सुभाष चंद्र बोस को लेकर गफलत में थे नेहरू, दी थी उनसे युद्ध की धमकी
कांग्रेस के नेता सुभाष चन्द्र बोस के सक्षम नेतृत्व में आजाद हिंद फौज के गठन और फौज के साहसिक कारनामों से अनजान थे।
नई दिल्ली (नलिन चौहान)। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिंदुस्तान मेंपहली बार आजाद हिंद फौज का नाम गूंजा था। ऐसा 1943 में अंग्रेज सेना के बर्मा को दोबारा जीतने के कारण हुआ। इस विजय के साथ अंग्रेज सरकार की आजाद हिंद फौज (आइएनए) की गतिविधियों पर लगाई सेंसरशिप खत्म हो गई। अंग्रेज सरकार ने 27 अगस्त 1945 को आइएनए के बंदी सैनिक अधिकारियों का कोर्ट मार्शल करने की सार्वजनिक घोषणा की। इस पेशी का मुख्य उद्देश्य, देश की जनता को यह जतलाना था कि वे गद्दार, कायर, अड़ियल और जापानियों की चाकरी में लगे गुलाम थे। यह कदम अंग्रेज सरकार की एक बड़ी भूल थी, जिसके दूरगामी परिणाम हुए।
...अंग्रेजों को था इस बात का डर
तत्कालीन अंग्रेज वायसराय एपी वावेल का भी मानना था कि आजाद हिंद फौज के अधिकारियों के कोर्ट मार्शल से भारतीय जनता को झटका लगेगा। तब के अंग्रेज सेनाध्यक्ष ऑचिनलेक को इस बात का भरोसा था कि जब आइएनए की क्रूरता के कुकृत्य सार्वजनिक होंगे तो उसके लिए सहानुभूति अपने से ही समाप्त हो जाएगी।
आजाद हिंद फौज के गठन से अनजान थे कांग्रेसी
15 जून 1945 को जब अंग्रेज सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन की विफलता के बाद कांग्रेस के नेताओं को देशभर की जेलों से छोड़ा तो राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक परिदृश्य में एक बड़ा परिवर्तन आ चुका था। दूसरी तरफ, कांग्रेस के नेता सुभाष चन्द्र बोस के सक्षम नेतृत्व में आजाद हिंद फौज के गठन और फौज के साहसिक कारनामों से अनजान थे। शायद यही कारण था कि जेल से अपनी रिहाई के बाद जवाहरलाल नेहरू ने एक सवाल के जवाब में कहा कि अगर नेताजी भारतीयों का नेतृत्व करते हुए भारत से लड़े तो वे नेताजी के साथ-साथ जापानी सेना के विरुद्ध संघर्ष करेंगे।
फौज की लोकप्रियता के चलते रिहा करना पड़ा था सैनिकों को
दिल्ली के लालकिले में आजाद हिंद फौज के अफसरों शाह नवाज, पीके सहगल और जीएस ढिल्लो का पहला मुकदमा 5 नवंबर 1945 को शुरू हुआ। जबकि 30 नवंबर 1945 को गवर्नर जनरल ने भारतीयों में आजाद हिंद फौज की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए मुकदमे के लिए पेश नहीं किए गए आइएनए के सैनिकों को रिहा करने का निर्णय किया।
आजाद हिंद फौज से परेशान हो गए थे अंग्रेज
7 दिसंबर 1945 को जब दोबारा मुकदमा शुरू हुआ तो यह बात जाहिर हुई कि जापानी सेना का आचरण विधि सम्मत नहीं था। मुकदमे में अभियोजन पक्ष के पहले गवाह अंग्रेज सेना में एडजुटेंट जनरल की शाखा के डीसी नाग, जो कि सिंगापुर में कैदी बने, के साथ जिरह में आजाद हिंद फौज के एक संगठित, कुशल प्रशासन वाली सक्षम सेना होने की बात सबके सामने आई। इसका परिणाम यह हुआ कि अचानक सारे राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र आइएनए के कारनामों से भर गए। अंग्रेज सरकार को आइएनए के कारनामों से इतनी परेशानी हुई कि उसने बीबीसी को फौज पर समाचार देने से रोका। इस तरह पहली बार आजाद हिंद फौज का वास्तविक देशभक्त रूप सबके सामने आया।
‘आजाद हिंद फौज का इतिहास’ पुस्तक के अनुसार, मार्च 1946 के अंत तक केवल 27 मुकदमे शुरू किए गए थे या विचाराधीन थे। आजाद हिंद फौज और उसके मुकदमों ने अंग्रेज सरकार को यह स्पष्ट संदेश दे दिया कि अब उनकी विदाई की घड़ी आ गई है। वायसराय ने अंग्रेज सरकार को चेताते हुए कहा कि पहली बार पराजय का भाव न केवल सिविल सेवाओं बल्कि भारतीय सेना पर नजर आया।
(लेखक, दिल्ली के अनजाने इतिहास के खोजी है )