आजादी का अमृत महोत्सव को लेकर क्या सोचती हैं पद्मश्री कथक नृत्यांगना शोवना नारायण, पढ़िये पूरा इंटरव्यू
Kathak dancer Shovana Narayan पद्मश्री कथक नृत्यांगना शोवना नारायण का कहना है कि कला संस्कृति व साहित्य के माध्यम से भावों को व्यक्त करने का काम तो हमारे देश में हजारों साल से होता आ रहा है। यह हमारे सोच हमारी शास्त्रीयता हमारे दर्शनशास्त्र में बहुतायत में मिलता है।
नई दिल्ली। आजादी का अमृत महोत्सव के तहत देश भर में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीर सेनानियों को याद कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जा रही है। इन कार्यक्रमाें के जरिये देशवासियों को में देशभक्ति की भावना जागृत कर उन्हें राष्ट्र के प्रति समर्पित होने और देश के विकास के लिए तन, मन, धन से जुटने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।
अलग-अलग विषयों व थीम पर आधारित कार्यक्रमों के जरिये बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक में राष्ट्रवाद की नई चेतना का संचार हो रहा है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित होने वाले जश्न-ए-अदब कार्यक्रम में भी देश के जाने-माने रंगकर्मी व साहित्यकार अपनी प्रस्तुतियों के जरिये इस सिलसिले को आगे बढ़ाएंगे। विश्व प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना पद्मश्री शोवना नारायण इसमें अपनी विशेष प्रस्तुति देंगी। दैनिक जागरण के अरविंद कुमार द्विवेदी ने इस पर उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश:
आप इतने वर्षों से कला के क्षेत्र में सक्रिय हैं। आजादी का अमृत महोत्सव के तहत आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में आप अन्य कार्यक्रमों से अलग क्या अंतर महसूस करती हैं।
आजादी का भाव और इसकी महत्ता हर कालखंड में लोगों ने एक जैसी ही महसूस की है। बस इसे व्यक्त करने के तरीके बदलते रहे हैं। देश की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर मनाया जाने वाला आजादी का अमृत महोत्सव कोई एक-दो साल का महोत्सव नहीं है। आजादी का जश्न तो अनंत काल तक चलने वाला है। आज पूरा देश इस उत्सव के रंग से सराबोर है। अभी देखिएगा जब पूरा देश स्वतंत्रता के 100वें वर्ष का उत्सव मनाएगा तो एक अलग ही माहौल होगा। हम भारत को अपनी मां मानते हैं। मां यानी एक नारी जो असीम शक्ति वाली है।
समय के साथ चुनौतियां आईं वह पर्दे के पीछे चली गईं। इस बीच अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती रहीं। अंतत: वह दिन भी आया जब भारत मां ने अपना पहले जैसा गौरव हासिल किया और उसके बाद फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज भारत मां अपनी पूर्ण शक्ति से अपनी सोने की चिड़िया वाली हैसियत को पुन: प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ती जा रही हैं। आज वह सफलता के नए आयाम को हासिल कर रही हैं, अपना गीत, अपना लक्ष्य, अपना मार्ग... सब कुछ खुद तय कर रही हैं। हमारे आने वाले कार्यक्रमों में इस सबकी झलक नजर आएगी।
कला के क्षेत्र में हो रहे नए-नए बदलाव को आप कैसे देखती हैं।
संगीत और कला की आधारशिला तो हमारे पूर्वजों ने हजारों साल पहले ही रखी थी। किंतु हर युग में समय के साथ इसमें बदलाव होना भी स्वाभाविक है। यह बदलाव परंपराओं और संस्कृतियों को समृद्ध करने की एक सतत प्रक्रिया है। एक बीज से पौधा बनता है। पौधा से पेड़... फल, फूल...। हम कितना भी बदलाव और विकास कर लें, उसका सार, उसकी सुगंध वही होगा जो हमारी आधारशिला के वक्त था।
आपकी आगामी प्रस्तुतियों में देश की नई पीढ़ी के लिए क्या संदेश होगा। पहले के कार्यक्रमों में भी क्या किसी विशेष उद्देश्य को लेकर प्रस्तुति दी गई है।
जब तक जीवित हूं, हमारे कदम रुकेंगे नहीं। एक कलाकार कभी रुकता नहीं है। थकता नहीं है। इतिहास खुद को दोहराता है। पात्र बदल जाते हैं, परिस्थिति बदल जाती है लेकिन मुद्दा वही रहता है। शुरू से लेकर आज तक हमारी प्रस्तुति में कोई न कोई संदेश छुपा होता है। द्रौपदी चीरहरण का प्रसंग हम नृत्य विधा में वर्षों से करते आ रहे हैं। ऐसी ही एक प्रस्तुति के बाद मेरी मां ने हमसे चर्चा की। कहा- आज की द्रौपदी कौन है। आज का दुशासन कौन है। यह विचार झकझोरने वाला था। इसके बाद वर्ष- 1983 में मैंने- बस करो दुशासन, बस करो। धरती का चीरहरण मत करो... प्रस्तुत किया। यह संदेश बच्चों से लेकर युवाओं तक को सोचने और अपने आचरण में बदलाव लाने के लिए प्रेरित करता है। कृष्णलीला में हम कालिया दमन का मंचन करते हैं।
कालिया पानी में विष फैला रहा था। भगवान श्रीकृष्ण ने कालिया दमन कर समाधान किया था और मनुष्यों समेत हजारों प्राणियों की रक्षा की थी। आज का कालिया कौन है। नदियों में विष काैन घोल रहा। हम और आप ही तो हैं।कहां छुपे हो कहां हो कृष्ण....के जरिये हमने नृत्य विधा में नई पीढ़ी को संदेश दिया। देखिए यह मुद्दा तो आज भी है। महिलाओं पर होने वाले एसिड अटैक पर आधारित रूप-विद्रूप ही देख लीजिए। इन सबका बहुत असर होता है युवाओं पर। ऐसी प्रस्तुतियां लोगों के दिलों से जुड़ जाती हैं।
एक कलाकार व शिक्षिका होने के नाते अपनी रचनाओं में और अपने शिष्यों के प्रति आप सबसे ज्यादा किसी बात का ध्यान रखती हैं।
हमेशा प्रयास करती हूं कि हम जो भी प्रस्तुत कर रहे हैं, लोगों को यह महसूस होना चाहिए कि वह विषय उनसे जुड़ा है। और उससे उनमें आत्मीयता, मानवीयता का भाव जगाए। विषय में समसामयिकता होना बहुत जरूरी है। आज शिवानी वर्मा, कार्तिका सिंह, मृणालिनी, अनुपमा, संचिता, रागिनी, अन्विता, श्रिया शरण समेत सैकड़ों शिष्य पूरी दुनिया में नाम कमा रहे हैं।
मैंने उन सबको यही शिक्षा दी है कि सफलता के लिए शार्टकट नहीं, परिश्रम का रास्ता अपनाओ। इसमें देर हो सकती है, लेकिन सफलता पाने के बाद जो आनंद मिलता है वह अनंत होता है।कृष्णलीला की प्रस्तुति में बड़ा आनंद मिलता है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि बांसुरी की मधुर आवाज हमारे अंदर मौजूद अवगुणों को दूर करती है। हमें अंदर से शुद्ध बनाती है। संगीत शुद्धता व साधना का ही तो प्रतीक है।