सोनिया गांधी : हालिया बजट का मूल्यांकन करने के लिए हमें भारत के लोगों की आवाज सुनने के साथ ही मोदी सरकार और उनके मंत्रियों के बजट महिमामंडन को अनसुना करना चाहिए। कई सालों से लोग महंगाई, रिकार्ड बेरोजगारी और घटती आय की शिकायत कर रहे हैं। यह बजट न सिर्फ इन गंभीर चुनौतियों के समाधान में विफल रहा, बल्कि इसने गरीबों के लिए बनाई गई योजनाओं में आवंटन की कमी और संप्रग सरकार द्वारा लाए गए कानूनों में निहित उनके अधिकारों को कमजोर करके इन समस्याओं को और गंभीर बना दिया है। यह मोदी सरकार का गरीबों पर मौन प्रहार है। फिलहाल अमीर भारतीयों को छोड़कर सभी भारतीयों की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। आरबीआइ के उपभोक्ता सर्वेक्षणों के अनुसार अधिकांश लोगों को लगता है कि नवंबर 2019 से हर महीने आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है।

कन्याकुमारी से कश्मीर तक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान विभिन्न क्षेत्रों से संबंध रखने वाले लाखों भारतीयों ने गंभीर आर्थिक संकट को लेकर निराशा व्यक्त की। चाहे गरीब हो या मध्य वर्ग, ग्रामीण हो या शहरी सभी महंगाई, बेरोजगारी और घटती आय की तिहरी मार से परेशान हैं। मोदी जी और उनके मंत्रियों को यह सच्चाई नहीं दिख रही है। इस बजट में उन्होंने गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं के लिए फंडिंग को इतना कम कर दिया है, जितना एक दशक में नहीं हुआ।

बजट के चलते ग्रामीण मजदूरों के लिए अवसर कम होंगे, क्योंकि मनरेगा की फंडिंग एक तिहाई घटाई है। मजदूरी भी जानबूझकर बाजार दरों से कम रखी जा रही है और श्रमिक समय पर भुगतान पाने के लिए जूझ रहे हैं। बजट के कारण स्कूल संसाधनों की कमी से जूझते दिखेंगे। सर्व शिक्षा अभियान के लिए फंडिंग लगातार तीन साल तक एकसमान रहेगी। बच्चों के लिए पौष्टिक आहार की कमी होगी, क्योंकि मिड-डे मील की फंडिंग 10 प्रतिशत तक घटाई गई है। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत मिलने वाले पांच किलो मुफ्त अनाज को मनमाने ढंग से बंद करने के बाद से गरीबों को मिलने वाला राशन आधा हो गया है। इसी तरह अल्पसंख्यकों एवं दिव्यांगों के लिए योजनाओं और बुजुर्गों के लिए पेंशन के लिए भी कम राशि आवंटित की गई है। इसके अलावा, पिछले चार वर्षों में मूल्य वृद्धि के कारण प्रत्येक रुपया 2018 की तुलना में लगभग एक चौथाई मूल्य का रह गया है। अपर्याप्त फंडिंग और बढ़ती महंगाई का यह खतरनाक जोड़ सीधे-सीधे गरीब, वंचित और बेसहारा लोगों को नुकसान पहुंचाने वाला है।

भारी संकट के इस दौर में सामाजिक योजनाओं पर ऐसी स्ट्राइक की क्या आवश्यकता थी? प्रधानमंत्री इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। यदि हम इसके अर्थ को समझने का प्रयास करें तो पता चलता है कि ऐसा पूंजीगत व्यय की फंडिंग के लिए किया गया है, जिसे बजट में बहुत अधिक बढ़ाया गया है। बेशक, भारत को हाईवे, रेलवे, बंदरगाहों और बिजली की जरूरत है, लेकिन मानव विकास की कीमत पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए फंडिंग गलत कदम है। सामाजिक कार्यक्रम सीधे-सीधे लोगों को काम, भोजन, बेहतर शिक्षा, सस्ती स्वास्थ्य सेवा या उनके हाथों में कैश प्रदान करके उनका जीवन सुधारते हैं। बड़ी लागत वाली परियोजनाओं पर होने वाले खर्च अंततः लोगों तक ही पहुंचेंगे, ऐसी किसी उम्मीद के बजाय लोगों की सीधे मदद करना उन्हें राहत देने के लिए कहीं बेहतर और प्रभावी प्रक्रिया है। सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य में भारी कटौती गरीब लोगों को चोट पहुंचाने और भविष्य की हमारी प्रगति को अवरुद्ध करने वाली है। स्मरण रहे कि स्वस्थ और शिक्षित आबादी ही समृद्धि की नींव है।

कई आवश्यक योजनाओं की फंडिंग घटाकर सरकार न केवल गरीबों से पैसा छीन रही है, बल्कि उनके अधिकार भी कमजोर कर रही है। संप्रग के दौर में शिक्षा, भोजन, काम और पोषण के कई अधिकार कानून में निहित थे। हमारी सोच यही थी कि अधिकारों की गारंटी देने वाले कानून सरकारी योजनाओं से बहुत अलग होते हैं। अधिकार-आधारित कानून नागरिकों को उनकी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति में तो मदद करते ही हैं, उन्हें सरकार से अपने अधिकार मांगने के लिए सशक्त भी बनाते हैं। यह गरीब-कमजोर लोगों के लिए विशेष रूप से मददगार थे, क्योंकि संसद ने उन्हें दैनिक आजीविका के लिए उनके संघर्ष में कानून के रूप में ये शक्तिशाली उपकरण दिए थे। वस्तुत: संप्रग के अधिकार-आधारित कानून संविधान के समानता और न्याय के वादे को मूर्त रूप देने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम थे।

प्रधानमंत्री मोदी के दिल में गरीब और कमजोर नागरिकों के अधिकारों के प्रति तिरस्कार का भाव समय-समय पर दिखता रहा है। उन्होंने गरीबों की योजना का संसद में मजाक उड़ाया था। यह बजट भी गरीब और मध्य वर्ग की कीमत पर अपने कुछ अमीर दोस्तों को लाभ पहुंचाने की प्रधानमंत्री की पसंदीदा नीति को दर्शाता है। कोविड के दौरान जब करोड़ों भारतीयों की आय में गिरावट आई तो कुछ अरबपति लाखों करोड़ रुपये बनाकर दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों की सूची में शामिल हो गए। बंदरगाहों और हवाई अड्डों जैसे महत्वपूर्ण इन्फ्रास्ट्रक्चर को सस्ते में बेचकर प्रतिस्पर्धी पूंजीपतियों को वापस लेने या बेचने के लिए दबाव डालकर और एलआइसी तथा एसबीआइ जैसे सार्वजनिक संस्थानों को निवेश के लिए मजबूर करके मोदी जी ने ऐसा करने में मदद की।

अब मोदी जी के सबसे पसंदीदा पूंजीपति पर गंभीर आरोप लग रहे हैं और करोड़ों भारतीयों की मेहनत की कमाई पर खतरा मंडरा रहा है। हर मुद्दे पर खुलकर बात करने वाले मोदी जी खामोश हैं और संसद में बहस को रोक रहे हैं। अपने कुछ अमीर दोस्तों को लाभ पहुंचाने की प्रधानमंत्री की नीति ने लगातार आर्थिक आपदाओं को जन्म दिया है। चाहे वह छोटे कारोबारों को नुकसान पहुंचाने वाली गलत ढंग से बनी जीएसटी व्यवस्था हो, नोटबंदी हो, तीन कृषि कानूनों को लाने का विफल प्रयास हो या फिर कृषि क्षेत्र की उपेक्षा हो। विनाशकारी निजीकरण ने बेशकीमती राष्ट्रीय संपत्ति को चुनिंदा निजी हाथों को सस्ते में सौंप दिया, जिससे बेरोजगारी बढ़ रही है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग विशेष रूप से रोजगार के लिए परेशान हैं। क्या यही वह ‘अमृतकाल’ है, जिसका मोदी जी चाहते हैं कि हम उत्सव मनाएं?

(लेखिका कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष हैं)