Swami Vivekananda Jayanti 2021: एक राजा एक स्वामी दोनों की मित्रता है निराली
संत स्वामी विवेकानंद का राजस्थान के खेतड़ी जिला (झुंझुनू) के राजा अजीत सिंह से गहरा नाता था। दोनों ही मानवता के कल्याण के लिए कमर कसे हुए थे लेकिन एक भारतवर्ष के पूर्वी किनारे पर और दूसरा पश्चिमी किनारे पर।
मनु त्यागी, नई दिल्ली। महान परिव्राजक संत स्वामी विवेकानंद का राजस्थान के खेतड़ी जिला (झुंझुनू) के राजा अजीत सिंह से गहरा नाता था। दोनों ही मानवता के कल्याण के लिए कमर कसे हुए थे, लेकिन एक भारतवर्ष के पूर्वी किनारे पर और दूसरा पश्चिमी किनारे पर। ऐसा लगता है कि उन्नींसवी शताब्दी के महान संत स्वामी विवेकानंद जी का जीवन राजा अजीत सिंह के संयोग के बिना अधूरा होता, राजा अजीत सिंह उनके शिष्य और मित्र दोनों ही थे ।
राम कृष्ण परमहंस से संपूर्ण आध्यात्मिक विद्या ग्रहण करने के बाद जब स्वामी विवेकानंद भारत भ्रमण पर निकले तब उनकी भेंट खेतड़ी के महल में राजा अजीत सिंह से हुई। लगभग तीन माह तक स्वामी जी महल के एक कक्ष में रुके, जहां पर दोनों ही विभूतियों में उच्च कल्याणकारी विचारों का आदान प्रदान हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए प्रोफेसर शशि भूषण त्यागी के मुताबिक ‘जब राजा अजीत सिंह ने स्वामी जी कि विलक्षण प्रतिभा को देखा तो उन्हें लगा कि यह महा मानव मेरे उद्देश्यों को विश्व कि पराकाष्ठा तक ले जा सकता है।
तीन महीनों के प्रवास में सर्व प्रथम राजा अजीत सिंह ने स्वामी जी को विवेकानंद नाम दिया उससे पहले वे इस नाम से नहीं जाने जाते थे। स्वामी जी ने खेतड़ी के महल में एक पुस्तकालय भी स्थापित किया, उन्होंने पाणिनी के व्याकरण का अध्ययन भी यहीं रहकर किया जिससे की वे संस्कृत के गूढ़ ज्ञान को समझ सकें। अमेरिका में धर्म संसद को संबोधित करने से पूर्व स्वामी विवेकानंद को महाराजा अजीत सिंह ने साफा उपहार स्वरूप दिया जिसको स्वामी विवेकानंद ने हमेशा अपने शीश पर धारण किया।
विवेकानंद जी के संन्यास ग्रहण करने के बाद उनके घर की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी। राजा अजीत सिंह ने आर्थिक स्थिति का ध्यान रखते हुए स्वामी विवेकानंद की माता की बहुत सहायता की उन्होंने स्वामी जी की माता के लिए मासिक पेंशन भी निर्धारित की जो कि स्वामी विवेकानंद के बाद भी उनकी माता को मिलती रही। एक बार जब राजा अपने महल में मनोरंजन के लिए नृत्यांगनाओं का नृत्य देखने जा रहे थे तो स्वामी जी उनके पास बैठे थे।
लेकिन जैसे ही स्वामी जी ने नृत्यांगनाओं को आते देखा तो वो उठकर अपने कक्ष में चले गए यह देखकर एक नृत्यकी मायना बाई बहुत दुखी हुईं उसे लगा कि यह सब स्वामी जी को अच्छा नहीं लगता। फिर मायना बाई ने सूरदास का एक भजन गाया (प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो, समदर्शी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो ----) यह भजन स्वामी विवेकानंद के हृदय को छू गया और उन्होंने बोला कि आज उनकी आखों में एक नए ज्ञान का प्रकाश है और इस प्रकार स्वामी जी ने उस नृतकी को अपने आशीर्वाद दिये। स्वामी विवेकानंद ने अपने लेखन में अनेकों बार कहा है कि खेतड़ी से उन्होंने बहुत कुछ ग्रहण किया है।
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