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जब अंग्रेजी हुकूमत के दुर्व्यवहारऔर गैर बराबरी का विरोध करते हुए नाविक लाए सागर में तूफान

वह वर्ष 1946 था जब अंग्रेजी हुकूमत के दुव्र्यवहार और गैर बराबरी का विरोध करते हुए नौसेना में शामिल युवा नाविकों ने अन्याय के विरुद्ध हल्ला बोल दिया। इन युवाओं के समर्थन में मुंबई ही नहीं देशभर में कामगार सड़कों पर निकल आए थे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sun, 22 May 2022 09:16 AM (IST)Updated: Sun, 22 May 2022 09:16 AM (IST)
जब अंग्रेजी हुकूमत के दुर्व्यवहारऔर गैर बराबरी का विरोध करते हुए नाविक लाए सागर में तूफान
नौसैनिक विद्रोह भारत के स्वाधीनता संग्राम का वह अंतिम संघर्ष था, जिसने सत्ता के हस्तांतरण को तीव्र कर दिया था..

सुजाता शिवेन। देश स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में अपने उस भूले-बिसरे अतीत को भी याद कर रहा है, जिसे भुला दिया गया या अनदेखा किया गया। इस साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस परेड में भारतीय नौसेना ने ऐसी ही एक झांकी का प्रदर्शन किया। नौसेना की इस झांकी में 1946 के उस नौसैनिक विद्रोह को दर्शाया गया था, जिसका देश के स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान था। राजपथ पर प्रदर्शित नौसेना की ‘कांबैट रेडी, क्रेडिबल एंड कोहेसिव’ यानी ‘युद्ध सन्नद्ध, विश्वसनीय और एकजुट’ झांकी में 18 फरवरी, 1946 को रायल इंडियन नेवी के विद्रोह को दर्शाया गया था।

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युवाओं ने छेड़ा संघर्ष

वे नौजवान थे, ताकत और उत्साह से भरे हुए। उनमें एक अनुशासन था, क्योंकि वे एक भर्ती प्रक्रिया के तहत सम्मानजनक सेवा शर्तों के साथ जोड़े गए थे। पर जमीनी हालात बेहद विपरीत थे। उन्हें बुनियादी मानवीय सुविधाएं तक हासिल नहीं थीं। ऐसे समय में जब उनका देश स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रहा था, उन्होंने सपना देखा बराबरी और स्वाधीनता का। इसके लिए उनके पास इंतजार करने का समय नहीं था। कारण, हर पल गुलामी का एहसास कराने वाली अंग्रेजी अफसरानों की हरकतें उनके दिल में बर्छियों की तरह घुसतीं, जिससे न केवल उनका तन, मन और जज्बात, बल्कि आत्मा भी लहूलुहान हो उठती। हालांकि उनके सामने नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके द्वारा गठित आजाद हिंद फौज का आदर्श था। पर द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद आजाद हिंद फौज के हश्र और सितंबर 1945 में हवाई हादसे में नेताजी के मारे जाने की खबर ने उन्हें अवसाद में ढकेल दिया था। अपने हालात, आदर्श और संघर्षों के बीच फंसे ये युवा कसमसा ही रहे थे कि ब्रिटिश सरकार ने आजाद हिंद फौज के अफसरों के विरुद्ध देशद्रोह, हत्या और ब्रिटिश ताज के खिलाफ गैर-कानूनी युद्ध छेड़ने का मुकदमा कायम कर कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी। पहले से ही नाराज युवाओं के मन में इस घटना ने विद्रोह की आग सुलगा दी और एक तात्कालिक घटना ने 18 फरवरी, 1946 की तारीख को भारतीय इतिहास में ‘रायल इंडियन नेवी म्यूटिनी’ या ‘बांबे म्यूटिनी’ के नाम से दर्ज करा दिया।

अधूरे सच ने डाला पर्दा

हालांकि ब्रिटिश इतिहासकारों से इतर भारतीय लेखकों और इतिहासकारों के एक वर्ग ने इसे ‘स्वतंत्रता संग्राम की आखिरी जंग’ माना। कहते हैं पश्चिमपरस्त कुछ इतिहासकारों ने रायल इंडियन नेवी में भारतीय युवा नाविकों के इस अंसतोष को तात्कालिक और छोटे उद्देश्य से जोड़कर प्रचारित किया था। उन्होंने कहा कि सूचीबद्ध नाविकों और सेलर्स, जिन्हें नौसेना की भाषा में ‘रेटिंग्स’ कहा जाता था, ने झूठे भर्ती वादों, जिनमें अच्छा वेतन, अच्छा भोजन और तरक्की के साथ देश की रक्षा के लिए वर्दीधारी नौकरी की बातें शामिल थीं, न मिलने के चलते विद्रोह किया। पर यह अधूरा सच है।

इन बड़े वादों के बदले इन अच्छे घरों के युवाओं को बासी-सड़ा खाना, खराब कामकाजी स्थितियां, नस्लभेदी व्यवहार के साथ अपशब्द मिल रहे थे। लेखक प्रमोद कपूर अपनी पुस्तक ‘1946 रायल इंडियन नेवी म्यूटिनी: लास्ट वार आफ इंडिपेंडेंस’ में स्वतंत्रता की इस आखिरी जंग के हर पहलू को उजागर करते हुए लिखते हैं कि 18 फरवरी, 1946 को रायल इंडियन नेवी के जिन नाविकों ने विद्रोह किया, उनमें भयावह सेवा स्थितियों, भेदभाव और भर्ती की सेवा शर्तों को लेकर गुस्सा फूट पड़ा था। यह सच है कि इन नाविकों ने तब बगावत की जंग छेड़ दी, जब किंग आफ एचएमआइएस तलवार के कमांडर ने अपशब्द कहे थे।

मदद को आगे आए हाथ

उतना ही बड़ा सच यह भी है कि 16 से 25 वर्ष के इन युवाओं को पूरे भारतीय महाद्वीप के लोगों का साथ मिला। मुंबई और देशभर के कामगार उनकी मदद के लिए सड़कों पर निकल आए थे। 48 घंटे से भी कम समय में देखते ही देखते 20,000 लोगों ने 78 जहाजों और 21 तट प्रतिष्ठानों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने ब्रिटिश झंडे उखाड़ दिए और कांग्रेस पार्टी का झंडा फहरा दिया था। ये देखकर अंग्रेज घबरा गए थे। ब्रिटिश प्रधानमंत्री के कार्यालय और भारत के वायसराय के बीच हताशा और गुस्से से भरे तार आने-जाने लगे। नतीजतन ब्रिटिश फौज ने एयरफोर्स और फौज का इस्तेमाल किया। उधर आलम यह था कि लोग रेटिंग्स तक खुद खाना पहुंचा रहे थे। दुकानदार यह कहते हुए उनका स्वागत करते थे कि जो सामान चाहिए, वह ले जाएं, बदले में हमें उसकी कोई कीमत नहीं चाहिए। उस समय के प्रमुख अखबारों की हेडिंग इसी किस्से के आस-पास ही थी। उस पूरे संघर्ष में करीब 400 लोग मारे गए।

राष्ट्रीय नेतृत्व की नाकामी

आखिरकार नाविकों का यह विद्रोह 23 फरवरी को एकाएक खत्म हो गया। ऐसा क्यों हुआ, इसका आज तक पता नहीं चला। शायद उन्हें देश के बड़े नेताओं से मदद की जो उम्मीद थी, वह नहीं मिली थी। इन सबके बीच बड़े भारतीय नेताओं की भूमिका संदिग्ध थी। रेटिंग्स और क्रांतिकारियों का प्रतिनिधित्व करने वाली नेवल सेंट्रल स्ट्राइक कमेटी ने बाद में यह माना था कि नाविक संघर्ष खत्म करने के मूड में नहीं थे, क्योंकि उन्हें भय था कि युद्ध खत्म होने का मतलब था कि उन्हें पुन: आम नागरिकों के जीवन में लौटना पड़ेगा, जहां वापसी के बाद रोजगार की संभावनाएं न्यूनतम थीं। रेटिंग्स को इस बात का भी भय था कि उन्हें इंडोनेशिया में तैनात कर दिया जाएगा, जहां से जापानियों को निकालने के बाद डच लोग स्थानीय राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को कुचलते हुए अपना उपनिवेश बनाने की कोशिश में थे।

लेखक प्रमोद कपूर लिखते हैं कि नाविकों का यह विद्रोह महात्मा गांधी और अरुणा आसफ अली के साथ ही सरदार वल्लभ भाई पटेल और पंडित जवाहरलाल नेहरू के बीच सार्वजनिक असहमति का कारण बना। रेटिंग्स के साथ हुआ व्यवहार हमारे इतिहास में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान के राष्ट्रीय नेतृत्व की ‘नाकामी’ का दुखदायी अध्याय है।

नाविकों को कैद किया गया, उन्हें कैंपों में रखा गया, उनके बकाये का भुगतान किए बगैर नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हें इतिहास से भी गायब कर दिया गया। यहां ‘नाकामी’ जैसा शब्द पत्थर जैसी उस कठोर हकीकत को बयान करने के लिए नाकाफी है।

साम्राज्य के ताबूत की आखिरी कील

जो देश स्वतंत्रता सेनानियों की हर तरह की कोशिश को मान देता रहा है, वह अपने ही इन रणबांकुरों को सम्मान नहीं दे पाया, जबकि सच यही है कि यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम का वह अंतिम युद्ध था, जिसने सत्ता के हस्तांतरण को तेज किया। इससे ब्रिटिश सरकार को यह अच्छी तरह भान हो गया था कि उसे भारत भूमि शीघ्र छोड़नी होगी। इस युद्ध ने भारत के कवियों, चित्रकारों और प्रदर्शन-कला से जुड़े कलाकारों, गीत, कला और रंगमंच जगत को प्रेरित किया था, पर बाद की सियासत ने इसे दुखद रूप से न केवल दबा दिया बल्कि इसे हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की कहानियों से भी बाहर कर दिया गया। संतोष की बात यह है कि अब देश स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में ऐसे नायकों और कहानियों की बात करने लगा है।


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