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चौंकाने वाले हैं आंकड़े, दिल्ली से गुम हुए 10 बच्चों में से 6 का कभी पता ही नहीं चलता

रिपोर्ट से पता चला कि 12 से 18 साल के आयु वर्ग में लापता बच्चों की संख्या सबसे अधिक है और उनमें से लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में अधिक है।

By Amit MishraEdited By: Published: Tue, 25 Sep 2018 05:47 PM (IST)Updated: Tue, 25 Sep 2018 09:30 PM (IST)
चौंकाने वाले हैं आंकड़े, दिल्ली से गुम हुए 10 बच्चों में से 6 का कभी पता ही नहीं चलता
चौंकाने वाले हैं आंकड़े, दिल्ली से गुम हुए 10 बच्चों में से 6 का कभी पता ही नहीं चलता

नई दिल्ली (जेएनएन)। राजधानी दिल्ली में बच्चे कितने सुरक्षित हैं इसकी झलक इस रिपोर्ट से मिलती है जिसे मंगलवार को एलायंस फॉर पीपुल (APR) और एनजीओ चाइल्ड राइट्स एंड यू (CRY) की तरफ से जारी किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक राजधानी से गायब होने वाले 10 बच्चों में से 6 का कभी पता ही नहीं चल पाता है।एनसीआरबी के आंकड़ों और आरटीआई द्वारा पुलिस के जवाब के आधार पर रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली में 63 प्रतिशत लापता बच्चों का पता नहीं चल सका जबकि देशभर में ये आंकड़ा 30 फीसदी था।

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अधिक है लड़कियों की संख्या 
रिपोर्ट में कहा गया है पिछले पांच सालों में दिल्ली में 26,761 बच्चे गायब हो गए थे, और उनमें से केवल 9,727 का पता लगाया जा सका। दिल्ली पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक लापता बच्चों की दर 2015 में हर दिन 22 थी जो 2017 में 18 हो गई। रिपोर्ट से पता चला कि 12 से 18 साल के आयु वर्ग में लापता बच्चों की संख्या सबसे अधिक है और उनमें से लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में अधिक है। 

दिल्ली में सुधरे हालात, ये आंकड़ा है खराब 
महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री कृष्णा राज का कहना है कि 1 जनवरी, 2012 और पिछले साल 20 मार्च के बीच देशभर में 2,42,938 बच्चों की गुमशुदगी दर्ज हुई थी। जिसमें से 1,70,173 का पता लगाया जा सका था। उन्होंने कहा कि आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले साल की तुलना में दिल्ली में लापता बच्चों की कुल संख्या में कमी आई है, लेकिन लापता बच्चों का पता लगाने के मामले में दिल्ली सबसे खराब है और इसे गंभीर रूप से अधिकारियों द्वारा ख्याल रखा जाना चाहिए।

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स्थापित किया जा रहा है मजबूत तंत्र 
महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री ने कहा कि बच्चे सुरक्षित हों यह सुनिश्चित करने के लिए कि एक मजबूत निवारक तंत्र स्थापित किया जा रहा है। एपीआर और सीआरवाई द्वारा सामुदायिक सतर्कता के रूप में एक मॉडल सिस्टम पेश किया गया है जिसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया कि कैसे प्रत्येक समुदाय के लोग अपने इलाके में बच्चों पर नजर रख सकते हैं और उन्हें खतरे या संभावित नुकसान से बचाने के लिए हरसंभव प्रयास किए जा सकते हैं।

सुरक्षा कवच बनाना है जरूरी 
एनजीओ चाइल्ड राइट्स एंड यू की क्षेत्रीय निदेशक सोहा मोइत्रा ने कहा कि लापता बच्चों के मुद्दे के संबंध में पुलिस की भूमिका सर्वोपरि है, लेकिन एकीकृत बाल संरक्षण योजना (आईसीपीएस) इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए सामुदायिक स्तर के निवारक तंत्र के सुझाव पर बड़े स्तर पर काम कर सकती है। उन्होंने कहा कि सिस्टम और समाज को बच्चों को गायब होने से रोकने के लिए एक साथ आना होगा, क्योंकि उनके चारों ओर एक विश्वसनीय सुरक्षा कवच बनाने की जिम्मेदारी राज्य और समुदाय दोनों की है।

पुलिस के अभियान को सराहा गया 
सोहा मोइत्रा ने कहा कि दिल्ली में लापता होने वाले 10 में से 6 बच्चे कभी नहीं मिल पाते हैं। लापता बच्चों को तलाशने के लिए क्राइम ब्रांच ने कई वर्ष पूर्व मिलाप अभियान की शुरुआत की थी। इसके तहत दिल्ली के विभिन्न बाल सुधार गृहों की तलाशी लेकर वहां रह रहे बच्चों की पहचान कर क्राइम ब्रांच ने उनके परिजनों से मिलाने का सिलसिला शुरू किया था। पूर्व पुलिस आयुक्त भीमसेन बस्सी के कार्यकाल के दौरान यह अभियान शुरू किया गया था, जिसे काफी सराहा गया था। लेकिन धीरे-धीरे यह अभियान सुस्त पड़ गया। एक पुलिस अधिकारी की मानें तो अगर मिलाप अभियान को बेहतर ढंग से चलाया जाता तो दिल्ली में लापता बच्चों की संख्या इतनी नहीं बढ़ती।

मानव तस्कर गिरोह भी सक्रिय
पुलिस को जहां भी लावारिस बच्चे मिलते हैं, उन्हें पास के बाल सुधार गृहों में रखवा देती है। स्थानीय पुलिस उनसे पूछताछ कर उनके परिजनों के बारे में जानने की कोशिश ही नहीं करती है। दिल्ली में बड़ी संख्या में मानव तस्कर गिरोह भी सक्रिय हैं, जो छोटे बच्चों को अपने चंगुल में लेकर उनसे चौराहे, बस अड्डे, रेलवे स्टेशन व अन्य भीड़भाड़ वाले स्थानों पर भीख मंगवाते हैं। बच्चियों को वेश्यावृत्ति के धंधे से जुड़े लोगों के हाथों बेच देते हैं। कुछ किशोरियों व युवतियों को तो मानव तस्कर गिरोह के लोग खाड़ी देशों में भेज देते हैं।

वास्तविक आंकड़ा काफी बड़ा हो सकता है
आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर 8 मिनट में एक बच्चा लापता होता है। वर्ष 2011 में देश में लगभग 35,000 बच्चों की गुमशुदगी दर्ज हुई थी। इसमें से 11,000 से ज्यादा बच्चे सिर्फ पश्चिम बंगाल से लापता थे। इसके अलावा यह माना जाता है कि कुल मामलों में से केवल 30 फीसद मामलों में ही रिपार्ट दर्ज की गई और वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है। वर्ष 2016 में भी मानव तस्करी के सबसे ज्यादा मामले पश्चिम बंगाल में दर्ज हुए थे। देश भर में एक साल में कुल 8,132 शिकायतों में से 3,576 केवल इसी राज्य से आईं। ये वो शिकायतें थीं जो दर्ज हुईं। जानकारों के मुताबिक, इससे कहीं ज्यादा मामले या तो दर्ज नहीं हुए या लोगों ने दर्ज ही नहीं कराए। ऐसे में वास्तविक आंकड़ा काफी बड़ा है।

आसान शिकार होते हैं बच्चे
बच्चों के लापता होने की परिस्थितियां ज्यादातर शहरी झोपड़पट्टियों में नजर आती है और इन जगहों पर हर पल बच्चे एक संकट की स्तिथि में रहते हैं। ऐसे बच्चे अपहरणकर्ताओं और तस्करों के लिए आसान शिकार होते हैं और इसका प्रमाण हमें उन आंकड़ों से मिलता है जो बताते हैं कि किसी भी शहर में कुल गायब होने वाले बच्चों में से अधिकतर झुग्गी बस्तिओं या पुनर्वास कॉलोनियों के होते हैं। वर्ष 2017 में 18 बच्चे प्रतिदिन दिल्ली से गायब हो रहे थे। दिल्ली की ये संख्या राष्ट्रीय औसत के ज्यादा है और भारत की राजधानी होने के नाते ऐसे आंकड़ें बहुत ही चिंताजनक हैं।

खुद भी समझनी होगी जिम्मेदारी
पिछले लगभग सात सालों से लगातार गुमशुदा बच्चों के आंकड़ों पर गौर करें तो यह समझ में आता है कि इतने सालों में रोज गायब होने वाले बच्चों की संख्या 18 से 22 बच्चे प्रतिदिन के बीच ही घूमती रही है। ऐसे में महत्त्वपूर्ण बात ये है कि बच्चों की सुरक्षा को दांव पर नहीं लगाया जा सकता है। जरूरी है कि हम एक परिवार और एक समुदाय के रूप में अपनी ताकत और जिम्मेदारी दोनों को समझें। बच्चों के खोने के बाद अधिकारिओं के चक्कर लगाने कि जगह हम सक्रिय रूप से ऐसे साधन और तंत्रों का निर्माण करें जिससे हम बच्चों को गुमशुदा होने से बचा पाएं।  

इन कारणों पर भी करें गौर 

जबरन शादी
भारत के कई राज्यों में कन्या भ्रूण हत्या की वजह से लड़कियों का अनुपात लड़कों के मुकाबले काफी कम है। ऐसे में कई बार लड़कियों या महिलाओं को इन राज्यों में जबरन शादी कराने के लिए भी बेचा जाता है। इन जगहों पर कई बार एक ही लड़की की परिवार के कई भाईयों के साथ शादी की जाती है।

बंधुआ मजदूर
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार एशिया-पेसिफिक क्षेत्र में 11.7 मिलियन से ज्यादा लोग बंधुआ मजदूर के तौर पर कार्य कर रहे हैं। पैसों की तंगी झेल रहे लोग, पैसों के बदले में अक्सर अपने बच्चों को बेच देते हैं। इनमें लड़के और लड़कियां दोनों को बेचा जाता है और उन्हें सालों तक भुगतान नहीं किया जाता।

अंगों की तस्करी
भारत में अंगदान के कानून काफी सख्त हैं। ऐसे में देश में अंगों की तस्करी के लिए भी मानव तस्करी के कई मामले सामने आ चुके हैं। इस तरह के कई मामलों में तस्करी कर लाए व्यक्ति के अंग निकालने के लिए उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है। इनमें बच्चे भी शामिल होते हैं। 

देह व्यापार का गढ़ है मुंबई
भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई, देश में देह व्यापार की सबसे बड़ी मंडी है। हाल में मुंबई में मानव तस्करी रोकने के लिए हुए कार्यक्रम में कहा गया कि पहले लड़कियों को भारत के गरीब राज्यों और बांग्लादेश, नेपाल और म्यामांर से तस्करी करके लाया जाता था। अब दूसरे देशों से भी लड़कियों को देह व्यापार के लिए मुम्बई लाया जा रहा है। 

मानव तस्करी के खिलाफ कानून
अनैतिक तस्करी निवारण अधिनियम के तहत व्यवसायिक यौन शोषण दंडनीय है। इसकी सजा सात साल से लेकर आजीवन कारावास तक की है। भारत में बंधुआ और जबरन मजदूरी रोकने के लिए, बंधुआ मजदूर उन्मूलन अधिनियम, बाल श्रम अधिनियम और किशोर न्याय अधिनियम भी लागू हैं। इनमें सख्त सजा का प्रावधान है, लेकिन भ्रष्टाचार और मिलीभगत की वजह से आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं हो पाती है।


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