[रमेश दुबे]। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्ष 2022 तक यानी अगले चार सालों में किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लक्ष्य को अपनी प्राथमिकता बनाए हुए हैं। हाल में उन्होंने किसानों से बात करते हुए फिर कहा कि उनकी सरकार किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए प्रतिबद्ध है। इससे इस लक्ष्य के प्रति मोदी सरकार की गंभीरता का ही पता चलता है, लेकिन कई ढांचागत उपायों के बावजूद सरकार अब तक इस लक्ष्य की ओर बढ़ती प्रतीत नहीं हो रही है।

जाहिर है कि इसीलिए सरकार की आलोचना की जाने लगी है। चूंकि मोदी सरकार मनरेगा जैसे लोक-लुभावन कार्यक्रम के बजाय दूरगामी उपायों के द्वारा किसानों की आमदनी बढ़ाने की कोशिश कर रही है इसलिए नतीजे आने में देर हो रही है। देश के विभिन्न हिस्सों के किसानों से बात करते हुए प्रधानमत्री ने मिट्टी, सिंचाई, बीज, उर्वरक, फसल बीमा, इलेक्ट्रॉनिक मंडी जैसे ढांचागत सुधारों की चर्चा करते हुए यह भी कहा कि सरकार ने कृषि संबंधी बजट की राशि को दोगुना कर दिया है।

नि:संदेह बजट में कृषि क्षेत्र के लिए राशि बढ़ाई गई है, लेकिन समस्या यह है कि इन बहुआयामी उपायों के बावजूद न तो किसानों की आत्महत्या थम रही है और न किसान आंदोलन। ग्रामीण भारत की बदहाली कई कारणों का परिणाम है। प्रमुख कृषि उत्पादों की कीमतों में तेज गिरावट, गेहूं और धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में मामूली बढ़ोतरी, कुदरती आपदाओं के कारण फसलों को भारी नुकसान से किसानों की बदहाली बढ़ी है। हालांकि अनाज, दाल, मांस, दूध और प्रोटीन सहित सभी कृषि उपजों का उत्पादन रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच रहा है, लेकिन किसानों को उनकी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिल पा रही है। नोटबंदी और जीएसटी के चलते मांग में जो कमी आई है उसका खामियाजा भी खेती को भुगतना पड़ रहा है। खेती-किसानी की बदहाली का एक पहलू उदारीकरण के दौर में खेती की उपेक्षा से भी जुड़ा है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कृषि प्रधान देश में खेती-किसानी की नीतियां आग लगे तो कुआं खोदो वाली रही हैं। उत्पादन से लेकर भंडारण-विपणन तक में कामचलाऊ नीतियों का नतीजा यह हुआ कि खेती घाटे का सौदा बन गई।

एक कारण यह भी रहा कि राजनीतिक कारणों से सरकारें जितनी चिंता महंगाई की करती हैं उसका दसवां हिस्सा भी खेती-किसानी की नहीं करतीं। किसानों की समस्याएं इसलिए भी बढ़ती चली गईं, क्योंकि अब तक सरकारी नीतियों का लक्ष्य उत्पादन में बढ़ोतरी तक अधिक केंद्रित रहा है। उत्पादन में वृद्धि से यह मान लिया जाता था कि किसानों का समग्र विकास हो रहा है, जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। विडंबना यह भी है कि कृषि उत्पादन में वृद्धि का लक्ष्य भी सभी फसलों और सभी क्षेत्रों को नहीं समेट पाया है। जिस हरित क्रांति पर हम इतराते रहे हैं उसका दायरा चुनिंदा फसलों और इलाकों तक सिमटा रहा। दलहनी, तिलहनी फसलें और मोटे अनाज हरित क्रांति की परिधि से दूर ही रहे। चूंकि हरित क्रांति में समय के साथ बदलाव नहीं किए गए इसलिए इस क्रांति के अगुआ रहे क्षेत्र भी बदहाली की ओर बढ़ते चले गए।

कांग्रेसी शासन काल में एक बड़ी गलती यह भी हुई कि खेती की बदहाली को दूर करने के लिए ढांचागत सुधार करने के बजाय दान-दक्षिणा वाली योजनाएं शुरू की गईं ताकि किसानों का असंतोष उसे सत्ता से बेदखल न कर दे। काम के बदले अनाज योजना, मनरेगा, कर्जमाफी आदि इसी आत्मघाती नीति के कुछेक उदाहरण हैं। खेती-किसानी को जिस प्रकार वोट बैंक की राजनीति से जोड़ दिया गया उससे भी उसका विकास बाधित हुआ। समस्या यह है कि अब कोई भी सरकार इन कामचलाऊ योजनाओं में कटौती का जोखिम नहीं उठा पाती है। इससे खेती में दीर्घकालिक निवेश प्रभावित होता है। लंबे अर्से तक उपेक्षा के बाद मोदी सरकार ने खेती किसानी के समग्र विकास के कदम उठाए हैं। इसके तहत मिट्टी से लेकर उपज के भंडारण-विपणन तक के उपाय किए जा रहे हैं ताकि खेती मुनाफे का सौदा बने। अब तक 13 करोड़ से ज्यादा मृदा स्वास्थ्य कार्ड बांटे जा चुके हैं।

इससे उर्वरकों के असंतुलित इस्तेमाल में कमी आई है। नीम कोटेड यूरिया के इस्तेमाल से उसकी कालाबाजारी रोकने में कामयाबी मिली है। सरकार किसानों को अच्छी गुणवत्ता के बीज की भी आपूर्ति कर रही है। इसके अलावा कुछ अन्य उपाय भी किए गए हैं। क्या इसे दुर्भाग्य नहीं कहेंगे कि आजादी के 70 साल बाद भी देश की 60 फीसद कृषि भूमि मानसून की कृपा पर निर्भर है। मोदी सरकार ने हर खेत को पानी पहुंचाने के लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना शुरू की है और उसकी ओर से लंबित सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने को सर्वोच्च प्राथमिकता भी दी जा रही है। लगभग सौ परियोजनाएं जल्द ही पूरी होने वाली है।

किसानों की सबसे बड़ी समस्या है उपज की वाजिब कीमत न मिलना। इस समस्या को दूर करने के लिए मोदी सरकार ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ई-नाम शुरू किया है। अब तक 14 राज्यों की 585 मंडियां इससे जुड़ चुकी हैं, शेष 415 मंडियों को 2020 तक ई-नाम से जोड़ दिया जाएगा। किसानों को अपनी उपज की बिक्री के लिए अधिक दूर न जाना पड़े, इसके लिए देश की 22,000 ग्राम मंडियों का विकास करने की योजना है। ग्रामीण एवं कस्बाई इलाकों में इंटरनेट संबंधी नेटवर्क के मजबूत बनते ही इसका लाभ समूचे देश को मिलने लगेगा। जैविक उत्पादों की वैश्विक मांग का दोहन करने के लिए सरकार जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है। मोदी सरकार के लिए इस हकीकत से परिचित होना आवश्यक था कि एमएसपी में बढ़ोतरी और कर्जमाफी से खेती का संकट दूर नहीं होगा।

शायद इस हकीकत को जानने के बाद ही सरकार खेती-किसानी को विविधीकृत कर रही है ताकि मौसमी उतार-चढ़ाव और खेती की बढ़ती लागत को किसान आसानी से झेल सकें। इसके तहत कृषि के साथ-साथ मत्स्य पालन, डेयरी, मधुमक्खीपालन जैसी आयपरक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके अलावा आलू, प्याज, टमाटर जैसे शीघ्र खराब होने वाली उपज की ढुलाई, संरक्षण एवं बिक्री को बढ़ावा देने के लिए जुलाई में ‘आपरेशन ग्रीन’ लांच किया जाना है। इस सबको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि मोदी सरकार खेती-किसानी को मुनाफे का सौदा बनाने के लिए ढांचागत सुधारों पर बल दे रही है इसीलिए वांछित नतीजे आने में देर हो रही है। एक बार आधुनिक कृषिगत आधारभूत ढांचा बन जाने के बाद खेती-किसानी की बदहाली दूर हो जाएगी, लेकिन यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि कृषि संबंधी आधारभूत ढांचे का निर्माण अपेक्षा के अनुरूप हो।

(लेखक केंद्रीय सचिवालय सेवा के अधिकारी एवं कृषि मामलों

के जानकार हैं)