रोहिंग्याओं को लेकर टिप्पणी पर CJI को घेरने वालों पर पूर्व जजों का पलटवार, बोले-न्यायपालिका को बदनाम न करें
रोहिंग्या घुसपैठियों के मामले पर देश के शीर्ष न्यायविदों में टकराव हो गया है। चीफ जस्टिस की रोहिंग्याओं को लेकर टिप्पणी के बाद कई पूर्व जजों ने सार्वज ...और पढ़ें

जागरण संवाददाता, नई दिल्ली। रोहिंग्या घुसपैठियों के मामले पर देश के शीर्ष न्यायविदों में टकराव की स्थिति पैदा हो गई है। हाल ही में एक मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तीखे सवाल किए हैं। चीफ जस्टिस सूर्यकांत की अगुवाई वाली बेंच ने पूछा कि क्या भारत सरकार ने कोई ऐसा आदेश जारी किया है, जिसमें रोहिंग्याओं को ‘शरणार्थी’ घोषित किया गया हो?
अगर कोई घुसपैठियां है तो क्या हमारे लिए उसे यहां रखने का दायित्व है? अगर कोई घुसपैठिया आता है तो क्या हम उनके लिए लाल कारपेट बिछाकर स्वागत करें? हमारे देश में भी गरीब लोग हैं, नागरिक हैं। क्या वे सुविधाओं और लाभों के हकदार नहीं?
उनका यह पूछना कुछ न्यायविदों और तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अच्छा नहीं लगा और उनके समूह ने सुप्रीम कोर्ट को निशाने पर ले लिया है। ऐसे में पलटवार करते हुए देश के कई वरिष्ठ और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ चल रहे इस विरोध अभियान पर तीखी आपत्ति जताई है।
यह अभियान विशेष रूप से रोहिंग्या प्रवासियों को लेकर कोर्ट में हुए मुख्य न्यायाधीश के कुछ विचारों के बाद शुरू हुआ, जिसमें पांच दिसंबर को लिखा एक सार्वजनिक पत्र भी शामिल है।
पूर्व न्यायाधीशों ने स्पष्ट किया कि न्यायिक कार्यवाही पर उचित और तर्कसंगत आलोचना हो सकती है, मगर अब जो हो रहा है वह न्यायपालिका को बदनाम करने और उसके काम-काज को अस्थिर करने का प्रयास है। मुख्य न्यायाधीश से पूछे गए कानूनी सवाल कि अदालत के सामने प्रस्तुत स्थिति के अनुसार किसने इस दर्जे को कानूनी तौर पर मान्यता दी है, को गलत ढंग से पूर्वाग्रह बताया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि न्यायालय ने स्पष्ट रूप से यह भी कहा था कि भारत में कोई भी व्यक्ति, चाहे वह नागरिक हो या विदेशी, यातना, सुधार-रहित गायब किए जाने या अमानवीय व्यवहार का शिकार नहीं हो सकता, और हर व्यक्ति की गरिमा का सम्मान होना चाहिए। इन बातों को दबा कर अदालत पर "अमानवीयता" का आरोप लगाना पूरी तरह गलतफहमी पर आधारित है।
पूर्व न्यायाधियों ने निम्न महत्वपूर्ण तथ्य और कानूनी बातें दोहराई हैं
- रोहिंग्या प्रवासी भारत में भारतीय कानून के तहत शरणार्थी के रूप में स्वीकार नहीं किए गए हैं। उनकी अधिकांश प्रविष्टि अनुचित या अवैध है, और वे स्वयं अपनी स्थिति को "शरणार्थी" दर्जे में बदल नहीं सकते।
- भारत ने 1951 के यूएन शरणार्थी कन्वेंशन या उसके 1967 प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। देश की जिम्मेदारियां संविधान और राष्ट्रीय कानूनों के आधार पर तय होती हैं, न कि अंतरराष्ट्रीय संधियों के आधार पर।
- अवैध रूप से भारत में आए लोगों द्वारा आधार कार्ड, राशन कार्ड आदि प्राप्त करने की घटना गंभीर चिंता का विषय है, जिससे पहचान और कल्याण प्रणाली की विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती है।
- इस वजह से एक न्यायालय नियंत्रित विशेष जांच दल गठन आवश्यक है, जो अवैध दस्तावेज बनाने और जारी करने में शामिल अधिकारियों और नेटवर्क की जांच करे।
- रोहिंग्या के म्यांमार में भी एक जटिल स्थिति है, जहां उनकी नागरिकता विवादित है, जिसे ध्यान में रखते हुए कानूनी निर्णय करना चाहिए न कि राजनीतिक या भावनात्मक।
पूर्व न्यायाधियों ने सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश में पूर्ण विश्वास व्यक्त किया है और हस्ताक्षरकर्ताओं ने इस अभियान को न्यायपालिका का अपमान बताया है। उन्होंने कोर्ट के निर्णयों को देश की संप्रभुता और संविधान की गरिमा बनाए रखने वाला बताया। साथ ही, इस मामले में एक न्यायालय नियंत्रित SIT के गठन का समर्थन किया गया है।
वे कहते हैं, "भारत का संविधान मानवीय संवेदनशीलता और सुरक्षा दोनों की मांग करता है। न्यायपालिका ने दोनों का पालन करते हुए कार्य किया है, अतः इसे समर्थन मिलने चाहिए, न कि व्यक्तिगत हमले और बदनामी।"
इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक गंभीर संदेश माना जा रहा है। इस सार्वजनिक पत्र में अनिल दवे, डीके पालीवाल, ज्ञान प्रकाश मित्तल समेत कुल 44 सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के पूर्व जजों के हस्ताक्षर है। इसके पहले पूर्व जजों ने सुप्रीम कोर्ट की रोहिंग्या घुसपैठ पर टिप्पणी को अमानवीय बताया था।

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