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'वुजू करूं अजमेर में, काशी में स्नान'- नहीं रहे नामचीन शायर बेकल उत्साही

मशहूर शायर और पूर्व राज्यसभा सदस्य पद्मश्री बेकल उत्साही का शनिवार को निधन हो गया। दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।

By Amit MishraEdited By: Published: Sat, 03 Dec 2016 07:23 PM (IST)Updated: Sun, 04 Dec 2016 12:00 PM (IST)
'वुजू करूं अजमेर में, काशी में स्नान'- नहीं रहे नामचीन शायर बेकल उत्साही

नई दिल्ली [नवनीत शर्मा]। गंगा जमुनी तहजीब के नामचीन शायर बेकल उत्साही का शनिवार सुबह राजधानी के राममनोहर लोहिया अस्पताल में ब्रेन हेमरेज से देहांत हो गया। वह 88 वर्ष के थे। कांग्रेस से राज्यसभा सदस्य रहे बेकल पद्मश्री से भी अलंकृत थे। मूलत: बलरामपुर के रहने वाले बेकल उत्साही के परिवार में पत्‌नी, दो बेटे और चार बेटियां हैं। पारिवारिक सूत्रों के अनुसार उन्हें बलरामपुर में रविवार को सुपुर्द-ए-खाक किया जाएगा। उन्हें यश भारती सम्मान भी मिल चुका है।

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अजमेर में वुजू, काशी में स्नान करने वाला शायर

पंडित जवाहर लाल नेहरू के उन्हें 'उत्साही' कहने पर बेकल उत्साही बने मोहम्मद शफी खान के देहांत के साथ ही हिंदी की स्त्रोत भाषाओं और उर्दू के बीच का पुल, जमीन से जुड़ा शायर देश ने खो दिया। बेकल ने हिंदी, उर्दू में गजलें, नज्में, दोहे और अवधी में गीत भी लिखे।

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जिगर मुरादाबादी के शिष्य रहे बेकल ने करीब दो दर्जन किताबें लिखीं। आमतौर पर हिंदू शायर भी अपना उपनाम उर्दू या फारसी शब्दों में रखते रहे हैं। कुछ अपने गांव का नाम भी इस्तेमाल करते हैं लेकिन बेकल के नाम के दोनों हिस्से हिंदी के हैं। न ही वह बलरामपुरी या गोंडवी हुए। कई शैक्षणिक संस्थाओं के प्रबंधन से जुड़े और कई संस्थाओं को मदद देने वाले बेकल का लक्ष्य ऐसा शिक्षित समाज रहा जिसमें मानवता ही प्रधान हो। बेकल की शायरी में रोमांस जिस नफासत से साथ आया, उसी गहराई के साथ अध्यात्म भी दिखा।

उन्होंने लिखा है

मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूं/ तो पहले एक गजल तेरे नाम लिखता हूं। न राब्ता न कोई रब्त ही रहा बेकल/ उस अजनबी को मगर मैं सलाम लिखता हूं।

इंसानियत के शायर थे

आदमी को आदमी से दूर करने वाली हर साजिश के खिलाफ वह न केवल शायरी में बल्कि जिंदगी में भी डटे रहे। उर्दू शायर सरवत जमाल के शब्दों में बेकल गंगा जमनी सभ्यता के ऐसे शायर थे जिनके लिए मानवता ही सबसे बड़ी बात थी। दिवंगत शायर मलिकजादा मंजूर अहमद के पुत्र मलिकजादा जावेद कहते हैं, 'वह इंसानियत के शायर थे।'

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उन्होंने हमेशा मानवता में लोक के बिंब उठा कर उसे गजल में पिरो कर आदमी से आदमी के कटने को यूं बयान किया- ये दुनिया तुझसे मिलने का वसीला काट जाती है/ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है। किसी कुटिया को जब बेकल महल का रूप देता हूं/शहंशाही की जिद मेरा अंगूठा काट जाती है

वह मनुष्यता के हक में खड़े रहे और जलती हुई बस्तियों में अपना ही धुआं फैलता हुआ देखते रहे- किसी बस्ती को जब जलते हुए देखा तो ये सोचा/ मैं खुद ही जल रहा हूँ और फैला है धुआं मेरा। हालांकि वह कांग्रेस से राज्यसभा में भी रहे लेकिन सियासत पर भी तंज करते थे।

फसले गुल कब लुटी नहीं मालूम/कब बहार आई थी नहीं मालूम। दौरे हाजिर की बज्म में बेकल/कौन है आदमी नहीं मालूम। उनकी शख्सियत को उनके इस दोहे से जाना जा सकता है। धर्म मेरा इस्लाम है, भारत जन्म स्थान /वुजू करूं अजमेर में, काशी में स्नान।


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