[डॉ. श्रीरंग गोडबोले] कौन थे वे लोग जिन्होंने खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व किया? इस्लाम और अखिल-इस्लामवाद का पाठ वे कहाँ से पढ़े थे? उनके अलग-अलग रास्तों ने उन्हें एक सामान्य लक्ष्य तक कैसे पहुंचाया? प्रथम विश्व युद्ध से लेकर खिलाफत आंदोलन (1919-24) तक की घटनाओं को समझने के लिए इसके प्रमुख प्रवर्तकों की पृष्ठभूमि जानना महत्वपूर्ण है।

फिरंगी महल

फिरंगी महल (फ्रैंक्स/यूरोपियों का महल) पुराने लखनऊ का क्षेत्र था, जो औरंगजेब के समय से इस्लामी शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित हुआ। यहीं पर दर्स-ए-निजामिया (इसके संस्थापक मुल्ला निज़ामुद्दीन के नाम पर) का विकास हुआ, जो भारत के मदरसों का बुनियादी इस्लामी पाठ्यक्रम था। मुल्ला निजामुद्दीन के वंशज मौलाना अब्दुल बारी (1879-1926) ने हिजाज जाने से पहले फिरंगी महल में अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। हिजाज में उन्होंने हुसैन इब्न अली के साथ मित्रता विकसित की, जो बाद में मक्का के शरीफ और हिजाज के राजा बने। 1908 में भारत लौटने से पहले मौलाना बारी ने ऑटोमन साम्राज्य में बड़े पैमाने पर यात्रायें की। 1911 में उन्होंने रेड क्रिसेंट मेडिकल मिशन के लिए सक्रिय रूप से धन एकत्र किया और इस तरह पश्चिमी प्रभाव वाले अली बंधुओं और डॉ अंसारी के संपर्क में आए। 1912 में वह एमएच किदवई के प्रभाव में आये। उन्होंने 1913 में अली भाइयों के साथ अंजुमन-ए-खुद्दाम-ए-काबा की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद में अली-बंधु उनके शागिर्द बन गए। अंजुमन का उद्देश्य काबा और अन्य इस्लामी पवित्र स्थानों का सम्मान बनाए रखना और उन्हें गैर-मुस्लिम आक्रामकता से बचाना था। इसके प्रमुख सदस्यों में डॉ. अंसारी और हकीम अजमल खान भी थे।

धार्मिक वर्चस्व और इस्लाम की रक्षा

1919 में जमीयत-उल- उलेमा -ए-हिंद (अनु. भारत के उलेमा का संघ) की स्थापना में मौलाना बारी ने प्रमुख भूमिका निभाई। वह केंद्रीय खिलाफत समिति के संस्थापक सदस्य थे। 1921 तक उन्हें हिंदुओं के साथ एकता पर सख्त आपत्ति थी, क्योंकि वे इसे मुस्लिम समुदाय के लिए हानिकारक मानते थे (खिलाफत मूवमेंट इन इंडिया 1919-1924, मुहम्मद नईम कुरैशी, लंदन विश्वविद्यालय के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध, 1973, पृ.58)। मौलाना बारी ने उलेमा और पश्चिमी मुस्लिम नेताओं के बीच सेतु का काम किया। उन्होंने महसूस किया कि “जब तक उलेमा राजनीति की बागडोर अपने हाथों में नहीं लेते हैं और सत्ताधारियों तक अपनी आवाज को पहुँचाने में सफल नहीं होते, तब तक उन्हें अपना धार्मिक वर्चस्व बनाये रखने में कठिनाई रहेगी। इसके अलावा इस्लाम की रक्षा जैसे उच्च उद्देश्यों की पूर्ति केवल एक सपना बनकर रह जाएगा”(कुरैशी, उक्त, पृ.303)।

स्वजात नेता

उक्त मतों और धारणाओं से परे कुछ नेता ऐसे भी थे जो एक पैटर्न में फिट नहीं होते हैं। ऐसे 'स्वजात' नेताओं का उत्कृष्ट उदाहरण मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (1888-1958) थे। उनका जन्म मक्का में हुआ और उनकी माँ एक अरब महिला थीं। उनका प्रारंभिक अध्ययन कलकत्ता में उनके घर में दर्स-ए-निज़ामिया पाठ्यक्रमानुसार हुआ और फिर उन्होंने लखनऊ में नदवात-उल-उलेमा में भी अध्ययन किया। शुरुआती दिनों में वे सर सैय्यद अहमद के लेखन से अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने अनेक उर्दू अखबारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन और संपादन किया जैसे- लिसान-उस-सादिक (1904), अन-नदवा (1905-06), वकील (1907), अल-हिलाल (1912) और अल-बलाघ (1913)। वर्ष 1913 में आज़ाद मुस्लिम लीग में शामिल हो गए और 1919 में मौलाना हुसैन अहमद मदनी के साथ जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई। आजाद ने उलेमा की कुरान पर आधारित मजहबी सुधारों और राजनीतिक गतिविधियों में भूमिका का समर्थन किया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सबसे युवा अध्यक्ष

आजाद एक अहंकारी व्यक्ति थे। उनकी अली-बंधुओं से कभी नहीं बनी। उनके लिए, शौकत अली बौद्धिक रूप से हीन थे, जबकि मुहम्मद अली को उन्होंने निजी बातचीत में मुंशी (क्लर्क) बताया था (मिनॉल्ट, उक्त, पृ.4)। 1923 में, 35 वर्ष की आयु में, वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कार्य करने वाले सबसे कम उम्र के व्यक्ति बन गए। उनके अखबार अल-हिलाल में तुर्की के समाचारों का सर्वाधिक कवरेज किया जाता था। बाल्कन युद्धों के दौरान आज़ाद ने अनेक तुर्क नेताओं का गुणगान किया। तुर्क रेड क्रॉस और रेड क्रिसेंट के लिए धन एकत्रीकरण के लिए लगातार अपीलें की और ‘कंडीशन्स इन द ओटोमन एम्पायर' नाम से एक नियमित कॉलम भी लिखते रहे।

इसके एक अंक में आज़ाद ने स्पष्ट रूप से कहा, "हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि तुर्क खलीफा इस्लाम के पवित्र स्थानों का संरक्षक है, और यह कि तुर्की के लिए समर्थन, इस्लाम के समर्थन के समान है"(मिनाल्ट, उक्त, पृ. 43)। आजाद के लिए हंबली न्यायिक प्रणाली के कट्टरपंथी विद्वान इब्न तैमियाह (1263-1328) हमेशा महानायक थे। उन्हीं के प्रभाव के तहत, आज़ाद ने राजनीतिक जीवन में जिहाद और बौद्धिक जीवन में इत्तेहाद (एकीकरण) का प्रचार किया (आइडियोलॉजिकल इन्फ़्लुएनसेस ऑन अबुल कलाम आज़ाद, क़ाज़ी मोहम्मद जमशेद, प्रोसीडिंग्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, खंड 71, 2010-2011,पृ.665)। इब्न तैमियाह की ही शिक्षाओं ने बाद में वहाबीवाद और अल-कायदा जैसे संगठनों पर गहरा प्रभाव डाला।

जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद

जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद की स्थापना खिलाफत आंदोलन के चलते नवंबर 1919 में हुई थी। यह विभिन्न इस्लामिक न्यायिक स्कूलों से संबंधित उलेमा की संस्था के रूप में शुरू हुआ, लेकिन समय के साथ यह देवबंदी उलेमा के प्रभुत्व में आ गया। आज भी इसे एक राष्ट्रवादी मुस्लिम निकाय के रूप में माना जाता है, जिसने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया और बाद में पाकिस्तान की मांग का विरोध किया। मौलाना आज़ाद केंद्रीय खिलाफत समिति और जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद दोनों के प्रमुख सदस्य थे।

इसके संविधान में दिए गए उद्देश्य और लक्ष्य इसके वास्तविक स्वरूप को उजागर करते हैं -

1. राजनीतिक और गैर-राजनीतिक मामलों में इस्लाम के अनुयायियों का मजहबी दृष्टिकोण से मार्गदर्शन करना।

2. शरीयत के आधार पर इस्लाम, उसके केंद्र (जज़ीरात-उल-अरब और खिलाफत की पीठ), इस्लामी रीति-रिवाज और इस्लामी राष्ट्रीयता को नुकसान पहुँचाने वाले संकटों से बचाये रखना।

3. मुस्लिमों के सामान्य मजहबी और राष्ट्रीय अधिकारों को प्राप्त करना और उनकी रक्षा करना।

4. एक मंच पर उलेमा को संगठित करना।

5. मुस्लिम कौम को संगठित करना और उसके नैतिक और सामाजिक सुधार के लिए कार्यक्रम शुरू करना।

6. शरीयत-ए-इस्लामिया द्वारा अनुमत सीमा तक देश के गैर-मुस्लिमों से अच्छे व मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करना।

7. शरीयत के लक्ष्यों के अनुरूप देश की स्वतंत्रता और मजहब के लिए लड़ना।

8. कौम की मजहबी आवश्यकता पूरा करने के लिए ‘महाकिम-इ-शरियाह’ (शरिया अदालत) की स्थापना करना।

9. भारत और विदेशी भूमि में मिशनरी गतिविधियों के माध्यम से इस्लाम का प्रचार करना।

10. अन्य देशों के मुस्लिमों के साथ इस्लाम द्वारा निर्धारित एकता और भाईचारे के संबंध को बनाए रखना और उसे मजबूत करना (देवबंद स्कूल एंड द डिमांड फॉर पाकिस्तान, जिया-उल-हसन-फारुकी,एशिया पब्लिशिंग हाउस, 1963, पृ.68-69)।

तो ऐसे थे खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व करने वाले लोग! यह विचित्र तथ्य है कि कि वे अपनी पृष्ठभूमि में मतभेदों के बावजूद इस्लाम और मुस्लिम हितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में एकजुट थे। उनके लिए धर्मनिरपेक्ष भारतीय हित इस्लामी हितों के अधीन थे। भारत के लिए स्वतंत्रता या स्वशासन उनके लिए शायद ही मायने रखता था और जो बात मायने रखती थी वह थी तुर्की खलीफा की प्रतिष्ठा। हिंदुओं के साथ एकता और सहयोग उनके बड़े इस्लामी लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक साधन था। थियोडोर मॉरिसन(1863-1963) जो अलीगढ़ आंदोलन से जुड़े ब्रिटिश शिक्षाविद् थे, ने भारत में मुस्लिमों के बारे में यह कहा था, “राष्ट्रीयता की जो भावना उनमें है, उन्हें एक भूमि पर निवास करने वाले सिखों या बंगालियों से नहीं जोड़ती, बल्कि उनके मजहब के अनुयायियों से जोड़ती है, फिर चाहे वे अरब या फारस या भारत के सीमान्त क्षेत्रों में पाए जाते हो”(रूट्स ऑफ़ इस्लामिक सेपरेशन इन इंडियन सब कॉन्टिनेंट, ओम प्रकाश, प्रोसीडिंग्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, खंड -64, 2003, पृ.1053)।

खिलाफत आंदोलन की अवधि के दो नायक हैं जिनका उल्लेख किया जाना बाकी है - दोनों को बाद में उनके संबंधित राष्ट्रों के पिता के रूप में जाना जाने लगा। वे निश्चित रूप से, महात्मा गांधी और मुहम्मद अली जिन्ना हैं। उनके बारे में आगे !

(लेखक ने इस्लाम, ईसाइयत, समकालीन बौद्ध-मुस्लिम संबंध, शुद्धी आंदोलन और धार्मिक जनसांख्यिकी पर पुस्तकें लिखी हैं।)