डब्ल्यूएचओ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से मिली शाबासी से, बल्कि उन सर्वेक्षणों से भी होती है जो प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में जनता के पूर्ण विश्वास और अगाध आस्था को रेखांकित करते हैं।
जरूरतमंदों को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं : जमीन से जुड़े किसी भी व्यक्ति के लिए ऐसा परिदृश्य कोई हैरानी की बात नहीं। वे लाखों स्वयंसेवक खुद इसकी गवाही दे सकते हैं जो पिछले कई हफ्तों से राहत कार्यो में जुटे हैं। हालांकि इस राह में कुछ दुश्वारियों से भी दो-चार होना पड़ा है, लेकिन देश की व्यापक धारणा यही है कि भारत मिल-जुलकर इस आपदा को मात देकर उबरने में कामयाब होगा। यह सकारात्मक नजरिया उन साक्ष्यों पर आधारित है जो यह रेखांकित करते हैं कि भारत न केवल इस वायरस के संक्रमण को सीमित करने में सक्षम रहा, बल्कि जरूरतमंदों को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं भी सुनिश्चित कर सका।
भयावह कोहराम मचने की भविष्यवाणी : हालांकि अंतरराष्ट्रीय एवं भारतीय मीडिया का एक तबका अभी भी इस पर अड़ा है कि वह भारत से जुड़ी किसी भी सकारात्मक खबर को खारिज ही करता रहेगा। देश को लेकर केवल नकारात्मक एजेंडा आगे बढ़ाने में ही उसकी गहरी दिलचस्पी दिखती है, खासतौर से सरकार के खिलाफ विषवमन करने में। इस विषवमन के लिए स्थापित तथ्यों को भी नजरंदाज किया जा रहा है। फरवरी के अंत और मार्च की शुरुआत तक ये मीडिया संस्थान देश में कोरोना के कहर का भयावह कोहराम मचने की भविष्यवाणी कर रहे थे। उनका जोर इसी पहलू पर था कि जब बेहतरीन स्वास्थ्य ढांचे के बावजूद विकसित देशों ने कोरोना के आगे घुटने टेक दिए तो भारत का भरभराना तय है। तमाम अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में डरावने शीर्षकों के साथ आलेख लिखे गए जो बहुत खौफनाक तस्वीर सामने रख रहे थे।
खारिज करने में जुटा अंतरराष्ट्रीय-भारतीय मीडिया : जब संक्रमण के कम प्रसार के साथ ये अनुमान धराशायी होते गए तो इस तबके ने एक नया राग अलापना शुरू कर दिया। उसने भारत में परीक्षणों यानी टेस्ट की कम संख्या को लेकर सवाल उठाने शुरू कर दिए, जबकि हकीकत उसके दावों के उलट थी। वास्तविकता में टेस्टिंग का दायरा भी जरूरत के हिसाब से बढ़ाया गया और उसमें यह बात भी सामने आई कि यूरोप और अमेरिका के उलट भारतीय इस वायरस के संपर्क में कम ही आए। आइसीएमआर के डॉक्टर और स्वास्थ्य मंत्रलय के अधिकारियों ने संबंधित आंकड़े भी सामने रखे, मगर मीडिया के एक वर्ग ने अपनी सुविधा और पूर्वाग्रह के कारण इसे खारिज ही किया। जब उसके नकारात्मक सुरों को तथ्यों के जरिये प्रभावी ढंग से शांत किया गया तब इस तबके के बदले रागों से यह आभास हुआ कि अब वे यह उम्मीद कर रहे हैं कि कोविड-19 के खिलाफ भारत की मुहिम कुछ हफ्तों में दम तोड़ देगी।
मीडिया की जिम्मेदारी नकारात्मक रिपोर्टिंग को बढ़ावा ना दे : संकट के समय मीडिया की यही जिम्मेदारी बनती है कि वह वाजिब मुद्दों को उठाए, न कि पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर प्रशासन की उपलब्धियों को नकारकर केवल नकारात्मक रिपोर्टिंग को बढ़ावा दे। जब विनाश को लेकर अपना अनुमान साकार होता नहीं दिखा तो नकारात्मक नजरिये से भरे मीडिया ने भारत में इस्लामोफोबिया का शिगूफा छेड़ दिया। इसके लिए उसने तब्लीगी जमात की करतूतों का सहारा लिया। तब्लीगियों की करतूत के खिलाफ आम जनता के असंतोष को लेकर उन्होंने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि मोदी सरकार और भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग इस स्थिति का ध्रुवीकरण करने में लगा है। इस वर्ग ने सरकार के उन नियमों का उल्लेख करना भी उचित नहीं समझा कि जो सभी धाíमक समूहों पर समान रूप से लागू थे। मीडिया का यह वर्ग प्रधानमंत्री मोदी की उन तमाम अपीलों को भी अनदेखा करता नजर आया जिनमें उन्होंने लोगों से एकजुटता का आह्वान करते हुए कहा कि यह वायरस जाति, धर्म और ऐसी किसी अन्य पहचान के आधार पर भेदभाव नहीं करता और इसे हराने के लिए हमारा एकजुट होना जरूरी है। अफसोस की बात है कि भारत को लेकर ऐसा शंकालु नजरिया देश के भीतर और बाहर बसे कट्टर वामपंथी स्वयंभू उदारवादियों में एकसामान भाव से घर करता गया।
भारत के प्रति शंकालु नजरिये वाला मीडिया चीन के प्रति सहानुभूति दर्शाने में कुछ अतिरिक्त प्रयास करता दिखा। इससे उसकी विश्वसनीयता ही घटी। जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहा तो वह लगातार उस पर बहस करता रहा। यह स्थिति तब थी जब मीडिया के सभी वर्गो ने न सही, लेकिन अधिकांश ने शुरुआत में इसे वुहान वायरस नाम ही दिया था। इसे चीनी वायरस कहना नकारात्मकता से भरे मीडिया को नस्लीय टिप्पणी लगा जबकि अतीत में अधिकांश महामारियों को वही नाम दिया गया जिस जगह से उनकी शुरुआत हुई। इनमें जर्मन मीजल्स, जापानी इंसेफेलाइटिस, स्पेनिश फ्लू, इबोला और मिडिल ईस्टर्न रेस्पिरेटरी सिंड्रोम यानी मर्स जैसे तमाम नाम मिसाल हैं। इसी तरह जब भारत में एक एंटीबायोटिक-रेसिस्टेंट बैक्टीरियल स्ट्रेन मिला तो उसे न्यू डेल्ही मेटलो बीटा-लैकटामेस-1 यानी एनडीएम-1 नाम दिया गया। किसी बीमारी के उद्भव से उसका नाम रखने की पुरानी परिपाटी के उलटे कोरोना मामले में नस्लवाद का मुलम्मा चढ़ा दिया गया। एक बेहद बुनियादी तथ्य को अनदेखा कर अपनी विश्वसनीयता पर ही आघात किया गया।
एक ऐसे वक्त में जब भारत महामारी से निपटने और अपनी अर्थव्यवस्था के कायाकल्प की चुनौती के लिए खुद को तैयार कर रहा है तब मीडिया के लिए भी यह जरूरी है कि वह भारत से जुड़े विमर्श की संतुलित तस्वीर पेश करे। उसके लिए बेहतर यही होगा कि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जबरन भारत की छवि मलिन करने का कोई उपक्रम न करे।
(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)