अभिषेक कुमार सिंह। कोरोना काल ने पूरी दुनिया को जिन बातों के लिए मजबूर किया है, उनमें से एक दिनचर्या में हुए बदलाव से जुड़ी है। खास तौर से शहरों की दिनचर्या में कई क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं, लेकिन इसकी एक सत्यता यह है कि कोरोना के प्रकोप से पहले ही शहरियों की रोजमर्रा की जिंदगी में कई ऐसे परिवर्तन हो चुके हैं जो उनकी जीवनशैली पर असर डाल रहे हैं। इसका एक महत्वपूर्ण आकलन भारतीय सांख्यिकी संगठन (नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस-एनएसओ) ने किया है। इसमें यह जानने की कोशिश की गई कि हमारे देश के नागरिक अपने समय का क्या और कैसा इस्तेमाल करते हैं। इस के आधार पर जो निष्कर्ष निकाले गए हैं, उससे गांवों और शहरों की रोजमर्रा की जिंदगी का पता चलता है।

अंडमान निकोबार के ग्रामीण हिस्सों को छोड़कर देश के 5947 गांवों और 3998 शहरी क्षेत्रों के 1,38,799 परिवारों के करीब साढ़े चार लाख (4,47,250) लोगों को इसमें शामिल किया गया। इसके तहत छह साल से अधिक उम्र के सभी सदस्यों की दिनचर्या का विश्लेषण किया गया। पिछले वर्ष पहली जनवरी से 31 दिसंबर (2019) के बीच यह सर्वेक्षण कराया गया था। इस सर्वेक्षण से लोगों के खान-पान, रहन-सहन और सोने-जागने से लेकर टीवी देखने, खेलने, सामाजिक मेलजोल और किए जाने वाले कार्यो की प्रकृति का एक आकलन किया गया। इससे यह पता चला है कि यदि एक औसत भारतीय रोजाना 552 मिनट या कहें कि नौ घंटे 12 मिनट की नींद लेता है तो इसमें शहर-गांव की स्थितियां कमोबेश एक जैसी हैं।

सर्वेक्षण के मुताबिक एक ग्रामीण पुरुष राष्ट्रीय औसत के मुकाबले दो मिनट ज्यादा नींद लेता है। यानी 554 मिनट की नींद उसे नसीब होती है तो शहरी मर्दो को सोने के लिए औसतन 534 मिनट ही मिलते हैं। हालांकि शहरी महिलाएं राष्ट्रीय औसत के मुताबिक ही नींद ले पा रही हैं। यानी वे हर रोज 552 मिनट सोती हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं का इस मामले में औसत और भी ज्यादा 557 मिनट का है। भोजन करने में लगने वाले वक्त को भी इस सर्वेक्षण में दर्ज किया गया। इसके अनुसार ग्रामीण महिलाएं भोजन करने में प्रतिदिन औसतन 94 मिनट खर्च करती हैं, जबकि ग्रामीण पुरुषों को भोजन करने में ज्यादा वक्त लगता है। यानी वे इस पर 103 मिनट खर्च करते हैं। शहरी इलाकों में यह औसत महिलाओं के मामले में 97 मिनट और पुरुषों में 101 मिनट का है।

इसमें बताया गया है कि सामाजिक परंपराएं निभाने, टीवी और इंटरनेट जैसे न्यू मीडिया से जुड़ने और खेलकूद आदि में लगने वाला परिवार का औसत साझा समय 165 मिनट है। लगभग इतना ही समय बातचीत, सामूहिक सहभागिता वाले अन्य कार्यो और धाíमक कामकाज में व्यतीत होता है और इस संबंध में ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के बीच ज्यादा अंतर नहीं है। हालांकि इसमें एक दुविधा खास तौर से महिलाओं के लिए है। परिवार और घर के बड़े-बुजुर्गो के खान-पान से लेकर उनकी सेहत और दवा-पानी के इंतजाम में ग्रामीण इलाकों की महिलाओं को 301 मिनट, जबकि शहरी महिलाओं को 293 मिनट लगाने पड़ते हैं। विडंबना यह है कि इस मेहनत के एवज में उन्हें किसी तरह का भुगतान नहीं मिलता और न ही देश उनके श्रम को किसी आíथक पैमाने पर आंकता है। इसका एक बड़ा विरोधाभास यह भी है कि इस मद में ग्रामीण पुरुष सिर्फ 98 मिनट, जबकि शहरी पुरुष सिर्फ 94 मिनट खर्च करते हैं। हालांकि इसका एक सार्थक पहलू यह है कि देश में ज्यादातर लोगों के लिए पैसे के मुकाबले परिवार की अहमियत ज्यादा है।

देश में शिक्षा और रोजगार से जुड़ी चिंताओं और शिक्षा के बढ़ते महत्व का एक संकेत एनएसओ के सर्वेक्षण में भी मिला है। पता चला है कि रोजगार खोजने और उसमें बने रहने संबंधी गतिविधियों में देश का आम नागरिक औसत रोजाना 429 मिनट समय लगाता है। इस मामले में ग्रामीण थोड़े भाग्यशाली हैं, क्योंकि जहां शहरियों को इसके लिए रोजाना 514 मिनट (लगभग नौ घंटे) लगाने पड़ते हैं, वहीं ग्रामीणों को इसकी ज्यादा चिंता न करते हुए सिर्फ 485 मिनट इसके लिए खर्च करने पड़ते हैं।

महिलाओं के मामले में ये स्थितियां थोड़ी अलग हैं, क्योंकि ग्रामीण महिलाएं इसके लिए 315 मिनट, जबकि शहरी महिलाएं 375 मिनट खर्च करती हैं। शिक्षा, प्रशिक्षण से जुड़ी गतिविधियों यानी लìनग (सीखने की गतिविधि) पर भी लगने वाला औसत समय यह साबित कर रहा है कि लोगों में अपना भविष्य सुधारने की प्रवृत्ति है। इसका राष्ट्रीय औसत 424 मिनट प्रतिदिन है और पहले से जगजाहिर तथ्य इस सर्वेक्षण में भी उद्घाटित हुआ है कि इस मामले में गांवों के निवासियों के मुकाबले शहरी थोड़ा आगे हैं। शहरों में लोग इस मद में 430 मिनट लगा रहे हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के लोग इस मामले में 422 मिनट ही खर्च पा रहे हैं, लेकिन ज्यादा उल्लेखनीय बात यह है कि ढंग का रोजगार पाने और इसके लिए स्किल हासिल करने की ललक ग्रामीणों में भी भरपूर है, जिसे एक अच्छा संकेत माना जा सकता है।

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