[डॉ श्रीरंग गोडबोले]। खिलाफत आंदोलन (1919-1924) भारतीय मुस्लिमों के बीच उत्पन्न हुए एक तनाव का परिणाम था, जो प्रथम विश्व युद्ध के अंत में तुर्की ओटोमन साम्राज्य के विखंडन और तुर्की में खलीफा पद की समाप्ति की आशंका के परिणामस्वरूप प्रारम्भ हुआ था। खिलाफत आंदोलन की सर्वप्रमुख मांग खलीफा (शाब्दिक अर्थ उत्तराधिकारी, पूरे विश्व के मुस्लिमों के मजहबी और लौकिक प्रमुख) की पुनर्स्थापना थी। इस वर्ष खिलाफत आंदोलन के 100 वर्ष होने जा रहे हैं और अब भी ये आंदोलन कई विवादों को प्रेरित करता है। खिलाफत आंदोलन कोई अलग थलग ऐतिहासिक घटना नहीं थी। इसमें निश्चित रूप से मजहबी-किताबी स्वीकृति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी निहित थी। इसने हमारे स्वतंत्रता संग्राम को तो प्रभावित किया ही, अंतत: विभाजन की प्रक्रिया को भी तीव्र किया। खिलाफत आंदोलन की प्रतिध्वनि आज तक निरंतर है।

खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन

अधिकांश भारतीयों के लिए खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन में संबंध स्पष्ट नहीं हैं। पिछली कई पीढ़ियों से भारतीयों को बताया गया है कि असहयोग आंदोलन गांधी जी द्वारा 4 सितंबर1920 को शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य "स्व-शासन और पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना था। 21 मार्च 1919 के रॉलेट एक्ट और 13 अप्रैल 1919 के जालियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, ब्रिटिश सुधार प्रक्रिया से अलग हो गई।" यह विकिपीडिया द्वारा प्रदान की गई जानकारी है, जो अधिकांश आधुनिक शिक्षितों के लिए ज्ञान का भंडार है!

राजनीति दलों से जुड़े विचारकों का

राजनीतिक दलों से जुड़े विचारक जो स्वयं को इतिहासकार के रूप में प्रस्तुत करते हैं, भारतीय मानस को यही बताते रहे कि “गाँधी जी ने यह आशा की थी कि असहयोग आंदोलन और खिलाफत की माँग को साथ-साथ साथ मिलाने से भारत के दो प्रमुख समुदाय- हिन्दू और मुसलमान एक साथ मिलकर औपनिवेशिक शासन का अंत कर देंगे। इनआंदोलनों ने निश्चय ही ऐसा लोकप्रिय उभार पैदा कर दिया था, जो औपनिवेशिक भारत में बिलकुल अभूतपूर्व था।” (थीम्स इन इंडियन हिस्ट्री, भाग III, कक्षा 12 के लिए इतिहास की पाठ्य पुस्तक, एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित, पृ. 350)।

तथ्यों से परे कांग्रेस का आधिकारिक इतिहास

अगर कोई कांग्रेस के आधिकारिक इतिहास को पढ़ेगा, तो उसे तथ्यों से परे यह जानकारी मिलेगी कि असहयोग आंदोलन कांग्रेस का मौलिक विचार था, जिसका लक्ष्य स्वराज प्राप्ति था (द हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस, पट्टाभि सीतारमैय्या, सीडब्ल्यूसी, मद्रास, 1935, पृ. 334, 335)। यदि सत्य इतिहास की जननी है, तो इतिहासकार को यह जांचने की आवश्यकता है, कि क्या इतिहास से छेड़छाड़ की जा रही है! खिलाफत आंदोलन का बारीकी से लेकिन निष्पक्ष विश्लेषण आवश्यक है। जब समाज में एक झूठ पर आधारित विमर्श स्थापित हो जाता है तो सत्य भी उसमें दब जाता है। प्राय: यह विमर्श दलीय राजनीति से प्रेरित होते हैं। खिलाफत आंदोलन इसका कोई अपवाद नहीं है।

राजनीतिक विमर्श

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आधिकारिक वेबसाइट पर खिलाफत आंदोलन पर 25 अक्टूबर 2018 को एक लेख प्रकाशित किया गया। लेख में बताया गया, "खिलाफत आंदोलन भारत को ब्रिटिश राज से स्वयं को मुक्त कराने के लिए किये गए महत्वपूर्ण प्रयासों में से एक था। खिलाफत आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की देखरेख में हिंदुओं और मुस्लिमों का ब्रिटिश राज के विरुद्ध संयुक्त प्रयास था। यह सफलता तब और दृढ़ हुई जब महात्मा गांधी ने औपनेवेशिकों के विरुद्ध सामूहिक आक्रोश को मुखर करने के लिए, संयुक्त प्रयासों के तहत खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन को एक साथ लाने का निर्णय किया। महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदोलन को हिंदुओं और मुस्लिमों तथा उनके उद्देश्यों को उनके शोषण व वर्चस्व की एक समान सत्ता के खिलाफ, एक साथ लाने के एक शानदार अवसर के रूप में देखा। महात्मा गांधी ने स्वशासन के प्रस्ताव को, जिसे स्वराज के रूप में अधिक जाना जाता था, को खिलाफत से जुडी चिंताओं और मांगों के साथ जोड़ा और इन जुड़वां उद्देश्यों को पूरा करने के लिए असहयोग योजना को अपनाया। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच एकता के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण दृष्टान्तो में से एक, खिलाफत आंदोलन द्वारा प्रदान किया गया था। यह मुख्यत: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं और खिलाफत आंदोलन के नेताओं के आपस में जुड़ने के कारण हुआ था। हिंदू-मुस्लिम सहमति का परिदृश्य महात्मा गांधी के विचार के अनुरूप था कि ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता केवल तभी प्राप्त हो सकती थी, यदि हिंदू और मुस्लिम दोनों ने एक साथ काम किया और सामूहिक रूप से अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया (https://www.inc.in/en/in-focus/the-khilafat-movement-a-landmark-movement-in-indias-journey-to-freedom)।"

अकादमिक विमर्श

कुछ मिथ्य विमर्श इतिहासकारों द्वारा प्रचारित किए गए हैं, जो पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। स्कॉटिश इतिहासकार सर हैमिल्टन गिब (1895-1971) ने खिलाफत आंदोलन को बढ़ते हिंदू राष्ट्रवाद की एक प्रतिक्रिया बताया है। वह लिखते हैं, "दुनिया के सभी मुस्लिमों के बीच, भारत में ही इस्लाम के अंतर्राष्ट्रीय पहलू पर जोर दिया गया, लेकिन इसमें उनका उद्देश्य हिंदू राष्ट्रवाद के सामने एक रक्षात्मक रवैया अपनाना था" (विदर इस्लाम? ए सर्वे ऑफ मॉडर्न मूवमेंट इन द मॉस्लेम वर्ल्ड, 1932, रूटलेज, पृ. 73)। कभी-कभी, इतिहासकारों का विमर्श फूहड़ता के स्तर तक गिर जाता है। कनाडाई इस्लामी इतिहासकार विल्फ्रेड केंटवेल स्मिथ (1916-2000) उनकी पुस्तक ‘मॉर्डन इस्लाम इन इंडिया : ए सोशल एनालिसिस’ में लिखते हैं “खिलाफत शब्द का अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में एक अलग ही अर्थ है। लोगों ने सोचा कि 'खिलाफ' शब्द उर्दू से आया है, जिसका अर्थ 'विरुद्ध' या 'विरोध' है। इसलिए उन्होंने इसका मतलब सरकार के विरोध में लिया। वे हमेशा की तरह इस्लाम के प्रति तो जागरूक थे, लेकिन वे मुहम्मद और ओटोमन तुर्की साम्राज्य के बारे में शायद ही जानते थे” (पृ. 234)। डीजी तेंदुलकर ने ‘महात्मा : लाइफ ऑफ मोहनदास करमचंद गांधी’ (खंड 2, पृ. 47) में इस मूढ़ता को दोहराया। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा प्रकाशित और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा विमोचित, ‘सेंटेनरी हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस 1885-1985’ में भी यही बात दोहरायी गई है। यह आश्चर्य की बात नहीं कि इस खंड और ग्रंथावली के संपादक क्रमशः रविंद्र कुमार और बीएन पांडे थे। दोनों नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता सिद्धांत के अग्रणी थे!

खिलाफ आंदोलन - गांधीवादी रणनीति का परिणाम

अकादमिक कुतर्क का एक उदाहरण यह भी है कि, खिलाफत आंदोलन को अखिल-इस्लाम के बजाय अखिल-भारतीय इस्लाम के रूप में चित्रित किया गया है। एक अन्य ‘प्रख्यात इतिहासकार’ प्रोफेसर भोजनंदन प्रसाद सिंह बिहार में 1920-22 में खिलाफत और असहयोग आंदोलन के धर्म निरपेक्ष पहलुओं की खोज पर जोर देते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि “उसके धार्मिक पहलुओं पर जोर देने और उसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र को कम करके आंकने के उद्देश्य से जानबूझकर भ्रम फैलाया गया। आधिकारिक तौर पर, आंदोलन का नामोल्लेख तक भी सुविधापूर्वक हटा दिया गया है। वह यह बताने के लिए रफीक जकारिया का लेख उद्धृत करते हैं कि उन्होंने कैसे एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में अगस्त 1997 में अपने लेख ‘द ट्रूथ अबाउट द खिलाफत मूवमेंट’ में भ्रम फ़ैलाने के इन प्रयासों का विरोध किया था। इस 'प्रख्यात इतिहासकार' का मानना है कि खिलाफत आंदोलन, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की गांधीवादी रणनीति का परिणाम था!

इतिहास से मुकरना

खिलाफत आंदोलन को ऐसी आकस्मिक घटना के रूप में प्रस्तुत किया गया, जिसकी कोई धार्मिक या ऐतिहासिक पृष्ठभूमि नहीं थी। अब खिलाफत आंदोलन के हिंदु विरोधी स्वरूप को दूर करने की कोशिशें की जा रही है। उदाहरण के लिए, गार्गी चक्रवर्ती ‘मेनस्ट्रीम’ (खंड 53 क्रमांक 6, नई दिल्ली, 25 जनवरी, 2020) में लिखती हैं, “अखिल-इस्लामवाद की विचारधारा ने पश्चिमी साम्राज्यवाद के खिलाफ दुनिया भर के मुस्लिमों को एकजुट करने पर जोर दिया, पर भारत में यह तब तक एक शक्ति नहीं बन सकी, जब तक कि 1911 में इटली और तुर्की के बीच युद्ध नहीं छिड़ गया। ब्रिटेन ने इटली के साथ एक गुप्त गठबंधन बनाया, इसके कारण अंग्रेजों से भारतीय मुस्लिमों का अलगाव हो गया। उन्हें लगा कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद उनकी इस्लामी संस्कृति को नष्ट करने पर तुला हुआ है। ‘इस्लाम खतरे में’ यह भय, ईसाइयत और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ कट्टर नफरत से भरा था, जो हिंदुओं के विरुद्ध बिलकुल भी नहीं था।” अखिल-इस्लामवाद को अब पश्चिमी साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया के रूप में चित्रित करने पर जोर दिया जा रहा है।

खिलाफत आंदोलन व हिंदू-मुस्लिम गठबंधन को नाकाम करने की साजिश

यदि स्वघोषित धर्मनिरपेक्षतावादियों की यह हालत है, तो कट्टर इस्लामवादियों की हालत क्या होगी? त्रिनिदाद और टोबैगो सरकार के विदेश मंत्रालय में कार्यरत अधिकारी शेख इमरान हुसैन ने 1985 में इस्लाम के मिशन के लिए अपना जीवन समर्पित करने के लिए नौकरी छोड़ दी। वह खिलाफत आंदोलन के बारे में लिखते हैं, "ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने इस्लाम के विकल्प के रूप में यूरोपीय राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता को 'तलवार की नोक पर' लागू किया। हिंदू और मुस्लिम दोनों ने अंततः 'धर्मनिरपेक्षता' के नए यूरोपीय धर्म को चुनौती दी और अपनी स्वदेशी राजनीतिक संस्कृति को बहाल करने और संरक्षित करने की मांग की। तुर्की खिलाफत को खत्म करने के लिए मुस्तफा कमाल के तुर्की के नए धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के साथ मिलकर, ब्रिटिश शासन ने रणनीति तैयार की। इससे खिलाफत आंदोलन और हिंदू-मुस्लिम गठबंधन को नाकाम और नष्ट किया जा सके" (द रिटर्न ऑफ खिलाफत)। ध्यान दें कि कैसे खिलाफत आंदोलन को स्वदेशी संस्कृति के संरक्षण और नस्लीय वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है!

अतीत से वर्तमान तक

इतिहासकारों के वेश में एक विशिष्ट विचार से जुडे विचारकों की एक प्रजाति है, जो खिलाफत आंदोलन का इस्तेमाल कर भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव की आस लगाये बैठी है! ऐसे ही प्रयास के तहत प्रिंसटन विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाने वाले ज्ञानप्रकाश, खिलाफत आंदोलन और नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध प्रदर्शन,के बीच समानताएं बताते हैं। उनके लेखन का तात्पर्य यह है कि संघ द्वारा उनकी निष्ठा पर उठाये गए सवालों के जवाब में, मुस्लिम इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि वे मुस्लिम भी हैं, और भारतीय भी, न कि केवल मुस्लिम या केवल भारतीय। खिलाफत आंदोलन में मुस्लिम शिकायतों का उपयोग ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रवादी आंदोलन छेड़ने के महात्मा गांधी के प्रयत्न का स्मरण होता है, वह भी मुस्लिम और भारतीय का एक संयोजन था”| खिलाफत आंदोलन के संबंध में नया (वर्तमान) विमर्श निम्न बिंदुओं पर चलाया जा सकता है, "यह एक पीड़ित समुदाय द्वारा उनके औपनिवेशिक आकाओं के खिलाफ शुरू किया गया आंदोलन था, जो अपने गैर-मुस्लिम भाइयों को साथ लेकर महात्मा गांधी के व्यापक नेतृत्व में संचालित किया गया।" अब ‘औपनिवेशिक आकाओं’ को ‘हिंदू बहुसंख्यकवाद’ से और ‘गैर-मुस्लिम भाइयों के स्थान पर’ ‘दमनकारी मनुवादी व्यवस्था के शिकार दलितों’ से बदल दें तो आपके पास वर्तमान समय के लिए एक विषाक्त विमर्श तैयार हो जाता है!

खिलाफत आंदोलन पर निर्मित इस नये विमर्श को तत्काल हटाने की आवश्यकता है। इस बात से इनकार नहीं कि आज भी खिलाफत आंदोलन के अध्ययन की प्रासंगिकता है, क्योंकि 100 साल पहले इसे प्रारंभ करने वाली मानसिकता अभी भी मौजूद है। यह मानसिकता वर्तमान सभ्यता को पुन: सातवीं शताब्दी के वातावरण में ले जाने वाली मजहबी मानसिकता द्वारा प्रेरित है। जो इतिहास को भुलाते हैं, उन्हें वही इतिहास दोहराना पड़ता है यह अवश्य सत्य है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि जो इतिहास को झुठलातेहैं, उन्हें वह इतिहास दोहराने का अवसर तक नहीं मिलता। नीर-क्षीर विवेक करने का समय अब आ गया!

(लेखक ने इस्लाम, ईसाइयत, समकालीन बौद्ध-मुस्लिम संबंध, शुद्धी आंदोलन और धार्मिक जनसांख्यिकी पर पुस्तकें लिखी हैं।)