आत्मचिंतन
प्रत्येक व्यक्ति का जब कर्मबंधन शेष रह जाता है तो वह अपने कर्मो के भुगतान के लिए पुन: जन्म लेता है। प्रत्येक क्षण सावधानीपूर्वक उस आनंद के घनस्वरूप सृष्टि कर्ता को पहचानें तथा अंतर्मन से विचार करें कि हम कहीं पर अपने लक्ष्य में असावधानी तो नहीं कर रहे हैं, क्योंकि असावधानी हमें लक्ष्य से भटकाती है। व्यक्ति अपने स्वार्थ और लालच में अपने लक्ष्य को भूल जाता है और उसे माता-पिता बंधु बांधव सभी शत्रुवत दिखाई देते हैं।
जैसे असावधानी में एक गेंद सीढ़ी पर गिरती है तो वह ऊपर की ओर नहीं, बल्कि सीढ़ी दर सीढ़ी नीचे चली जाती है और अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर पाती इसी प्रकार यह मन एक बार असावधानी में भटका तो नित्य भटकता ही है। वह आत्मस्वरूप को पहचान नहीं पाता, धीरे-धीरे अध:पतन करता है। वह नाश की ओर जाता है तथा अज्ञानी की संज्ञा में आता है। जो व्यक्ति आत्मचिंतन, आत्मशोधन व नित्य आत्मा रूपी गोमुख से निकली हुई ब्रšा ज्ञान रूपी सुरसरि में स्नान करता है, अपने कलुषों को धोता है तथा अपने आपको ब्रšा में समाहित करते हुए आत्मसिद्धि प्राप्त करता है। उसकी सावधानी उसे परम पद प्रदान करती है।
आत्मज्ञान के लिए निश्चित रूप से संयम जरूरी है। संपूर्ण शक्तिमान में समाहित व्यक्ति आत्मशोधन करके आत्मसिद्धि प्राप्त करता है। एक बार बोला झूठ जिस प्रकार सैकड़ों झूठों की गणना में आता है और उसकी कालिमा झूठे व्यक्ति के रूप में होती है इसी प्रकार पथ से विचलित व्यक्ति प्रयास के उपरांत अपने को संभालने में अक्षम होता है। विषयों में फंसा व्यक्ति यदि चिंतन करता है और आत्मबोध नहीं कर पाता तो वह उन्हीं दो नौकाओं में चढ़े व्यक्ति के समान है, जो किसी का सहारा न पाकर डूब जाता है। सैकड़ों कुएं अपर्याप्त दूरी तक बनाने में व्यक्ति प्यासा ही रहता है। अधूरे बने कुएं से जल प्राप्ति का विचार करना दिन में नक्षत्रों को खोजने का प्रयास है।
[आशा द्विवेदी]
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