संप्रग-दो के शासन काल में मनमोहन सिंह की दुखदायी निष्क्रियता ने जिस हताशा-निराशा का माहौल पैदा कर रखा था, उससे मोदी की राजग सरकार ने हमें निजात दिलाई है। विश्व भर में भारत की गंवाई साख फिर से स्थापित की जा चुकी है।

खिसियाए कांग्रेसी यह शोर मचाते रहें कि हमारे प्रधानमंत्री 'एनआरआइ' प्रवासी पीएम हैं हकीकत यह है कि चालीस देशों का ताबड़तोड़ दौरा कर मोदी ने देश के दलदल में फंसे राजनय को जानलेवा कीचड़ से निकाल अनेक विकल्प तराशे हैं। वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ आत्मीयता के प्रदर्शन से बहुतेरे विपक्षी खिन्न हैं परंतु सच्चाई यह है कि चीन के शी हों या जापान के अबे, सऊदी अरब के शाह हों या ईरान के रूहानी- अनेक ऐसे नेताओं के साथ मोदी ने गतिरोध तोड़कर संवाद आरंभ किया है जिससे किसी एक दोस्ती का बंधक

भारत नहीं बन सकता। पड़ोस में पाकिस्तान के साथ तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद बातचीत जारी रही है पर

मोदी सरकार की नजर सिर्फ उसी पर नहीं टिकी रही है।

बांग्लादेश, श्रीलंका तथा म्यांमार और अफगानिस्तान, भूटान किसी को यह महसूस नहीं होने दिया गया

है कि उसकी उपेक्षा हो रही है। फ्रांस पर आतंकवादी हमले के तत्काल बाद मोदी पहुंचे और अपनी दिलेरी से सब को प्रभावित किया। इस मौके का लाभ उठाकर उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त मोर्चा गठित करने पर तो जोर

दिया ही पर्यावरण के प्रदूषण की विकट समस्या पर भारत के नजरिए को भी रेखांकित किया। कनाडा हो या बेल्जियम (जहां यूरोपीय समुदाय का मुख्यालय है) मोदी ने एकाग्रचित्त होकर भारत के राष्ट्रहित को आगे बढ़ाया है। वह जहां कहीं भी गए वहां प्रवासी भारतीयों में अद्भुत उत्साह का ज्वार उफान पर आया। सभी भारतीयों को यह लगा कि उनका आत्मसम्मान उन्हें वापस लौटाया जा रहा है। मोदी ने संयुक्त राष्ट्र की बैठकों को प्रभावशाली तरीके से संबोधित किया और जी-20 जैसे जमावड़ों में शिरकत की। इन दौरों ने न केवल विश्व भर में उदीयमान भारत की 'छवि' का निर्माण किया वरन भारत की क्षमता और संभावना के बारे में दोबारा सोचने के लिए उन सभी को प्रेरित किया जो मनमोहन सिंह के शासनकाल में खस्ताहाल भारत को खारिज कर चुके थे।

हाथ फैला सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की भिखमंगी तोता रटंत की जरूरत आज नहीं रह गई है। भारत की पदचाप की धमक साफ महसूस की जा सकती है।

यह जोडऩे की जरूरत है कि अगर इस सरकार ने आंतरिक राजनीति के मोर्चे पर जगजाहिर कामयाबी हासिल नहीं की होती तो निरंतर गतिशील राजनय सफल नहीं हो सकता था। संप्रग के दस वर्षों में दैत्याकार भ्रष्टाचार की चपेट में पूरी अर्थ व्यवस्था थी। विदेशी पूंजी निवेशक यह शिकायत करने लगे थे कि भारत का माहौल पूंजी निवेश

के अनुकूल नहीं। इस भ्रष्टाचार की वजह से आधारभूत ढांचे में मनोवांछित सुधार नहीं हो पा रहा था। कुनबापरस्त वंशवादी राजनीति में न्यस्त स्वार्थ ही पनप सकते थे राष्ट्रहित नहीं। मोदी के अब तक के दो साल में केंद्र सरकार पर एक भी दाग नहीं लगाया जा सका है। सड़क परिवहन हो या रेल, ऊर्जा हो या दूर संचार, पर्यावरण हो या जनकल्याण प्रगति साफ नजर आती है।

पीयूष गोयल, सुरेश प्रभु, नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह आदि मंत्री ऐसे हैं जो अपने कामकाज के प्रचार के लिए विज्ञापनों के मोहताज नहीं। मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी विवादों से बचने कतराने की कोशिश नहीं करतीं, पर उनके विभाग की जिम्मेदारी केंद्रीय विश्व विद्यालयों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निरापद रखने तक सीमित नहीं। प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा तथा पेशेवर प्रशिक्षण भी इसी मंत्रालय का काम है। यहां भी यह याद दिलाने की जरूरत है कि कपिल सिब्बल की लाल बुझक्कड़ी ने शिक्षा के साथ जो खिलवाड़ किया था उसकी क्षतिपूर्ति पलक झपकते नहीं हो सकती। अंत में, यह याद रखें कि भारत की संघीय व्यवस्था में असम, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, केरल, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य भाजपा शासित नहीं रहे हैं।

संसद में विपक्ष का रवैया अडंग़े डालते रहने वाला ही रहा है। जो कुछ हासिल किया जा सका है वह इस प्रतिरोध के बावजूद ही हो सका है। काम अभी बहुत बाकी है- खेतीबाड़ी के क्षेत्र की उन्नति, नए रोजगार के अवसर पैदा

कराने और मंहगाई पर रोक। अगले तीन साल तक इस सरकार को कमर कसकर डटकर काम करते रहना होगा। चिंता इस बात की है कि अनेक महत्वपूर्ण राज्यों में विधान सभा चुनावों की 'प्राथमिकता' लक्ष्यपूर्ति में बाधा डाल सकती है।

प्रो पुष्पेश पंत

(स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू)