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डीडी EXCLUSIVE : बदल गई दोस्ती की ज़ुबान

जिंदगी के सफर में दोस्त बदले, अंदाज़ बदला और बदल गई उनकी ज़ुबान भी। कभी स्थानीय बोली का तड़का लगाकर दोस्तों को बुलाया तो कभी उन्हें गाली देने से भी परहेज़ नहीं किया।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Sat, 20 Aug 2016 10:30 AM (IST)Updated: Sat, 20 Aug 2016 10:35 AM (IST)
डीडी EXCLUSIVE : बदल गई  दोस्ती की ज़ुबान

कुछ साल पहले तक हम दोस्तों को मित्र, बंधु, सहेली कहा करते थे और हमारी बोलचाल में अदब झलकता था। थोड़े कैज़ुअल हुए तो औपचारिकताओं को पीछे छोड़कर यार और तू-तड़ाक कहने का चलन शुरू हुआ। अब तो दोस्तों की बोली सभी बाड़े तोड़ देना चाहती है। अगर एक दोस्त दूसरे को गाली देकर संबोधित करता है तो इसका मतलब है कि उनके बीच दोस्ती गाढ़ी है। हालांकि पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी पर यह तोहमत लगाती है कि युवाओं पर पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव है, इसलिए उनकी बोलचाल से अदब गायब हो चुका है, जबकि युवा पीढ़ी इसे सिरे से खारिज करती है।
आज की दोस्ती का अंदाज़
सुरु इधर आ...। प्रिय किधर जाना है तुम्हें...? ब्रेनी यह काम कर रहा होगा...। बातचीत का यह बेपरवाह अंदाज़ है दिल्ली, एनसीआर के छात्र-छात्राओं का। नाम को शॉर्ट फॉर्म में बोलना, जैसे- प्रियंका को प्रिय, सुरेंद्र को सुरु इन दिनों आम बात है। डीयू स्टूडेंट खुशबू कहती हैं कि काफी फनी होता है दोस्तों को शॉर्ट नेम से पुकारना। इसमें शरारत का पुट झलकता है। कुछ संबोधनों के तो कुछ खास अर्थ होते हैं। इन दिनों दोस्तों के बीच 'ब्रेनी' शब्द हॉट है। यह तेज़-तर्रार, बातूनी, अक्लमंद और जल्दी काम निपटाने वालों के लिए इस्तेमाल होता है। शानू कहते हैं कि इन दिनों प्रवचन देने वाले या कहिए खुद को घोषित किए हुए बाबा टाइप लोगों को 'बाबा जी का ठुल्लू' कहा जाता है। वहीं जसप्रीत के मुताबिक अगर कोई लड़का किसी भी काम को अंजाम तक पहुंचाता है या जिसने बढिय़ा जि़म्मेदारी निभाई हो, तो उसे 'डैडी' कहा जाता है। दोस्तों के बीच बोले जाने वाले कुछ शब्द तो बयां करने लायक नहीं होते हैं तो कुछ बेहद फनी होते हैं। उनमें स्थानीयता का पुट भी होता है।
गाली में अपनेपन का भाव
दोस्ती की अपनी कोई ज़ुबान नहीं होती है, ऐसा किसी ने सही कहा है। दोस्ती में बनावट की गुंजाइश नहीं होती है। बदलते वक्त में इसकी भाषा ज़रूर बदल गई है। दोस्तों को दिया जाने वाला संबोधन भले ही कहने-सुनने में थोड़ा अजीब लगे लेकिन इनके कुछ अपने ही मायने हैं। इंटीरियर डेकोरेटर सोनाली कहती हैं कि जब तक दोस्तों को गाली देकर न पुकारो, अपनापन नहीं लगता है। दोस्त लड़का हो या लड़की 'कमीने' संबोधन तो सामान्य बात है। मैं अपने दोस्तों को 'फुलझड़ी' और 'पटाखा' भी कहती हूं। हालांकि स्टूडेंट्स गार्जियंस के सामने ऐसा बोलने से परहेज़ रखते हैं। इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे राहुल कहते हैं कि पढ़ाई के दौरान हम सभी दोस्त सामान्य रहते हैं लेकिन स्टडी पीरियड खत्म होते ही हमारी बातचीत में हिंग्लिश शैली हावी हो जाती है। हम लोग दोस्तों को 'चश्मिश', 'बैट्री', 'मेढक', 'पगले' आदि कहकर भी संबोधित करने लगते हैं। साला कहकर पुकारना तो आम बात है। वैसे, दोस्तों को कुछ अनोखे नाम से पुकारने का चलन नया नहीं है। बिज़नेस मैन अनुराग मिश्रा कहते हैं, 'अपने ज़माने में हम दोस्तों को 'राजू', 'मित्र', 'अनोखे' संबोधित किया करते थे, लेकिन अब दौर बदल गया है। बच्चे प्यार से गाली भी देते हैं। दरअसल, उसमें अपनेपन का भाव छिपा होता है।
पश्चिम का प्रभाव
कोमल ने साक्षी से पूछा- अपने हालचाल सुनाओ। अरे मेरा तो बीटी (बैड टाइम) चल रहा है। साक्षी को उसके किसी दोस्त ने एक मेसेज लिखा- तुम इन दिनों क्या कर रही हो? एमएमबी (मेसेज मी बैक)। जब उसने जवाब नहीं दिया तो अगला मेसेज आया। सीटीएन (कान्ट टॉक बैक)? उसने फिर लिखा, बडी यू आर माई बीएफएफ (बेस्ट फ्रेंड फॉरएवर)। पूरे वाक्य को शॉर्ट फॉर्म में बोलने का चलन अमेरिका और यूरोपीय देशों से आया है। वहां लोग इतने व्यस्त हैं कि उनके पास पूरा वाक्य लिखने के लिए भी समय नहीं है। पत्रकार तेजस खरे का बचपन चंडीगढ़ में गुज़रा और पढ़ाई-लिखाई पंजाब यूनिवर्सिटी में हुई। वे कहते हैं कि जब वे पंजाब जाते हैं तो वहां के लड़कों में भी दोस्तों की बातचीत के बीच से पंजाबी लहज़ा गायब नज़र आता है। अंग्रेजियत हावी है। स्टूडेंट्स की लाइफस्टाइल पश्चिम से प्रभावित हो चुकी है, जिसमें सम्मान और अदब के बोल गायब है।
करियर का दबाव
छात्र उदय कहते हैं कि हम आपस में दोस्तों को 'कुत्ते-कमीने' से भी संबोधित करते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि हमारे बीच आत्मीयता नहीं है। हमारे बीच की अंडरस्टैंडिंग ज़बर्दस्त होती है। एक-दो उदाहरणों को छोड़ दें तो जब आप इन छात्र-छात्राओं का अंतर्मन टटोलेंगे तो आपको लगेगा कि उनकी बातचीत भले ही बिंदास हो, लेकिन एक-दूसरे पर वे जान छिड़कते हैं। दरअसल, वक्त बदलने के साथ-साथ हमारा बोलने का लहज़ा बदला है और आपसी बातचीत में एक बेपरवाही आई है। इसकी एक वजह पढ़ाई और करियर का दबाव भी हो सकता है। शिक्षाविद कामिनी के अनुसार, इन दिनों पढ़ाई और करियर के चुनाव का छात्रों पर इतना दबाव रहता है कि छात्र हर समय हंसने और हंसाने का मौका तलाशते रहते हैं। अगर आप हमेशा अपने दोस्तों से हलके-फुल्के शब्दों में बोलते-बतियाते रहते हैं तो आप तनाव रहित महसूस करते हैं।
सिमटा बातचीत का विषय
सोचने के नज़रिए में परिवर्तन का प्रभाव दोस्ती की ज़ुबान पर पड़ा है। मुझे लगता है कि दोस्ती की ज़ुबान के साथ-साथ उनकी बातचीत का मुद्दा भी बदल गया है। जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहा था, तब हम राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर बातचीत किया करते थे। चाहे हम दूसरों से असहमत ही क्यों न हों, लेकिन इस वैचारिक असहमति का असर दोस्ती पर नहीं पड़ता था। पिछले पांच-छह सालों में दोस्तों की बातचीत का विषय व्हॉट्सएप, फेसबुक, ट्विटर से शुरू होकर सिनेमा, मॉल, गर्लफ्रेंड आदि में सिमट गया है। इन दिनों दोस्ती होती है, पर निभ नहीं पाती है।
आशुतोष सिंह, सोशल एक्टिविस्ट

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जीवन मूल्यों में परिवर्तन
पिछले बीस वर्षों में भारतीय लोगों के जीवन मूल्यों में ज़बर्दस्त परिवर्तन हुआ है। इसका गहरा असर उनके आचार-व्यवहार पर पड़ा है। अब भारतीय समाज पश्चिम की तरह एचीवमेंट बेस्ड हो गया है। जब उन्हें अपने मनचाहे से कम मिलता है या असफल हो जाते हैं, तो उन्हें कुंठा होने लगती है। यही कुंठा बेपरवाह बोली के रूप में सभीं के सामने आती है। ऊपरी तौर पर लोग दिखाना चाहते हैं कि उनमें इतनी गाढ़ी दोस्ती है कि वे बातचीत में कोई औपचारिकता नहीं दिखाना चाहते हैं। लेकिन वास्तव में
उनके बीच दोस्ती नाम की कोई चीज़ नहीं होती है।

बदल गई आबोहवा
हम अपने ज़माने में दोस्तों को भी पूरा सम्मान दिया करते थे। लेकिन अब तो बड़े क्या छोटे शहरों में भी दोस्तों के बीच से अदब गायब है। दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में रहने वाले लोग विदेशियों के हाव-भाव, पहनावे और बोलचाल की नकल करते हैं।
पद्मा सचदेव, डोगरी लेखिका

स्मिता


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