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Oscar Award: 22 साल की मेहनत है फिल्म Period End Of Sentence, लोग बोले- वाह

किसी भी चीज को जितना कहना आसान है उतना ही उस पर काम करना मुश्किल होता है। यही स्थिति रही पीरियड एंड आॅफ सेटेंस फिल्म को बनाने में जिसे आज आॅस्कर मिला है।

By JP YadavEdited By: Published: Mon, 25 Feb 2019 07:23 PM (IST)Updated: Wed, 27 Feb 2019 12:12 PM (IST)
Oscar Award: 22 साल की मेहनत है फिल्म Period End Of Sentence, लोग बोले- वाह
Oscar Award: 22 साल की मेहनत है फिल्म Period End Of Sentence, लोग बोले- वाह

नई दिल्ली [मनोज त्यागी]। दिल्ली से बेहद करीब यूपी के हापुड़ जिले का काठी गांव आज बहुत इतरा रहा है। इतराए भी क्यों नहीं? उनकी लाडली की टीम ने ऑस्कर अवॉर्ड जो जीता है। हापुड़ की तंग गलियों से होते हुए अमेरिका के लॉन्स एंजिल्स तक हजारों किलोमीटर का सफर इतना आसान भी नहीं था, और हां आखिर में अवॉर्ड पाना। इसके पीछे संघर्ष की एक लंबी कहानी है, इस पूरी कवायद में पूरे 22 बरस लग गए। कहते भी हैं कि किसी भी चीज को जितना कहना आसान है उतना ही उस पर काम करना मुश्किल होता है। यही स्थिति रही 'पीरियड एंड आॅफ सेटेंस' फिल्म को बनाने में, जिसे आॅस्कर मिला है।

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1997 से शुरू हुआ था प्रयास
कहने को तो यह फिल्म मात्र 30 मिनट की है, लेकिन फिल्म को बनाने का संघर्ष 1997 में शुरू हुआ था। एक्शन इंडिया (एनजीओ) ने हापुड़ जिला का कॉर्डिनेटर शबाना को बनाया था। शुरुआती दौर में उन्होंने घरेलू हिंसा रोकने के लिए काम किया, हालांकि बाद में इस पर कानून भी बना। इसके बाद शबाना ने गांवों में घर-घर जाकर खासकर महिलाओं को शिक्षा और सफाई के प्रति जागरूक किया। जब फिल्म बनाने की बात आई, तो सभी किरदारों को तैयार करना भी एक बड़ी चुनौती थी, जिसे शबाना ने बखूबी निभाया।

शबाना ने तोड़ी लड़कियों की झिझक
वजह भी साफ थी कि जिस बात को लेकर महिलाएं ही आपस में बात करने से झिझकती हों, उस पर फिल्म बनाना आसान नहीं हो सकता, लेकिन शबाना जो अपनी उम्र के छह दशक देख चुकी हैं, उन्होंने गांव की लड़कियों से बात की। सभी फिल्म से जुड़ीं बातें सुनकर सहम गईं। कोई भी इसके लिए तैयार नहीं था, लेकिन शबाना ने हिम्मत नहीं हारी। कुछ दिन के प्रयास से उन्होंने फिल्म बनाने के लिए गांव की लड़कियों को तैयार कर लिया।

फिल्मांकन थी बड़ी चुनौती
सबकुछ तय होने के बाद सभी बड़ी समस्या थी कि गांव में पीरियड विषय को लेकर फिल्मांकन कैसे किया जाए? इसके लिए शबाना ने अपनी सहयोगी सुमन के देवर सिंहराज सिंह को अपनी सुरक्षा के लिए तैयार किया। डर था कि कहीं गांव वाले फिल्म बनाने को लेकर दिक्कत न कर दें। फिल्म को रात और दिन में फिल्माया गया। दिन में तो जैसे-तैसे फिल्म की शूटिंग हो जाती थी, लेकिन रात के समय लड़कियां का साथ और साथ में जंगल में फिल्म तैयार करना बहुत कठिन था। लोगों को समझाबुझाकर शबाना ने यहां भी खुद का लोहा मनवाया।

किसी को नहीं था यकीन मिलेगा ऑस्कर
आॅस्कर मिलने के बाद शबाना बहुत खुश हैं। उनकी खुशी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बात करते-करते उनकी कई बार आंखें नम हो जाती हैं। शबाना कहती हैं- 'वह अपने प्रयास को लेकर बहुत खुश हैं। जिस समय फिल्म बनाई जा रही थी उस समय यह बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि यह फिल्म हमें आॅस्कर तक लेकर जाएगी।' वह आगे कहती हैं- यह सब बहुत मुश्किल था। पीरियड को लेकर यदि दो महिलाएं बात कर रहीं होती हैं और तीसरी महिला आ जाए, तो पहली दो महिलाएं आपस में बात बंद कर देती हैं।'

माता-पिता की सहमति के बाद अब स्नेह के सामने संकट था कि कैमरे का सामना कैसे करे? इसके लिए फिल्म की निर्देशिका गुनीत मोगा ने स्नेह को कुछ बारीकियां समझाईं। स्नेह शुरुआती दौर में कुछ असहज रही, लेकिन धीरे-धीरे काम करते हुए मुश्किल आसान होती चली गई। फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह से गांव की महिलाएं पीरियड के समय इस्तेमाल करने वाले कपड़े को रात्रि के समय खेतों में छिपाती हैं। गांव में आज भी पीरियड के समय महिलाएं स्वास्थ्य के प्रति जागरूक नहीं हैं। वह सेनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं करती हैं। वह आज भी गंदे कपड़े को पीरियड के समय इस्तेमाल करती हैं। जो बहुत ही हानिकारक होता है। आज हम सभी बहुत खुश हैं।


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