[डॉ. श्रीरंग गोडबोले]। खिलाफत आंदोलन (1919-1924) मजहबी किताबों द्वारा स्वीकृत ऐसा आंदोलन था, जिसका भारत में तभी प्रारंभ हो गया था, जब पहले इस्लामी आक्रमणकारी ने देश में कदम रखा था। आधुनिक काल में ओटोमन खलीफा की चर्चा सूफियों, उलेमा, मध्यवर्गीय मुस्लिम बुद्धिजीवियों, मुस्लिम प्रेस और आम मुस्लिमों में 1830 के दशक के बाद से दिखाई देती है। आंदोलन की वैचारिक बुनियाद इसके पूर्व के 100 वर्षों में रखी गई। 1857 का संघर्ष अखिल-इस्लामवाद का महत्वपूर्ण विस्फोट था, लेकिन इसकी वैचारिक नींव 18वीं शताब्दी में रखी गई थी। 1857 के संघर्ष को अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम के रूप में जाना जाता है, परंतु एक प्रश्न का उत्तर देने की आवश्यकता है कि यदि अंग्रेजों से स्वतंत्रता का संग्राम जीत लिया गया होता, तो उसके बाद भारत पर किसका शासन होना था? मुस्लिम समाज के लिए इसका उत्तर स्पष्ट था। अंग्रेजों का शासन उनके लिए दार-उल-हर्ब (वह क्षेत्र जहां इस्लाम प्रमुख नहीं है अथवा युद्ध का घर) था, जो गत हजार वर्षों से चले आ रहे इस्लामी शासन, दार-उल-इस्लाम (वह क्षेत्र जहां इस्लाम प्रमुख है) के बीच एक पीड़ादायक काल था। और केवल दार-उल-इस्लाम की पुनर्स्थापना ही मुस्लिम समाज को संतुष्ट कर सकती थी।

1857 के संघर्ष के जिहादी चरित्र और इसके खिलाफत आंदोलन से संबंध के विषय मे डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर ने सत्यपरक विश्लेषण किया है, “जिज्ञासु व्यक्ति 1857 के विद्रोह की जांच कर सकता है। इससे मालूम होगा कि आंशिक तौर पर चाहे कुछ भी हो, यह मुसलमानों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद की घोषणा ही थी। जहाँ तक मुसलमानों का संबंध था, विद्रोह की पुनरावृत्ति सैय्यद अहमद ने मुसलमानों में दशकों तक यह कहकर पैदा की थी कि अंग्रेजों के कब्जा करने से भारत दार-उल-हर्ब बन गया था। वह बगावत भारत को दार-उल-हर्ब से दार-उल-इस्लाम में बदलने की एक कोशिश थी। एक और अधिक निकटवर्ती उदाहरण है, 1919 में अफगानिस्तान का भारत पर आक्रमण। यह उन भारतीय मुसलमानों द्वारा सुनियोजित था, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार के प्रति खिलाफतियों के विरोध की भावना से प्रेरित हो भारत को स्वतंत्र करने के लिए अफगानिस्तान की सहायता मांगी थी।

1857 से पूर्व अखिल-इस्लामी आंदोलन

जब भारत में इस्लामी शासन पतन की ओर था, शाह वलीउल्लाह (1703-62) ने अखिल इस्लामवाद का नारा बुलंद किया। उन्होंने एक निर्वाचित खिलाफत के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हुए और काफिरों के खिलाफ जिहाद या पवित्र युद्ध के कर्तव्य पर विशेष जोर दिया। उनके प्रयासों ने 19वीं शताब्दी में भारत में इस्लाम की रक्षा के लिए इस्लामी विद्वानों की एक पूरी शृंखला खड़ी कर दी, जिसने मुस्लिम समाज की शक्ति के क्षरण के दौर में भी इस्लाम की रक्षा का कार्य किया। शाह वलीउल्लाह का मानना था कि मुस्लिम जितना अपने गैर-मुस्लिम पड़ोसियों के साथ परस्पर व्यवहार कम करेंगे उतना वे अल्लाह के बेहतर सेवक हो सकेंगे। चाहे 1857 का विद्रोह हो या फिर खिलाफत आंदोलन, हिंदुओं की सहायता लेने की मुस्लिम नेताओं की भूमिका आस्था से नहीं अपितु विवशता से उत्पन्न हुई थी।

पिंडारी लुटेरा व अखिल-इस्लामवाद का प्रवर्तक

अखिल-इस्लामवाद का अन्य प्रवर्तक सैय्यद अहमद बरेलवी (1786-1831) था, जो प्रारंभ में पिंडारी लुटेरा था और विभिन्न सूफी सम्प्रदायों से संबंधित था। उसने 1826 में महाराजा रणजीत सिंह के खिलाफ जिहाद शुरू किया। जनवरी 1827 में उसे इमाम (सर्वोच्च नेता) घोषित कर बैअत (निष्ठा की शपथ, पैगंबर मुहम्मद द्वारा शुरू की गई एक प्रथा) दी गई। उसने मुस्लिमों द्वारा हिंदू तीर्थ स्थानों की तीर्थयात्रा, हिंदू पवित्र त्योहारों में भागीदारी और ब्राह्मणों और ज्योतिषियों से परामर्श लेने की घोर निंदा की। उसके और उसके अनुयायियों के विषय में अंग्रेजों ने अनुमान लगाया था कि उसने अंतत: ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का इरादा कर लिया था, जो सच ही था।

अन्य समकालीन इस्माली आंदोलन

अखिल-इस्लामवाद का एक अनिवार्य घटक गैर-मुस्लिमों और मुस्लिमों पर उनके प्रभाव का बहिष्कार है। सैय्यद अहमद बरेलवी के समकालीन हाजी शरीयत-अल्लाह (1781-1840) ने 1821 में बंगाल में फरायजी आंदोलन शुरू किया था। इसका नाम कुरान में निहित कर्तव्यों (फारिज) पर जोर देने से पड़ा। कुफ्र और बिदा (नवाचार) की अस्वीकृति इसके प्रमुख सिद्धांतों में से थे। उसके पुत्र दूदू मियाँ (1819-1862) ने फराजियों के एक उग्रवादी भाईचारे का गठन किया। बंगाल में एक और हिंसक इस्लामी पुनरुत्थानवादी आंदोलन का नेतृत्व टीटू मीर (1782-1831) ने किया, जिसने अपने अनुयायियों को दाढ़ी बढ़ाने और अपनी धोती को विशिष्ट शैली में बाँधने पर बल दिया। अंग्रेजों द्वारा स्थानीय पैदल सेना भेजकर आंदोलन को समाप्त कर दिया गया। इन सभी इस्लामी या कट्टरपंथी आंदोलनों ने अपने पूर्व-इस्लामी हिंदू प्रथाओं से भारत के मुस्लिमों को शुद्ध करने पर जोर दिया जो कि सदियों पहले जबरन धर्म परिवर्तन कराये जाने के बावजूद भी बच गए थे।

मुस्लिमों व अंग्रेजों के बीच तनाव की शुरूआत

अंग्रेज यह महसूस कर चुके थे कि मुस्लिम एक कट्टर और मेलमिलाप विरोधी समुदाय है। ब्रिटिश और वहाबी मुस्लिमों के बीच तनाव की शुरुआत 1838 में हुई थी, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और अफगानिस्तान के अमीर के बीच पहला अफगान युद्ध छिड़ गया। उत्तर-पश्चिम में वहाबियों ने केवल अफगान पक्ष की ओर से युद्ध ही लड़ा, साथ ही वहाँ ब्रिटिश सेना के कुछ मुस्लिम सिपाहियों की वफादारी को अपनी तरफ करने का प्रयास भी किया।

1857 के संघर्ष में हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश दृष्टिकोण

1857 के संघर्ष के विषय में हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश दृष्टिकोण को इतिहासकार थॉमस मेटकाफ द्वारा संक्षेप में यूँ प्रस्तुत किया गया है, "यह माना जा सकता है कि विद्रोह की पहली चिंगारी हिंदू सिपाहियों के बीच जागृत हुई जो अपनी जाति व्यवस्था के उल्लंघन से आशंकित थे। उसके बाद मुस्लिमों ने असंतोष की आग को हवा दी और खुद को आंदोलन का अगुआ बना लिया। मुस्लिमों ने इन मजहबी शिकायतों को राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के उपाय के रूप में देखा। ब्रिटिश दृष्टिकोण में यह मुस्लिम साजिश और मुस्लिम नेतृत्व था, जिसने ब्रिटिश राज को नष्ट करने के उद्देश्य से एक सिपाही विद्रोह को एक राजनीतिक षड्यंत्र में बदल दिया था।

बंगाल सेना और 1857 का विद्रोह

उत्तर प्रदेश और दिल्ली में विभिन्न स्थानों पर तैनात बंगाल सेना की इकाइयों द्वारा मई-जून 1857 में विद्रोह के बढ़ते उभार में कस्बों की मुस्लिम आबादी से आये सशस्त्र जिहादी भी शामिल हो गए। कुछ मामलों जैसे कि ग्वालियर की टुकड़ी के नेता मुस्लिम सिपाही थे। इलाहाबाद, लखनऊ और ग्वालियर में सशस्त्र जिहादियों के नेता वहाबी न होकर वास्तव में सूफी थे। 1857 के जिहाद में शामिल होने से कुछ वहाबी नेता हिचकिचा भी रहे थे। विशेषकर उन जगहों पर जहाँ इस विद्रोह का नेतृत्व हिन्दुओं के हाथों में था, वहां वहाबियों के सम्मुख नैतिक संकट खडा हो गया था। क्योंकि हिन्दुओं के सहयोगी और अधीनस्थ की भूमिका में कार्य करना उनके सिद्धांतों के अनुकूल नहीं था। क्रमश...

(लेखक ने इस्लाम, ईसाइयत, समकालीन बौद्ध-मुस्लिम संबंध, शुद्धी आंदोलन और धार्मिक जनसांख्यिकी पर पुस्तकें लिखी हैं।)