[ अभिषेक कुमार सिंह ]: हमारा सबसे करीबी खगोलीय पड़ोसी चांद ही है। ब्रह्मांडीय खोज की हमारी यात्रा में यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हो सकता है। इस नजरिये से देखें तो शुक्रवार यानी 6 सितंबर, 2019 की रात रोबोटिक लैंडर से संपर्क टूट जाने पर इतिहास रचने से महज दो कदम दूर रह गए चंद्रयान-2 की आंशिक नाकामी इसरो और हमारे देश के लिए एक तात्कालिक झटका है। अगर चंद्रयान के ऑर्बिटर से अलग हुए लैंडर विक्रम की चांद के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक लैंडिंग हो जाती तो भारत यह उपलब्धि पाने वाला पहला देश बन जाता, क्योंकि दक्षिणी ध्रुव पर अब तक किसी देश का कोई यान, लैंडर या रोवर नहीं पहुंचा है।

चंद्रयान-2 की 5 फीसद नाकामी से मायूसी का आलम

बेशक बीते 11 वर्षों की मेहनत और करीब 950 करोड़ रुपयों की लागत से बने चंद्रयान-2 की 5 फीसद नाकामी से मायूसी का आलम है, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इसरो और इस संगठन के मुखिया के. सिवन को मिली सांत्वना इसका साफ संकेत है कि हमारे अंतरिक्ष अभियानों में कोई अड़चन नहीं आने वाली है। बात चाहे गगनयान से तीन भारतीयों को स्पेस में भेजने की हो, नया मंगल मिशन रवाना करने की हो या सूर्य के करीबी अध्ययन के लिए यान के प्रक्षेपण की हो, इन सारे मिशनों को सरकार का सहयोग और जनता का समर्थन आगे भी मिलता रहेगा।

चंद्रयान-2 मिशन नाकाम

सफलता-असफलता के तराजू पर चंद्रयान-2 को तौलना चाहें तो कह सकते हैं कि यह मिशन अपने अंजाम तक पहुंचने में नाकाम रहा। विक्रम लैंडर की चंद्र सतह पर सफल लैंडिंग के बाद उससे निकलने वाले रोवर प्रज्ञान से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के बारे में वे जानकारियां हमें मिल सकती थीं, जो चांद को भावी दूरस्थ स्पेस मिशनों के पड़ाव के रूप में इस्तेमाल और वहां पानी समेत अन्य उपयोगी खनिजों की मौजूदगी का कोई संकेत हमें देतीं। हालांकि चंद्रयान-2 का ऑर्बिटर एक साल तक कुछ वैसी ही सूचनाएं और तस्वीरें हमें भेज सकता है, जैसे कभी चंद्रयान-1 ने भेजी थी और जिनसे चंद्रमा पर पानी की उपस्थिति के पुख्ता संकेत मिले थे। हमें यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि चांद के करीब पहुंचना और उसकी सतह पर उतरना, दो अलहदा बातें हैं और चंद्रमा पर उतरकर वहां प्रयोग करना ज्यादा महत्वपूर्ण है, पर अभी भी यह अभियान जिस अहम पड़ाव तक पहुंचा है, उसके भी कुछ कम मायने नहीं हैैं।

चंद्रयान के प्रक्षेपण से पहले कई मुश्किलें आईं

ध्यान रहे कि 22 जुलाई, 2019 को चंद्रयान के प्रक्षेपण से पहले इसकी राह में कई मुश्किलें भी आईं। एक अहम बाधा इसी वर्ष 15 जुलाई को तब आई जब श्रीहरिकोटा से उड़ान भरने से ऐन पहले चंद्रयान-2 को लेकर जा रहे ‘बाहुबली’ रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 का प्रक्षेपण रोक दिया गया। दावा किया गया कि इस रॉकेट के स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन में प्रेशर लीक हो रहा था। लांच के लिए जितना दबाव होना चाहिए था, वह बन नहीं पा रहा था, बल्कि लगातार घट रहा था। ऐसे में मिशन टालने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा था।

इसरो के खाते में दर्ज कुछ नाकामियां

थोड़ा पीछे लौटें तो इसरो के खाते में दर्ज कुछ और नाकामियां नजर आती हैं। जैसे 29 मार्च, 2018 को स्पेस में छोड़े गए उपग्रह जीसैट-6ए का पावर सिस्टम फेल हो गया था, जिससे खुद को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने के अंतिम चरण में पहुंचे उस उपग्रह का इसरो से संपर्क टूट गया था। उससे पहले वर्ष 2017 में पीएसएलवी यानी पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल का प्रक्षेपण असफल हो गया था। बेशक नाकामियों का इधर एक सिलसिला बना है। एक के बाद एक लगातार सफल प्रक्षेपणों के बल पर इसरो जिस हौसले से काम करता रहा है, ये असफलताएं उसके मनोबल पर असर डालने वाली साबित हो सकती हैं और क्वालिटी कंट्रोल के उसके दावे को संदिग्ध बना सकती हैं। चंद्रयान-2 के लैंडर की नाकामी के बाद इसरो अध्यक्ष के. सिवन की हताशा इसे जाहिर करती है, लेकिन कहना होगा कि दुनिया का कोई देश इससे बचा नहीं है।

चंद्रमा को छूने की होड़

तथ्य बताते हैं कि बीते 60 वर्षों में जबसे चंद्रमा को छूने की होड़ पैदा हुई है, अमेरिका, रूस, चीन, जापान, इजरायल, यूरोपीय यूनियन के सौ से ज्यादा अभियानों में से 40 फीसद नाकाम रहे हैं। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के आंकड़े के मुताबिक छह दशकों में 109 चंद्र अभियान भेजे गए, जिनमें से 61 नाकाम और 48 कामयाब रहे। यही नहीं, दुनिया भर के 50 फीसद से भी कम मिशन हैं जो सॉफ्ट लैंडिंग में कामयाब रहे हैं। फरवरी 2018 में शुरू किया गया इजरायल का चंद्र मिशन भी इस साल अप्रैल में नष्ट हो गया था। अमेरिका को भी इसमें कई असफलताएं झेलनी पड़ी हैं। वर्ष 1958 में उसके पहले चंद्र मिशन की योजना नाकाम हो गई थी, क्योंकि रॉकेट पायनियर का लांच असफल रहा था। इसी तरह रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) को लूना-1 के रूप में चंद्र मिशन की सफलता उससे पिछले छह मिशनों की नाकामी के बाद मिली थी।

ऑर्बिटर अपनी जिम्मेदारी निभाएगा

ऐसी स्थिति में देखें तो चंद्रयान-2 के ऑर्बिटर का सही-सलामत होना और काम करते रहना भी काफी महत्वपूर्ण है। चंद्रमा पर पानी की खोज का जो काम इस मिशन से किया जाना था, वह मुख्य रूप से ऑर्बिटर के ही जिम्मे है। लिहाजा इससे मिलने वाले डाटा से इसरो को कई अहम और जरूरी सूचनाएं अवश्य मिलेंगी। चांद की सतह पर जाकर वहां की मिट्टी और चट्टानों का विश्लेषण अब भले न हो सके, लैंडर विक्रम और रोवर प्रज्ञान से चांद की सतह की सेल्फियां अब भले न आ सकें, लेकिन मून मैपिंग का काम चंद्रयान-2 का ऑर्बिटर बखूबी करता रह सकता है।

ऑर्बिटर कई अहम सूचनाएं भेजेगा

ऑर्बिटर में चंद्रमा की बाहरी परिधि का अध्ययन करने के लिए आठ उपकरण मौजूद हैं। ये उपकरण कई अहम सूचनाएं इसरो को उपलब्ध कराएंगे। यही नहीं, अगर लैंडर-रोवर के सही-सलामत होने की कोई स्थिति बनी और उनसे भविष्य में संपर्क बन सका तो ऑर्बिटर के जरिये चंद्र-सतह के डाटा और तस्वीरें मिलने की भी सूरत बन सकती है।

इसरो की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आएगी

बहरहाल यह स्पष्ट है कि चंद्रयान की आंशिक नाकामी का जो कुछ असर होगा, वह बहुत क्षीण होगा और इससे इसरो की प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आएगी। पूरी दुनिया समझती है कि अंतरिक्ष में यान-उपग्रह छोड़ना और उन्हें किसी कक्षा में स्थापित करना या खगोलीय पिंडों पर उतारना अत्यधिक जोखिम वाला काम है। ऐसे में चंद्रयान-2 की 95 प्रतिशत कामयाबी हमारे लिए बड़ी राहत और उत्साह बढ़ाने वाली बात है। हमें इसका जश्न मनाना चाहिए।

( लेखक संस्था एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध हैं )