SPIC MACAY Program: जेएनयू में हठ योग से सुबह की शुरुआत, फिर सुरमई हो गई शाम
अंतरराष्ट्रीय समागम के दूसरे दिन वारसी ब्रदर्स ने ए मेरे अल्ला यहां तू ही तू है वहां तू ही तू है से सुरमयी शाम का आगाज किया। कव्वाली के हर बोल पर दर्शक वाह-वाह करते रहे।
नई दिल्ली, जेएनएन। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (jawaharlal nehru university) में आयोजित सोसायटी फॉर प्रमोशन ऑफ इंडियन क्लासिकल म्यूजिक एंड कल्चर अमंगस्ट यूथ (स्पिक मैके) के सातवें अंतरराष्ट्रीय समागम के दूसरे दिन की शुरुआत सुबह योग से हुई। इसमें विभिन्न राज्यों से आए करीब 1100 साधकों ने भाग लिया। मंगलवार को तीन घंटे के योग कार्यक्रम में नाथ योग और हठ योग कराए गए। योग गुरुओं ने बताया कि बच्चों व युवाओं को मन व दिमाग को केंद्रित करने के लिए योग करना आवश्यक है।
मंगलवार सुबह करीब चार बजे योगशाला शुरू हुई। जेएनयू में अलग-अलग आठ जगहों पर योग गुरुओं ने युवाओं को नाद योग व हठ योग की शिक्षा दी। नाद योग में संगीत के स्वर सा रे गा मा पा का उच्चारण कर ध्यान केंद्रित करवाया गया। वहीं, हठ योग में शारीरिक क्रिया के जरिये मानसिक व शारीरिक क्षमता विकसित करने के तरीके बताए गए। नाद योग के लिए योग गुरु बहाउद्दीन डागर, निरमाल्या डेय, वासिफुद्दीन डागर और हठ योग के लिए सन्यासी योगेश्वर, जरना मोहन, स्वामी, त्यागराज और राजयोग के लिए ब्रह्मकुमारी से स्वामी रामाकृष्ण, सत्रीय के लिए घनाकांत और कोट्टीयाट्टम के लिए रंजीत मौजूद रहे।
सभी गुरुओं ने सुबह चार बजे से लेकर सात बजे तक युवाओं को योग कराया। कार्यक्रम प्रबंधक उषा रवि चंद्रन ने बताया कि आयोजन में आए हुए युवा रोज सुबह साढ़े तीन बजे ही उठ जाते हैं और चार बजे योग के लिए आ जाते हैं। इसके बाद सभी लोग 15 मिनट तक रास्ते में सफाई अभियान चलाते हैं और फिर कैंप में जाते हैं।
वारसी ब्रदर्स ने रूहानी की शाम
अद्भुत नजारा था..। वारसी ब्रदर्स स्टेज पर बैठे थे। इनके चारों तरफ युवा प्रतिभागी बड़ी उत्सुकता से न केवल हारमोनियम, ढोलक, तबला देख रहे थे बल्कि कलाकारों की हर गतिविधियों पर भी निगाहें गड़ाए हुए थे। कंवेशन सेंटर में वारसी ब्रदर्स की प्रस्तुति से फिजाएं गंगा-जमुनी तहजीब की खुशबू से महक उठीं। तराने दर्शकों के दिल को छू गए। यही कारण था कि कार्यक्रम समाप्त हुआ तो करीब दस मिनट तक कंवेशन सेंटर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा। दर्शकों ने अपनी सीट पर खड़े होकर वारसी ब्रदर्स के प्रति सम्मान जताया।
वारसी ब्रदर्स ने ए मेरे अल्ला, यहां तू ही तू है, वहां तू ही तू है से सुरमयी शाम का आगाज किया। कव्वाली के हर बोल पर दर्शक वाह-वाह करते रहे। इसी कव्वाली के तुझमें हूं मैं और मुझमें है तू बोल पर दर्शक भाव विभोर हो गए और कंवेंशन सेंटर तालियों से गूंज उठा। वहीं दरअसल एक है, तेरा खुदा-मेरा भगवान । कहीं है शर्त सलीके से सिर झुकाने की, कहीं है रस्म, फकत उसके गीत गाने की, कव्वाली का भी लोगों ने जमकर आनंद उठाया। वारसी ब्रदर्स के सूफी तराने का अगला पड़ाव--मोहे अपने ही रंग में रंग दे रंगीले था। यह कव्वाली सुनकर सभी दर्शक झूमने लगे। कइयों ने इसके बाद ठुमरी की फरमाइश भी कर डाली।
संगीत की सुरमयी शाम, कृपा करो महाराजा से मानों थम सी गई। वारसी ब्रदर्स ने जैसे ही एलान किया कि अब वो एक सूफी संगीत सुनाकर रुखसत लेंगे तो दर्शकों की बेचैनी बढ़ गई। हर किसी के मुंह से निकल पड़ा कि थोड़ी देर और प्रस्तुति हो जाए। खैर, समय की कमी के चलते वारसी ब्रदर्स ने अपनी आखिरी प्रस्तुति सूफी संत अमीर खुसरों की ब्रजभाषा में लिखी कविता सुनाई- छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके। कव्वाली खत्म हुई तो दर्शक खड़े हो गए एवं लगातार तालियां बजाते रहे।
मानो हर क्लिक पर खुलती जा रही जिंदगी की किताब
ट्रकवाला, बैंडवाला, लाइटवाला, ढाबा, गली-नुक्कड़ पर वो किस्से-कहानी सुनाने वाला..। ये सभी हमारी जिंदगी में रंग भरते हैं। जिंदगी का अहम हिस्सा हैं। लेकिन, इन्हें एक लीजेंड कलाकार के नजरिये से प्रतिभागियों ने देखा तो ऐसा लगा जैसे जिंदगी की किताब का पन्ना खुलता जा रहा था। हर पन्ने की अपनी कहानी थी, अपना किरदार था।
वयोवृद्ध कलाकार कृष्ण खन्ना ने स्पिक मैके के 7वें अंतरराष्ट्रीय समागम के दूसरे दिन न केवल पेंटिंग बनाने की बारीकियां बताईं बल्कि अपनी कलाकृतियों के जरिय प्रतिभागियों को रंगों और भावों के तालमेल को भी समझाया।
परिचर्चा की शुरुआत कृष्ण खन्ना के होटल आइटीसी मौर्य की बनाई सीलिंग की पेंटिंग से हुई। कृष्ण खन्ना ने बताया कि किस तरह उन्होंने होटल की सीलिंग को कैनवास पर उकेरा। इसके बाद प्रोजेक्टर के जरिये वह अपनी बनाई कलाकृतियां दिखाते जाते एवं उसके पीछे की कहानियां बताते जाते। उन्होंने बिजनेस ऑफ पावर, बैंडवाला, ट्रकवाला सीरीज के तहत कलाकृतियां दिखाईं। बड़ी सादगी से कृष्ण खन्ना ने इन्हें कैनवास पर उकेरा था। इसके अलावा भीष्म एवं पांडवों पर आधारित दो कलाकृतियां भी पसंद आईं। बैंडवाला और इंडियन म्यूजीशियन को एक ही फ्रेम में देखना भी कम दिलचस्प में नहीं था। गांव हो या फिर शहर- कमोबेश हर जगह स्टोरी टेलिंग बच्चों ही नहीं बड़ों में भी खूब लोकप्रिय रहा है। कृष्ण खन्ना की कलाकृतियों के जरिए यह मानों जीवंत हो उठी। कहानी कहने वाले के सिर पर बैठे बच्चा, आसपास चारों तरफ से घेरे लोग एवं बड़ी तन्मयता से कहानी सुनाते व्यक्ति को रंगों के जरिये बखूबी प्रदर्शित किया। खन्ना ने प्रोगेसिव पेंटर ग्रुप में अपने शामिल होने, बैंकर की नौकरी करते कलाकृति बनाने की कहानी भी सुनाई।
'ताउम्र रहेगी याद, ‘दादी की कठपुतली क्लास’
स्पिक मैके के 7वें अंतरराष्ट्रीय समागम का दूसरा दिन जेएनयू कंवेशन सेंटर प्रतिभागियों से खचाखच भरा हुआ था। बाहर गर्म हवाएं चल रही थीं, चिलचिलाती धूप दिल्ली का पारा बढ़ा रही थी, लेकिन कंवेशन सेंटर का नजारा मानों गर्मी को मुंह चिढ़ा रहा था। प्रतिभागियों का उत्साह चरम पर था। जिन्हें सीट मिली उन्होंने तो राहत की सांस ली, लेकिन जिसे नहीं मिली वह दीवार के सहारे टिककर खड़ा हो गया या फिर फर्श पर ही बैठ गया। जादुई हाथ वाले दादी की अंगुलियों ने हरकत की तो बेजान कठपुतलियां बोल उठीं। प्रतिभागी बड़े ध्यान से कला की बारीकियां सीख रहे थे और दादी पुदुम जी एक के बाद एक कठपुतलियों के प्रकार एवं अपने जिंदगी के अनुभव साझा करते जा रहे थे।
कठपुतली के प्रकार से शुरुआत
थर्मोकोल, कपड़े, रंग के समायोजन से मिश्रित कला की बारीकियां समझाने का यह सिलसिला एक शो के जरिये शुरू हुआ। दादी ने कठपुतली दिखाई एवं फिर उनसे प्रतिभागियों द्वारा समझ में आने वाली कहानी पूछी। इसके बाद उन्होंने आधुनिक एवं परंपरागत कठपुतली की भी व्याख्या की। हैंड पपेट, ग्लब्स पपेट, फॉर्मल पपेट, सिंपल रॉड पपेट, शैडो पपेट समेत अन्य तरह की कठपुतलियों को उदाहरण के साथ प्रदर्शित किया। इस दौरान वह प्रतिभागियों के सवालों का भी जवाब दे रहे थे। बकौल दादी पुदुम जी कठपुतली के प्रदर्शन के दौरान हम इसी जिंदगी में जीते हैं। हमारी संवेदनाएं, भावनाएं इनके साथ जुड़ जाती हैं। कठपुतली के ऑब्जेक्टिव एवं सब्जेक्टिव नजरिये को भी उन्होंने बड़े सरल अंदाज में बयां किया। उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा कि कैरेक्टर के हिसाब से कठपुतलियों के चेहरे गढ़े जाते हैं। राजस्थान, ओडिशा, कर्नाटक, बंगाल, महाराष्ट्र के परंपरागत कठपुतली कला में आ रहे बदलावों पर भी उन्होंने प्रकाश डाला।
जापानी कठपुतली कला हुई जीवंत
मंच पर जापानी कला भी जीवंत हो उठी। एक कठपुतली को तीन लोगों द्वारा चलाते की कला भी प्रतिभागियों के लिए यादगार रही। उदाहरण प्रस्तुत करते समय खुद दादी पुदुम जी ने सिर के हिस्से को खुद पकड़ा जबकि शरीर के दो हिस्सों को सहयोगियों ने पकड़ा था। लेकिन, तीनों में अद्भुत सामंजस्य दिखा। कठपुतली की भाव भंगिमाएं, उसका मूवमेंट ऐसा था कि दर्शक भी तालियां बजाने पर मजबूर हो गए।
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