[ डॉ. सुधीर सिंह ]: अपने चुनावी वादों में एक ‘नया पाकिस्तान’ बनाने की बात करने वाले इमरान खान ने अपनी सत्ता के सौ दिन पूरे कर लिए हैैं। इन सौ दिनों की समीक्षा इस रूप में भी की जा रही है कि उन्होंने तमाम काम अपने वादों के उलट किए हैैं। चुनाव के पहले उन्होंने यह कहा था कि वह आत्महत्या कर लेंगे, परंतु अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आइएमएफ नहीं जाएंगे। आज वह आइएमएफ से कर्ज पाने के लिए हर संभव कोशिश करने में लगे हुए हैैं, लेकिन उसकी कड़ी शर्तें बाधक बन रही हैैं। पाकिस्तान 1980 के बाद से करीब 12 बार मुद्रा कोष जा चुका है। इस समय पाकिस्तान की आर्थिक हालत काफी खराब है। कुल 325 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था में 95 अरब डॉलर का कर्ज विदेशी संस्थानों का है।

पाकिस्तान के पास 10 अरब डॉलर से भी कम का विदेशी मुद्रा भंडार बचा है। यह दो महीनों से भी कम के आयात बिलों के लिए ही पर्याप्त है। हालांकि इमरान खान ने यह वादा किया था कि वह सत्ता संभालने के तीन महीने तक किसी देश का दौरा नहीं करेंगे, लेकिन पहले वह धार्मिक यात्रा के लिए सऊदी अरब गए। इसके बाद अक्टूबर में फिर से सऊदी अरब चले गए। यह दौरा आधिकारिक था। सऊदी अरब ने पाकिस्तान को 3 अरब डॉलर नकद और तीन अरब डॉलर का तेल देने का आश्वासन दिया। इसके बाद वह चीन के दौरे पर चले गए। वहां जाने से पहले उन्होंने इस पर जोर दिया था कि चीन पाकिस्तान गलियारा यानी सीपैक पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।

सीपैक चीन के पश्चिमी शहर कासगर को पाकिस्तान के पश्चिमी शहर ग्वादर से जोड़ता है। 2000 किलोमीटर के इस मार्ग का इस्तेमाल चीन ने 2013 में ही शुरू कर दिया था। ग्वादर सामरिक तौर पर अति महत्वपूर्ण सामुद्रिक खाड़ी के मुहाने पर स्थित है। यहां हिंद महासागर, अरब सागर और फारस की खाड़ी का मिलन होता है। इससे चीन को एक सामुद्रिक रास्ता मिलेगा और उसके जरिये उसके जिंगजियांग प्रांत सहित पश्चिमी चीन का भी विकास होगा। इसके अतिरिक्त सीपैक चीन को एक अति महत्वपूर्ण नौसैनिक अड्डा उपलब्ध कराएगा। इससे तेल की आपूर्ति में सुविधा होगी। उसके लिए भारत और अमेरिका की सामूहिक गतिविधियों पर भी यहां से नजर रखना काफी आसान होगा। इसके अतिरिक्त चीन अपनी 40 अरब डॉलर के ‘सामुद्रिक सिल्क रोड’ की परिकल्पना को भी पूरा कर पाएगा।

दक्षिण एशिया में श्रीलंका, मालदीव और दक्षिण पूर्व एशिया में म्यांमार में चीन समुद्री अड्डों का निर्माण कर रहा है। इन सामुद्रिक‘मोतियों की माला’ के पीछे चीन व्यावसायिक हित के तर्क देता है, परंतु यह तय है कि चीन इसके जरिये भारत को हिंद महासागर में भी घेरने की नीति पर काम कर रहा है।

पाकिस्तान-चीन संबंध 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से ही काफी करीबी रहे हैं। शीत युद्ध के बाद के कालखंड में उनके रिश्तों में और भी घनिष्ठता आई। 1999 में कारगिल संघर्ष के समय तत्कालीन पाकिस्तान प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ बीजिंग गए थे। चीन ने साफ कर दिया था कि भारत और पाकिस्तान को यह मामला आपस में ही हल करना है। मजबूरी में उन्हें अमेरिका की शरण में जाना पड़ा। जुलाई 1999 में वाशिंगटन में हुए समझौते के बाद पाकिस्तानी घुसपैठिये कारगिल से वापस हट गए थे, लेकिन पिछले एक दशक में चीन पाकिस्तान के आपसी संबंध और भी प्रगाढ़ हुए हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, परंतु दो काफी महत्वपूर्ण हैं।

पहला भारत का उभरता हुआ वैश्विक आभा मंडल। पिछले एक दशक में भारत-अमेरिका, भारत-जापान, भारत-आसियान संबंध ऐतिहासिक तौर पर काफी मजबूत हुए हैं। भारत ने इन देशों के साथ साझा सामूहिक नौसैनिक अभ्यास हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी में किया है। आर्थिक तौर पर भी भारत काफी मजबूत हुआ है और कुछ माह पूर्व ही फ्रांस को पछाड़कर दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर उभरा है। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत का वैश्विक आभामंडल और भी तेजी से बढ़ा है। मोदी सरकार ने वैश्विक मंचों पर भी एशिया के बहुध्रुवीय होने की आवश्यकता पर खुले तौर पर जोर दिया है। ‘डोकलाम’ में चीन के तमाम मनोवैज्ञानिक हथकंडों के बावजूद भी भारत वहां डटा रहा और चीन को एक तरह से बेआबरू होकर अपने कदम पीछे खींचने पड़े। इससे चीन की छवि को थोड़ा नुकसान हुआ। तबसे वह भारत से संबंध सुधार की इच्छा व्यक्त कर रहा है, लेकिन भारतीय हितों की अनदेखी भी कर रहा है और पाकिस्तान को उकसा भी रहा है।

हाल के वर्षों में भारत-अमेरिका के संबंध काफी मजबूत हुए हैैं। वैसे तो अमेरिका एकध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था लागू रखना चाहता है, परंतु एशिया में वह किसी भी कीमत पर चीन के नेतृत्व वाली एकध्रुवीय व्यवस्था के बजाय बहुध्रुवीय व्यवस्था पर जोर दे रहा है। इसके जवाब में चीन किसी भी कीमत पर एशिया में एकध्रुवीय व्यवस्था लागू करना चाहता है। दूसरा कारण, पाकिस्तान-अमेरिका संबंधों में मई 2011 में ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद से ही कटुता बढ़ना है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पहले दिन से ही पाकिस्तान के प्रति सख्त रवैया अपनाए हुए हैैं। उनकी ओर से पाकिस्तान को दी जाने वाली आर्थिक सहायता रोके जाने के बाद दोनों देशों के संबंध और बिगड़े हैैं। इस स्थिति में चीन पाकिस्तान के एक मजबूत सहयोगी के तौर पर उभरा है। यक्ष प्रश्न है कि क्या चीन अमेरिका की तरह पाकिस्तान की आर्थिक सहायता कर पाएगा? इमरान खान की चीन यात्रा वित्तीय सहायता की उम्मीदों को लेकर थी, परंतु चीन ने कोई खास आश्वासन नहीं दिया। यह पता नहीं चल सका कि चीन ने पाकिस्तान को कितनी सहायता दी है? इमरान के स्वदेश लौटने के बाद पाकिस्तान सरकार ने इस यात्रा की सफलता के जो ढोल पीटे उन्हें वहां की मीडिया ने ही नकार दिया। वित्तीय सहायता के मामले में चीन का रिकार्ड ठीक नहीं है।

सीपैक में वित्तीय लेखा-जोखा और ब्याज के प्रतिशत को साझा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष पाकिस्तान पर दबाव बना रहा है। इससे चीन काफी असहज महसूस कर रहा है, क्योंकि वह ऐसा नहीं चाहता। चीन काफी ऊंची दरों पर कर्ज देता है और मलेशिया सहित कई देशों ने चीन की सहायता से बनने वाली परियोजनाओं को निरस्त कर उसकी पोल खोल दी है। इस सबके बावजूद फिलहाल संकेत यही है कि चीन-पाकिस्तान संबंध यथावत बने रहेंगे। इसी कारण भारत को सतर्क रहने की आवश्यकता है। भारत को अपनी नीतियों की नए सिरे से समीक्षा कर चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ का मुकाबला करना चाहिए।

मोदी सरकार ने रूस-भारत संबंधों को मजबूत कर इस दिशा में एक अच्छी पहल की है, लेकिन अभी उसे और भी कई कदम उठाने होंगे। उसे यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि इमरान खान वास्तव में भारत से दोस्ती का इरादा रखते हैैं। करतारपुर गलियारे के पीछे पाकिस्तानी सेना की कोई चाल भी हो सकती है, जैसा कि पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने कहा भी है।

( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैैं )