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Pulwama Attack: काटेंगे अरि का मुंड कि स्वयं कटेंगे, पीछे परंतु सीमा से नहीं हटेंगे

देश के लिए मर मिटने वाले इन रणबांकुरों की रगों में देशप्रेम लहू बनकर दौड़ता है। उनके माथे पर देश की माटी का तिलक लगता है।

By JP YadavEdited By: Published: Tue, 19 Feb 2019 12:16 PM (IST)Updated: Tue, 19 Feb 2019 12:42 PM (IST)
Pulwama Attack: काटेंगे अरि का मुंड कि स्वयं कटेंगे, पीछे परंतु सीमा से नहीं हटेंगे
Pulwama Attack: काटेंगे अरि का मुंड कि स्वयं कटेंगे, पीछे परंतु सीमा से नहीं हटेंगे

नई दिल्ली [सुधीर कुमार पांडेय]। जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में 14 फरवरी को आतंकी हमले से हमने देश के कई जांबाजों को खो दिया। देश में गम और गुस्‍सा दोनों है। शहीदों की वीरांगनाओं और परिजनों को दुख तो है, लेकिन देश के लिए शहीद होने का गर्व भी। आतंकियों ने हमेशा से पीछे से वार किया, चाहे कारगिल में घुसपैठ हो या फ‍िर उरी या पुलवामा का हमला। वे छिप कर वार इसलिए करते हैं, क्‍योंकि वे जानते हैं भारतीय सूरमा युद़ध में पीठ नहीं दिखाते हैं। वे वीरों की वीर हैं और नायकों के नायक। वे तूफानों में चलने के आदी हैं। देश के लिए मर मिटने वाले इन रणबांकुरों की रगों में देशप्रेम लहू बनकर दौड़ता है। उनके माथे पर देश की माटी का तिलक लगता है। यह माटी होती है त्‍याग की, बलिदान की। वे वीरों के वीर, परमवीर हैं। वे रेगिस्‍तान में पदचिह़न छोड़ जाते हैं तो बर्फीले मैदानों पर हिमालय भी उनके पदचाप सुनता है। तभी तो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं कि भारतीय शूरवीरों के जिह़वा पर बस एक ही प्रण होता है कि रणभूमि या तो दुष्‍मन का सिर कांटेंगे या फ‍िर हंसते हंसते अपनी जान न्‍यौछावर कर देंगे। रणचंडी अगर भेंट मांगेगी तो उसे भेंट मिलेगी। दुश्‍मनों की लाशों पर चढ़कर फौज आगे बढ़ेगी। ये वीर परशुराम जैसे हैं। जो इस धरती को आतंकियों से मुक्‍त कराने के लिए अपना अस्त्र उठाते हैं। उनकी कविता परशुराम की प्रतीक्षा के कुछ अंश देखें

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सामने देश माता का भव्य चरण है,
जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,
काटेंगे अरि का मुंड कि स्वयं कटेंगे,
पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।

फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,
भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से।
माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।
लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।

पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,
भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;
देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !
असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !

बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।

वर्षों से घायल हो रही है घाटी
कश्‍मीर जो हिंदुस्‍तान का मुकुट है, वह वर्षों से घायल हो रहा है। आजादी के बाद से ही वहां हमले हो रहे हैं। ओजस्‍वी कवि डॉ. हरिओम पंवार ने तो घाटी के दिल की धड़कन और घायल भारत माता की तस्‍वीर दिखाई है। राष्ट्रीय अस्मिता के इस कवि ने घाटी की पीड़ा को देश के सामने रखा। देखें उनकी कविता

काश्मीर जो खुद सूरज के बेटे की रजधानी था
डमरू वाले शिव शंकर की जो घाटी कल्याणी था
काश्मीर जो इस धरती का स्वर्ग बताया जाता था
जिस मिट्टी को दुनिया भर में अर्ध्य चढ़ाया जाता था
काश्मीर जो भारतमाता की आँखों का तारा था
काश्मीर जो लालबहादुर को प्राणों से प्यारा था
काश्मीर वो डूब गया है अंधी-गहरी खाई में
फूलों की खुशबू रोती है मरघट की तन्हाई में

बसे बढ़े चलो, बढ़े चलो
शिक्षा और कविता के लिए समर्पित रहे द्वारिका प्रसाद माहेश्‍वरी ने भी इन शूरवीरों को अपनी रचना के माध्‍यम से प्रणाम किया है। वह लिखते हैं कि हाथ में ध्‍वजा हो, तो वह कभी झुकना नहीं चाहिए। चाहे सामने पहाड़ हो या फ‍िर सिंह की दहाड़ हो। यह दल कभी रुकना नहीं चाहिए। एक ध्‍वज और एक प्रण के साथ इस मातृभूमि इस पितृभूमि के लिए बस बढ़े चलो। यह है उनकी कविता -
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!


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