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सौ साल का सुनहरा सफर

[भारतीय सिनेमा के सौ साल के गौरवशाली इतिहास पर प्रकाश डाल रहे हैं माइक पांडे] 1

By Edited By: Published: Fri, 30 Nov 2012 09:44 AM (IST)Updated: Fri, 30 Nov 2012 09:45 AM (IST)
सौ साल का सुनहरा सफर

[भारतीय सिनेमा के सौ साल के गौरवशाली इतिहास पर प्रकाश डाल रहे हैं माइक पांडे]

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1913 की बात है। यह साल भारत में सिनेमा के लिए क्रांतिकारी रहा, जब दादा साहब फाल्के ने मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई। राजा हरिश्चंद्र भले ही भारत की पहली फीचर फिल्म हो, लेकिन देश में सिनेमा जुलाई 1891 में ही पहुंच गया था, जब ल्युमियर ब्रदर्स अपनी गतिशील तस्वीरें भारत लाए। इसके बाद ही हीरालाल सेन ने 1898 में 'फ्लॉवर ऑफ पर्शिया' नाम की लघु फिल्म का प्रदर्शन किया। 14 मार्च, 1931 को सिनेमा की चुप्पी टूटी और अरदेशिर इरानी की पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' आई। एचएम रेड्डी की भक्त प्रह्लाद और कालिदास जैसी फिल्मों ने देश में सिनेमा का जादू फैलाया। फिर 1937 में पहली रंगीन फिल्म बनी 'किसान कन्या'। आज एक शताब्दी के बाद भारतीय फिल्म उद्योग दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाता है। 1000 रुपये के राजस्व से शुरू हुआ यह सफर 2011 तक 93 अरब रुपये तक पहुंच चुका था। देश या दुनिया भले ही आर्थिक मंदी से जूझ रहे हों, लेकिन तेजी से बढ़ता मीडिया और मनोरंजन उद्योग 12 फीसद से अधिक की रफ्तार से फलता-फूलता रहा। विकास की यह कहानी जारी है। केपीएमजी की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक 2016 तक यह उद्योग औसतन 15 फीसद की दर से बढे़गा।

भारतीय फिल्मों और फिल्मकारों का दुनिया में डंका बज रहा है। अत्याधुनिक तकनीक और खुले वैश्विक बाजार की उपलब्धता ने भारतीय सिनेमा को वैश्विक फलक पर नई पहचान दिलाई। अपने 100 साल के इतिहास के दौरान भारत के सिनेमा ने देश के लोगों के बीच की दूरी घटाई है। इसने अपनी एक वैश्विक भाषा बनाई, जिसमें भारत की विविधता झलकती है और सिनेमा ने इसका उत्सव मनाया। सिनेमा ने एक व्याकरण और तकनीक प्रदान की, लेकिन कहानी और इसका सौंदर्यशास्त्र भारतीय संस्कृति में ही निहित रहा। सत्यजीत रे, रित्विक घटक, बिमल रॉय, के आसिफ, अदूर गोपालकृष्णन, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी और मणी कौल ने अपनी प्रतिभा से विश्व सिनेमा का ध्यान खींचा। उन्होंने देश के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश और जीवन की सादगी को दिखाया। इनके जैसे भविष्य दृष्टाओं ने ही भारतीय सिनेमा के प्रति दुनिया का नजरिया बदला। सत्यजीत रे को 1992 में ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बदलते वक्त के साथ देवदास, मदर इंडिया, श्री 420 और दो बीघा जमीन जैसी कालजयी फिल्में दुनिया ने देखी। इस दौरान नई तकनीक का भी इस्तेमाल होने लगा। आजादी के बाद भारतीय सिनेमा में भी नया सवेरा हुआ। अंदाज, प्यासा, कागज के फूल, तीसरी मंजिल, काला पानी, चौदहवीं का चांद, आवारा, दोस्ती और मुगले आजम जैसी फिल्में इसके स्वर्ण काल की मिसाल हैं। गाइड और पड़ोसन से शुरू हुई नई तकनीक के इस्तेमाल के बाद शोले, आनंद, मेरा नाम जोकर, जंजीर, आंधी, कर्ज, सिलसिला, अर्थ, मासूम, रोजा, उत्सव और पुष्पक सरीखी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा क्रांति के नए युग को आकार दिया।

आर्ट सिनेमा, बदलता आर्थिक परिवेश, पेशेवर प्रशिक्षण कोर्स, राष्ट्रीय पुरस्कार, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव, सिनेमा क्लब और अब इंटरनेट, डिजिटल तकनीक, पीवीआर, डोल्बी साउंड, एनिमेशन, घरेलू एनिमेशन, एनआइडी और अन्य डिजाइन स्कूल, सूचना तकनीक उद्योग युवा प्रतिभाओं को संवारने का काम कर रहे हैं। ड्रीम व‌र्क्स, सोनी पिक्चर्स और वाल्ट डिज्नी स्टूडियो सरीखे वैश्विक प्रोडक्शन हाउस अपेक्स एंटरटेन्मेंट, शो बॉक्स और दूसरे अंतरराष्ट्रीय वितरकों के साथ मिलकर भारतीय परियोजनाओं में निवेश कर रहे हैं। यह इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया भारतीय सिनेमा की इसी शताब्दी का उत्सव मनाते हुए अंतिम चरण की ओर बढ़ रहा है। मुख्यधारा की फिल्मों के नायक सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि जापान, रूस सहित पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में लोकप्रिय हैं। राजकपूर को लोग रूस और अफगानिस्तान में अब भी याद करते हैं। मैं जितने लोगों से मिला वे 'मेरा जूता है जापानी..' आज तक गुनगुनाते हैं। रितुपर्णो घोष की फिल्में दहन, अंतर्महल, जस्ट अनॉदर लव स्टोरी और अनुराग कश्यप की गैंग्स ऑफ वासेपुर सिनेमा की नई शैली को आकार दे रही हैं। ऐसी शैली जिसमें सादगी है, यथार्थ का पुट है, जो जिंदगी के करीब है और जो कुल मिलाकर एक प्रभावशाली विचारोत्तेजक सिनेमा को जन्म देती है। साहसी और असाधारण थीम पर बनी विकी डोनर और थ्री इडियट्स जैसी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस की घंटियां बजाने का काम किया और युवा प्रतिभाओं के लिए नए विचारों के साथ प्रयोग करने की राह प्रशस्त की है।

इन सौ सालों के दरमियान समय पंख लगाकर उड़ा है। तब और अब की सिनेमा तकनीक तक में बड़ा फर्क आ गया है। स्मोकिंग आर्क लाइट, बड़े-बड़े प्रोजेक्टर, 40 फीट की ऊंचाई पर कैटवॉक करते लाइटबॉय, शोर करती एडिटिंग मशीनें सब कुछ तो बदल गया है। 35/16 एमएम के साउंड टेप इतिहास में दफन हो चुके हैं। आज हर रचनात्मक कहानीकार अपनी कल्पना और फंतासी को डिजिटल और कंप्यूटर संचालित तकनीक के जरिये ही जीवन प्रदान करता है। लाइटिंग, बैकग्राउंड और बहुआयामी दृश्यों के जरिये कहानी कही जाती है। आज डिजिटल प्रोजेक्शन सिस्टम, बिना टेप वाले 3डी कैमरे और कम कीमत पर उपलब्ध तकनीक ने सिनेमाई ढांचे को बदल दिया है। इस डिजिटल तकनीक ने सिनेमा में एक और क्रांति का बिगुल फूंकने के साथ ही फिल्म निर्माण और कहानी कहने की कला को दुनियाभर में बदल दिया है। भारतीय फिल्म उद्योग ने भी सिनेमा के इतिहास, डिजिटल प्रसार और सिनेमा की विकास यात्रा में बदलाव के इस मोड़ पर अपना योगदान दिया है। और यह सिर्फ एक शुरुआत भर है।

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