साहित्य की स्याही में रंगी, रग-रग में बसी है चहचहाहट
- मन के सूक्ष्म भावों को साहित्य में शब्द देती आई है गौरैया - कवियों की प्यारी और चित्रकारों की
विकास पोरवाल, नई दिल्ली : कभी बालमन को लुभाती तो कभी दादी-नानी की कहानियों में शामिल गौरैया को साहित्यकारों ने भी पन्नों में खास जगह दी है। यह लेखन के लिए सबसे चहकता विषय तो रही ही है, लोकरंग की सुंदरता को बिखरने का सटीक माध्यम रही है। यही वजह है कि गौरैया के सहारे कभी बच्चों को सीख दी गई, तो कभी गांव की किसी सुकुमारी के मनोभाव सामने रखे गए। आत्मीयता, समरसता और सरसता की सबसे सुंदर प्रतीक गौरैया प्रकृति दर्शन के चित्रों में भी अभिन्न अंग बन कर छाई रही है।
गौरैया की विभिन्न क्रियाओं को कवियों और साहित्यकारों ने अपने-अपने ढंग से सामने रखा है। प्रसिद्ध कवि घाघ ने तो इस जीव के जरिये लोकोत्तियां और कहावतें रच डालीं और नजूमी बन गए। उन्होंने गौरैया के धूल स्नान को प्रकृति और मौसम से जोड़कर कुछ इस तरह शब्द में उतारा है -
कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूल।
चींटी लै अंडा चढ़ै, तौ बरसा भरपूर।।
यानि कि गौरैया (चिड़िया) जब धूल में स्नान करें तो यह मानना चाहिए कि बहुत तेज बारिश होने वाली है।
इसी तरह आंचलिक कवि रामेंद्र जब मां के लिए अपनी मर्मस्पर्शी कविता लिखते हैं तो शहर से लेकर गांव की सभी माताओं की इच्छा को गौरैया के जरिये ही समेट पाते हैं-
मां चाहती है कि
हर घर के आंगन में
चमकती हुई, फुदकती हुई
बांटती रहे खुशियां यूं ही
मासूम नन्हीं गौरैया।
गद्य की विधा में गौरैया की चहचहाहट खूब गूंजी है। कथाकार भीष्म साहनी की लिखित कहानी दो गौरैया बालपन में सबकी प्रिय रही है। इसके सहारे बचपन के मनोभावों को सूक्ष्म शब्द दिए गए हैं।
गौरैया सिर्फ एक चिड़िया का नाम नहीं है, बल्कि हमारे परिवेश, साहित्य, कला, संस्कृति से उसका अभिन्न संबंध रहा है। आज भी बच्चों को चिड़िया के रूप में पहला नाम गौरैया का ही बताया जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि जिस घर में इनका वास होता है वहाँ बीमारी और दरिद्रता दोनों दूर-दूरतक नहीं आते हैं। जब विपत्ति आनी होती है तो ये अपना बसेरा उस घर से छोड़ देती हैं।