जि़ंदगी यह प्यारी सी
हॉस्टल लाइफ हर इंसान की जि़ंदगी का सबसे सुनहरा समय होता है। उस दौरान वो जो कुछ भी सीखता या बनता है, वह ताउम्र उसके साथ रहता है। कोशिश की जानी चाहिए कि हॉस्टल में बिताए गए समय का बखूबी उपयोग किया जाए।
अच्छे संस्थान का हिस्सा बनना हर किसी का सपना होता है। इसके लिए लोग मेहनत करने के साथ ही परिवार से दूर रहने के लिए भी तैयार रहते हैं। अपने शहर से दूर किसी हॉस्टल में रह कर वे भविष्य को सुनहरा बनाने की जीतोड़ मेहनत करते हैं।
कुछ दूरी है ज़रूरी
ज़्यादातर शिक्षण संस्थान शहर से दूर स्थित होते हैं। ऐसे में वहां पढऩे वाले स्टूडेंट्स को उनके हॉस्टल में रहना पड़ता है। इससे ट्रैवलिंग में लगने वाला उनका काफी समय बच जाता है और पढ़ाई में एकाग्रता भी बढ़ती है। घर के लाड़-प्यार में पलने के कारण जिन बातों और कामों की समझ उनमें नहीं होती है, हॉस्टल लाइफ उन्हें हर उस चीज़ का मोल सिखा देती है। हॉस्टल की तमाम बंदिशों के बीच भी वे दोस्तों के साथ आज़ादी के अपने मतलब ढूंढ लेते हैं। इसके साथ ही उनमें जि़म्मेदारी का भाव भी आता है। दोस्तों के साथ मस्ती करते हुए भी उन्हें अपने दायरे का अंदाज़ा रहता है।
जि़म्मेदारी का ओढ़ते दामन
'मम्मी, अभी धूप बहुत है, मैं मार्केट का काम बाद में करूंगा।' घर पर झल्लाते हुए यह जवाब देना बहुत आसान होता है, जब कोई काम करने का मन न हो। वहीं हॉस्टल में अपना रूटीन खुद ही व्यवस्थित हो जाता है। वहां काम करने के लिए किसी रिमाइंडर या उसे न करने के लिए किसी बहाने की गुंजाइश नहीं होती है। सबको पता होता है कि उसे कब, क्या करना है और उसे टाइम पर न करने का क्या नतीजा हो सकता है। घर में अगर बच्चा बहुत जि़म्मेदार न भी रहा हो, तब भी बाहर आकर वह बड़प्पन के साथ हर बात को समझने लगता है। काम लॉण्डरी का हो या बैंक का, पढ़ाई का हो या दूसरी गतिविधियों का, टाइमटेबल सेट करना उन्हें बखूबी आ जाता है। जि़म्मेदारी का यह भाव आगे भी उनकी बहुत मदद करता है।
खाने के खत्म नखरे
ब्रेकफस्ट, लंच और डिनर में अपनी फरमाइश से डाइनिंग डेबल सजवाने के बावज़ूद खाने में नखरे करने वाले बच्चे भी हॉस्टल जाकर बदल जाते हैं। शुरू में मेस का खाना पसंद न आने पर भी धीरे-धीरे उसकी आदत होने लगती है। आखिर कितने दिन कोई बाहर का खाना खा सकता है! हेल्थ के साथ वॉलेट पर भी उसका भार जो पड़ता है। कुछ दिन मुंह बनाने के बाद वे हॉस्टल के खाने को एंजॉय करने लगते हैं। मेस में दोस्तों के साथ सब्ज़ी और दाल को पहचान कर उसे नाम देना भी एक अलग ही खुशी की बात है। उसके आगे होटल के लाजवाब खाने को स्वाद भी फीका पड़ जाता है।
बचत का अंदाज़ अलग
घर में चाहे जितना बेहिसाब खर्च किया हो, हॉस्टल आकर रुपये की $कीमत सबको पता चल जाती है। किसी को घर पर अपने एक्सपेंडिचर्स का हिसाब देना होता है तो कोई खुद ही समझदार हो जाता है। खर्चों की एक लिमिट तय करने के साथ ही सेविंग्स पर भी उनका फोकस बढ़ जाता है। कुछ स्टूडेंट्स तो हॉस्टल लाइफ से ही फ्रीलांसिंग या दूसरे तरीकों से अपना अकाउंट बैलेंस मेंटेन करने लगते हैं। ज़रूरत पड़ने पर दोस्तों की मदद करने से भी वे नहीं हिचकिचाते हैं।
दीपाली पोरवाल