वो दिन 26 मई 1999 का था, रणबांकुरों ने बर्फीली चोटियों पर लिखा वीरता का इतिहास
गोलियों की बौछारों के बीच सुखबीर विचलित नहीं हुए और जवाबी फायर करते हुए उग्रवादियों की ओर दौड़े, उसी समय आतंकियों ने उनकी ओर एक गोला दाग दिया।
रेवाड़ी [कुष्ण कुमार]। अदम्य वीरता और साहस का जब कभी जिक्र हो और अहीरवाल के रणबांकुरों की शौर्य गाथा को याद न किया जाए ऐसा हो ही नहीं सकता। स्वाधीनता आंदोलन हो या फिर आजादी के बाद की लड़ाइयां, यहा के वीर सपूतों ने राष्ट्र रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने से कभी परहेज नहीं किया। सीने पर गोलियां खाकर मां भारती की एकता व अखंडता के लिए कुर्बानी दी। कारगिल युद्ध में भी यहां के सुखबीर सिंह जैसे वीरों ने शहादत का गौरवपूर्ण इतिहास लिखा। ऐसा इतिहास जिसे सुनकर भुजाएं फड़क उठती हैं।
बर्फीली चोटी पर लिखा वीरता का इतिहास
कारगिल में शहादत देने वाले यहां के गांव धामलावास निवासी सुखबीर सिंह को अहीरवाल क्षेत्र से प्रथम कारगिल शहीद कहा जाता है। सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) में डिप्टी कमाडेंट पद पर तैनात सुखबीर सिंह ने दुर्गम व बर्फीली चोटी पर वीरता का इतिहास लिखा था।
बर्फीली हवाओं पर भारी देशभक्ति का जज्बा
वह 26 मई 1999 का दिन था। देर शाम पौने आठ बजे सुखबीर अपने साथियों सहित कारगिल के छेनीगुंढ इलाके में तैनात थे। खून जमा देने वाली बर्फीली हवा चल रही थी, लेकिन देशभक्ति का जज्बा बर्फीली हवाओं पर भारी था। जब वह भारतीय सीमा की चौकसी के लिए लगाई गई चेक पोस्ट का निरीक्षण करने जा रहे थे तभी घाटियों के बीच घात लगाकर बैठे पाकिस्तानी आतंकवादियों ने उन पर हमला कर दिया।
विचलित नहीं हुए सुखबीर
गोलियों की बौछारों के बीच सुखबीर विचलित नहीं हुए और जवाबी फायर करते हुए दुश्मनों की ओर दौड़े, उसी समय आतंकियों ने उनकी ओर एक गोला दाग दिया। दुश्मन के इस हमले में सुखबीर गंभीर रूप से घायल हो गए, लेकिन उन्होंने धैर्य नहीं खोया और अपने साथियों को दुश्मनों को खदेड़ने का आदेश दिया। घायल सुखबीर को श्रीनगर के आर्मी बेस अस्पताल में पहुंचाया गया, लेकिन तब तक वे शहीद हो चुके थे।
धामलावास में जन्मा था वीर सपूत
गांव धामलावास में 12 दिसंबर 1961 को पैदा हुए सुखबीर सिंह को वीरता के गुण पिता रघुवीर सिंह से मिले थे। पैतृक गांव धामलावास से प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद सुखबीर ने स्नातकोत्तर की शिक्षा हिसार से प्राप्त की थी। उनकी भावना को देखते हुए उनके पिता ने उन्हें सीमा सुरक्षा बल में भर्ती होने के लिए कहा। उन्होंने अगस्त 1986 में बीएसएफ में कमीशन प्राप्त किया। एक वर्ष के कड़े प्रशिक्षण के बाद वे डिप्टी कमाडेंट के पद पर तैनात हुए। वर्ष 1987 में उनकी पहली नियुक्ति जम्मू-कश्मीर में हुई, जहा उन्होंने कई आतंकियों का सफाया किया। इसके लिए उन्हें सेवा मेडल दिया गया।
सांसद रह चुकी हैं शहीद की पत्नी
1988 में उन्हें आतंकवाद से ग्रस्त पंजाब भेज दिया गया, जहा बहादुरी से मुकाबला करने के कारण वे उनकी हिट लिस्ट में आ गए। वर्ष 1990 में उनकी नियुक्ति फिर से जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में कर दी गई। इस बीच वर्ष 1992 में सुखबीर का चयन एनएसजी मानेसर के लिए कर दिया गया। वर्ष 1999 में उन्हें फिर से जम्मू-कश्मीर में तैनात किया गया, लेकिन यह उनका अंतिम सफर था। शहीद सुखबीर सिंह की पत्नी सुधा यादव सांसद रह चुकी हैं तथा भाजपा की वरिष्ठ नेता हैं।