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Interview: दिल्ली में रहकर हिंदी की रोटी खाई है- प्रोफेसर इंद्रनाथ

दिल्ली के साहित्यिक जीवन व दिल्ली विवि में पढ़ाने के अलावे प्रशासन व सांस्कृतिक तुलनात्मक साहित्य क्षेत्र से 50 वर्षों तक जुड़े रहे सो।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 12 Mar 2020 03:56 PM (IST)Updated: Thu, 12 Mar 2020 07:54 PM (IST)
Interview: दिल्ली में रहकर हिंदी की रोटी खाई है- प्रोफेसर इंद्रनाथ
Interview: दिल्ली में रहकर हिंदी की रोटी खाई है- प्रोफेसर इंद्रनाथ

नई दिल्ली, रितु राणा। परिवार भले बांग्ला भाषी हो लेकिन वर्ष 1936 में बंगाली परिवार में दिल्ली की धरा पर जन्में प्रोफेसर इंद्रनाथ चौधुरी, इस शहर में अपनी पैदाइश होना, सौभाग्य मानते हैं। पुरानी दिल्ली की गलियों में बीते बचपन को जीवन का स्वर्णिम दौर बताते हैं। संस्कार भले बंगाली मिले, पर दिल ने हिंदी भाषी बना दिया। दिल्ली के साहित्यिक जीवन व दिल्ली विवि में पढ़ाने के अलावे प्रशासन व सांस्कृतिक तुलनात्मक साहित्य क्षेत्र से 50 वर्षों तक जुड़े रहे सो, इन्हीं से जुड़ी स्मृतियों पर प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश...

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’ दिल्ली जन्म भूमि है, फिर तो अद्भुत यादें होंगी?

हां, मेरे पिता प्रोफेसर नरेश वर्ष 1926 में कोलकाता से दिल्ली आए थे। वह दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक थे। 1942 की बात है, मेरी उम्र करीब छह साल रही होगी। उन दिनों रामजस कॉलेज आनंद पर्वत इलाके में होता था। मुझे अपने बचपन की उम्र की वो घटना याद है जब वह पूरा क्षेत्र छावनी में तब्दील हो गया था और हम लोग दरियागंज में रहने चले गए थे। उस समय दरियागंज किले के माफिक चारों ओर से दीवारों से घिरा होता था। उसके बगल से यमुना नदी बहती थी। तब नदी बहुत सुंदर व साफ होती थी।

पिताजी ने मेरा दाखिला रामजस स्कूल नंबर-1 में पांचवीं कक्षा में करा दिया था। मुझे अभी भी याद है उस स्कूल के प्रधानाचार्य का नाम शादी लाल था। स्कूल के बाद दोस्तों के साथ साइकिल से दरीबा कलां चले जाते थे वहां बेडमी पूड़ी-सब्जी और जलेबी बहुत अच्छी मिलती थी। हम सारे दोस्त साइकिल से ही दरियागंज, दरीबा कलां, किनारी बाजार, भूत वाली गली, बल्लीमारान, चावड़ी बाजार तक घूमते थे। पुरानी दिल्ली की गलियों में मेरा बचपन बीता है, युवावस्था बीती है, वहां की हर गली आज भी याद है। इस शहर ने मुझे इतना अपनापन दिया बता नहीं सकता। मैं इसका कर्जदार हूं। वैसे तो मैं बांग्ला भाषी हूं लेकिन मैंने दिल्ली में रहकर हिंदी की रोटी खाई है।

’ क्या आनंद पर्वत स्वतंत्रा की लड़ाई के कारण छावनी में तब्दील था?

हां, इसीलिए तो हम दरियागंज आ गए थे। 1942 में जब महात्मा गांधी ने क्वीट इंडिया का नारा दिया तब चारों तरफ अफरा-तफरी मच गई थी। हालांकि गांधी ने र्अंहसा की बात की लेकिन फिर भी लोगों के भीतर देशभक्ति की भावना जोश अलग ही तरीके से हिलोरे लेने लगा था। वे स्ट्रीट लाइटें तोड़ने लगे, सड़कों पर जुलूस निकालते थे। फिर जब 1947 में देश आजाद हुआ तब दिल्ली की अलग ही फिजा थी। कहीं मारकाट मची थी तो कहीं लोगों के चेहरे पर आजादी की खुशी थी। हमलोगों ने बंदनवार से घर सजाया। स्कूल में हमें पीतल की तश्तरी मिली, जिसमें मिठाइयां रखी थीं। 15 अगस्त को स्कूल की छुट्टी हो गई थी तो हम लोग जवाहरलाल नेहरु का भाषण सुनने लाल किला भी गए थे। उनका भाषण सुनकर खूब उत्साहित हुए थे।

’ आजादी की लड़ाई की स्मृतियां भी होंगी?

वर्ष 1947 में पंजाब से बहुत सारे लोग दिल्ली आए थे। उनमें से बहुत से बच्चों ने हंसराज कॉलेज में दाखिला लिया था। वहां प्राचार्य के कमरे के साथ एक रेस्ट रूम होता था। गणित के एक प्रोफेसर शांति नारायण ने बच्चों को वहां शरण दी। बच्चों के सोने के लिए बिस्तर रखे गए। उनके लिए 24 घंटे लाइब्रेरी भी खोली गई। 1947 से पहले दिल्ली में हिंदू- मुस्लिम में खूब प्रेम व एकता थी, लेकिन बंटवारे ने उन्हें अलग कर दिया वर्ना अपने समय में हमने कभी इतनी नफरत नहीं देखी थी। एक किस्सा बताता हूं मेरे पिता के दोस्त के बेटे की शादी थी। वह मंडप में बैठ चुका था, लेकिन शादी की रस्में शुरू नहीं कर रहा था। सबने पूछा क्या हुआ तो उसने कहा जब तक अकबर नहीं आ जाएगा मैं शादी कैसे कर लूं। अकबर उसका बहुत ही प्रिय मित्र था। भले ही दोनों एक-दूसरे के घर खाना नहीं खाते, लेकिन उनके बीच अटूट प्रेम था। अब काफी बदलाव आ गया है। मेरा भी एक जिगरी दोस्त कादीर जुमां मुस्लिम था वह रहता हैदराबाद में था, लेकिन मेरी दोनों बेटियों की शादी में दिल्ली आया और मेरे घर पर ही रुका था।

’ बंगाली परिवार में जन्म हुआ, फिर हिंदी में रुचि कैसे बनी?

अब जिसकी परवरिश दिल्ली की बोली-ठिठोली में होगी तो हिंदी भाषी होना स्वाभाविक है। स्कूल में भी हिंदी का ही माहौल मिला, जिससे मेरी हिंदी में रुचि पैदा होने लगी। मुझे दिल्ली विवि में दाखिला लेना था लेकिन तब मेरी उम्र साढ़े चौदह वर्ष थी और कॉलेज में दाखिला लेने के लिए उस समय सोलह वर्ष उम्र हुआ करती थी। फिर मैंने हिंदी की दो बड़ी परीक्षाएं प्रभाकर व प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित साहित्य रत्न की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। इससे मैं हिंदी के और करीब हो गया। पिता की इच्छा थी कि मैं बांग्ला भी पढूं इसलिए मैंने रामजस कॉलेज से बांग्ला में स्नातक की पढ़ाई की। उसके बाद मैंने सेंट स्टीफंस कॉलेज से अंग्रेजी में एमए की, लेकिन मेरा रिजल्ट अच्छा नहीं रहा, इसलिए हंसराज कॉलेज में दोबारा एमए हिंदी में दाखिला लिया। मैंने 1960-80 तक दिल्ली विवि में हिंदी पढ़ाई भी थी। उसके बाद तो हिंदी मेरी सबसे प्रिय भाषा बन गई।

’ आप 20 वर्ष दिल्ली विवि में रहे वहां का माहौल कैसा था?

दिल्ली विवि में डॉ. नगेंद्र, उदय भानु सिंह, विजेंद्र स्नातक, ज्ञान प्रताप व विष्णु प्रभाकर मिले, उनके साथ काफी अच्छा समय बीता। उन दिनों दिल्ली विवि दो गुटों में विभाजित था। एक लेफ्टिस्ट जिसका प्रतिनिधित्व नामवर सिंह करते थे और दूसरा राइटिस्ट जिसका प्रतिनिधित्व डॉ. नगेंद्र करते थे। दोनों के पक्ष प्रबल थे, नगेंद्र सैद्धांतिक आलोचना तो नामवर सिंह व्यवहारिक आलोचना के आचार्य थे। मेरे दोनों से ही अच्छे संबंध थे। उन दिनों वहां बड़े-बड़े लेखक आते थे, खूब गोष्ठियां होती थीं। मेरी पत्नी ऊषा चौधुरी ने भी रामजस कॉलेज से पढ़ाई की। वह मेरे पिता की ही छात्रा थीं। वह इंद्रप्रस्थ कॉलेज में प्रोफेसर भी रह चुकी हैं।

’ एक बार फिर आपकी पुरानी दिल्ली के बचपन की तरफ लौटेंगे, वहां की कुछ और यादें बताइए?

मुझे दिल्ली में शादियों के आयोजन बहुत पसंद थे। गजब के स्वादिष्ट व्यंजन होते थे। उन दिनों शादी में एक तश्तरी मिलती थी, जिसमें इमरती, पिस्ता, बालू शाही, पीली बर्फी और चीनी वाला लड्डू होता था। इसके अलावा कचौड़ी, पूड़ी और तीखा वाला रायता। जामा मस्जिद के पास शमीम कबाब मिलता था उसके कबाब और गुलाब जामुन में कोई फर्क नहीं होता था।

’ कभी दिल्ली पर कुछ लिखने के बारे में नहीं सोचा?

मैंने कभी रचनात्मक लेखन नहीं किया। मेरा विषय तो आलोचनात्मक लेखन का रहा है, लेकिन अब विवेकानंद पर मेरी एक पुस्तक आने वाली है, जिसमें कई जगह दिल्ली का जिक्र है। विवेकानंद की दिल्ली यात्रा का उसमें काफी विवरण है। सस्ता साहित्य मंडल द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में पाठक जरूर दिल्ली दर्शन कर सकते हैं। दिल्ली को मैंने बहुत जिया तो खूब लेकिन शब्दों में उसे बुन नहीं पाया, अब कुछ लिख रहा हूं। अभी पुस्तक का नाम नहीं सोचा है, पर जल्द ही वो पाठकों को पढ़ने के लिए मिल जाएगी।

’ उन दिनों दिल्ली में साहित्यिक अड्डे कहां-कहां होते थे?

दिल्ली में उन दिनों कई साहित्यिक अड्डे हुआ करते थे। खूब गोष्ठियां होती थीं। बड़े-बड़े साहित्यकार आते थे। दिल्ली विवि में एक बड़ा कॉफी हाउस हुआ करता था। वहां अमत्र्य सेन कॉफी पीने आते थे। आट्र्स फैकल्टी में पहले वेंगर रेस्त्रां होता था जहां आज पुस्तकालय है। वहां पर साहित्यकारों की खूब तीखी बहस होती थी। सभी लेखक वहां एकत्र होकर वाद-विवाद किया करते थे। इसके अलावा कनॉट प्लेस में भी कॉफी हाउस होता था। विष्णु प्रभाकर के साथ हमलोग वहां अक्सर जाते थे। वहां की एक खास बात यह थी कि हम एक कप कॉफी के साथ दो घंटे आराम से बैठते थे। वहां यशपाल जैन, नागार्जुन, अमृत राय आदि आते थे। जनपथ पर

टी हाउस भी बड़ा साहित्यिक अड्डा होता था।

’ साहित्यकार मित्रों से जुड़े या उस परिवेश के संस्मरण भी होंगे?

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के घर तो खूब जाया ही करते थे। कवि केदारनाथ से भी मेरे घनिष्ठ संबंध थे। वह अक्सर मुझे कविता पाठ सुनाते थे। एक बार मैं उनके पास बैठा था मैंने उन्हें कविता सुनाने के लिए कहा तो उन्होंने मुझे कविता सुनाई हिमालय किधर है? ‘मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर पतंग उड़ा रहा था, उधर-उधर-उसने कहा, जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी’। सच कहूं तो मैंने पहली बार जाना हिमालय किधर है? इस कविता की पंक्तियां मेरे दिल में बस गईं, जिन्हें मैं आज तक भुला नहीं पाया। इसी तरह एक एक किस्सा जब मैं साहित्य अकादमी का सचिव था तब का बताता हूं। हरिवंश राय बच्चन की 75वीं वर्षगांठ थी।

तब मैंने उनके पुत्र अमिताभ बच्चन को साहित्य अकादमी में बुलाया था। पूरा हॉल दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। अमिताभ के साथ उनकी पत्नी जया बच्चन भी आई थीं। उज्जैन से शिव मंगल सिंह सुमन को बुलाया था। वह खद्दर के कपड़े पहन कर आए थे। स्वागत भाषण उन्हें देना था। मैंने उन्हें 30 मिनट का समय दिया। उनका भाषण शुरू हुआ तो 30 मिनट से ऊपर हो गया। उनका भाषण रुक ही नहीं रहा था जब एक घंटा से ऊपर हो गया तो मैंने उन्हें घड़ी दिखाकर इशारा किया तो उन्होंने स्टेज पर ही जोर से बोला इंद्रनाथ मुझे घड़ी दिखा रहा है तो अब मैं रुक जाता हूं, लेकिन बच्चन जी की 100वीं वर्षगांठ पर मैं अपना ये भाषण पूरा करूंगा।

’ दिल्ली के कला, संस्कृति व साहित्यिक परिवेश का आप पर क्या प्रभाव पड़ा?

मुझे जो कुछ मिला वह सब दिल्ली में मिला है। मेरे जीवन पर यहां के साहित्यिक परिवेश ने ऐसा प्रभाव डाला कि मैंने अंग्रेजी व बांग्ला से ऊपर हिंदी को अपना माना है। दिल्ली विवि में मुझे बड़े-बड़े साहित्यकारों के बीच रहने का मौका मिला जिससे मेरा साहित्य के प्रति लगाव बढ़ता चला गया। बंगाली हूं तो नाट्य प्रेम मेरी रगों में था, इसलिए मंडी हाउस स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में बच्चों को लेकर नाटक देखने जाता था।

’ आपने दिल्ली शहर को कैसे बदलते देखा है?

नई दिल्ली में बंगाली ज्यादा रहते थे। वहां के सरकारी दफ्तर पहले बंगाली बहुल नजर आते थे। आप किसी भी बंगाली के घर जाते तो पानी के साथ दो बताशे से स्वागत किया जाता था अब ऐसा देखने को नहीं मिलता है। दिल्ली में पहले बनियों की शादी देखने लायक होती थीं। उनकी शादी का एक अलग ही आकर्षण होता था। दिल्ली में पहले इतना प्रदूषण भी नहीं था। छुट्टी का दिन मतलब लाल किला, इंडिया गेट, चिड़िया घर आदि जगहों पर घूमना होता था, लेकिन अब तो चारों ओर प्रदूषण है। लोगों का कहीं भी आना-जाना दुश्वार हो गया है। प्रदूषण के कारण लोग बिमारियों से जकड़ गए हैं।


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