Move to Jagran APP

अंग्रेजों को मुंह तोड़ जवाब की मिसाल है तिब्बिया कालेज

तिब्बिया का स्वर्णिम सफर यूनानी-आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के संघर्ष की दास्तां को बखूबी बयां करता है। कभी यह मदरसा हुआ करता था। दरअसल हकीम अब्दुल मजीद खां ने 1883 में गली कासिम जान में इसकी स्थापना की थी नाम दिया था मदरसा-ए-तिब्बिया।

By Prateek KumarEdited By: Published: Sat, 13 Feb 2021 04:57 PM (IST)Updated: Sat, 13 Feb 2021 04:57 PM (IST)
अंग्रेजों को मुंह तोड़ जवाब की मिसाल है तिब्बिया कालेज
तिब्बिया कालेज सौ साल का हो गया।

नई दिल्ली, संजीव कुमार मिश्र। तिब्बिया कालेज आज सौ साल का हो गया। 13 फरवरी 1921 के दिन ही तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने करोल बाग में इस कालेज का उद्घाटन किया था। तिब्बिया का स्वर्णिम सफर यूनानी-आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के संघर्ष की दास्तां को बखूबी बयां करता है। कभी यह मदरसा हुआ करता था। दरअसल, हकीम अब्दुल मजीद खां ने 1883 में गली कासिम जान में इसकी स्थापना की थी, नाम दिया था मदरसा-ए-तिब्बिया। अब्दुल मजीद खां के निधन के बाद बड़े भाई हकीम मुहम्मद अजमल खां ने 1903 में संस्थान की देखभाल का जिम्मा संभाला।

loksabha election banner

1911 में ही अजमल खां ने हिंदुस्तानी दवाखाना शुरू किया। जिसमें मुंशी मानसिंह का भी बड़ा योगदान था और इस तरह आयुर्वेद की पढ़ाई भी शुरू हुई। हकीम जी आयुर्वेद एवं यूनानी चिकित्सा पद्धति के प्रचार प्रसार के हिमायती थे। अंग्रेजों ने एलोपैथी को बढ़ावा देने के चक्कर में भारतीय चिकित्सा पद्धति पर प्रतिबंध लगा दिया था। हकीम साहब ने इसके खिलाफ आंदोलन खड़ा कर दिया। पुरजोर खिलाफत का नतीजा यह निकला कि ब्रितानिया हुकूमत को 1916 में प्रतिबंध वापस लेना पड़ा।

हकीम अजमल खां पुरानी दिल्ली में आधुनिक सुविधाओं से संपन्न संस्थान खोलना चाहते थे। इसके लिए जर्मनी, आस्टिया, इंग्लैंड समेत यूरोप के कई देशों में मेडिकल कालेज का निरीक्षण किया। वहां से लौटकर मदरसा-ए-तिब्बिया को करोल बाग स्थानांतरित किया। यहां 33.33 एकड़ जमीन खरीदी गई। करोल बाग आने पर संस्थान का नाम बदलकर आयुर्वेद एवं यूनानी तिब्बिया कालेज कर दिया गया। आम बोलचाल में लोग तिब्बिया कालेज ही कहते हैं। वायसराय लार्ड हार्डिंग ने 29 मार्च, 1916 में इसका शिलान्यास किया जबकि 13 फरवरी 1921 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसका उद्घाटन किया। 1 मई 1998 से इसकी देखरेख का जिम्मा दिल्ली सरकार के पास है।

चेहरा देखकर बीमारी बताने वाले हकीम हकीम अजमल खां के बारे में कहा जाता था कि उनमें अद्भुत शक्ति थी। वो मरीज का चेहरा देखकर बीमारी बता देते थे। अजमल खां रामपुर के नवाब के मुख्य चिकित्सा अधिकारी भी थे। इन्हें मसीहा-ए-हिंद की उपाधि मिली हुई थी। हकीम साहब अपने दवाखाने में मरीजों को निश्शुल्क ही देखते थे। चाहे वो किसी रिसायत का राजा या नवाब ही क्यों ना हो, एक रुपया भी नहीं लिया जाता था। लेकिन हां, यदि वो दिल्ली से बाहर जाकर किसी मरीज को देखते थे तो 1000 रुपये शुल्क लेते थे। जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना में भी इनका अहम योगदान है। ये जामिया के पहले कुलपति भी थे।

तिब्बिया कालेज खोलने का मकसद आयुर्वेद एवं यूनानी चिकित्सा में शोध को बढ़ावा देना था। तिब्बिया कालेज के निदेशक डा राज के मनचंदा कहते हैं कि यहां वर्तमान में 200 बेड का अस्पताल है एवं यूनानी और आयुर्वेदिक विभाग हैं। जिसके तहत शोध कार्य होते हैं। कालेज ने एक हजार से अधिक कोरोना संक्रमित मरीजों का इलाज किया। खास बात यह कि इस इलाज में एलोपैथी का इस्तेमाल न के बराबर हुआ। योग, यूनानी एवं आयुर्वेदिक दवाइयों से ही मरीज ठीक किए गए। यहां एक भी कोरोना संक्रमित की मौत भी नहीं हुई।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.