लोगों को इंतजार- नरेला में कब आएगी मेट्रो, पढ़िए- दिल्ली के 'नानू का ननेरा' का दर्द
समय की रफ्तार ज्यों-ज्यों बढ़ रही है नरेला समस्याओं के मकड़जाल में उलझता ही जा रहा है। इसके आगोश में मंडी भी है तो बहुत बड़ा औद्योगिक क्षेत्र भी।
नई दिल्ली [नवीन गौतम]। मैं नरेला का मतदाता हूं। उस नरेला का जिसका एक हजार वर्ष से पुराना इतिहास है। सैकड़ों की आबादी से शुरू हुआ यहां का सफर एक लाख का आंकड़ा पार कर गया है। लोग इसे प्यार से नानू का ननेरा भी कहते हैं। इस नरेला ने अपने इस जीवन काल में बड़ी तकलीफें देखीं, गांवों को शहर बनते देखा है और अब नदी-तालाबों के विलुप्त होने की पीड़ा भी झेल रहा है। विकास के नाम पर पक्षियों को भी गुम होते देखा है। बादलों की गरज के साथ मोरों का नाचना, कोयल की कूक अब कुछ भी तो नहीं हैं इसके आगोश में समाए बागों में। कहने को अाज भी वह कागजों में बाग है, लेकिन जमीन पर बाग नहीं रह गए हैं, केवल गंदे पानी और कूड़े का ढेर बनकर रह गए हैं। नरेला की यह हालत देखता हूं तो परेशान हो उठता हूं। इसके विकास के नाम पर करोड़ों रुपये का बजट भी बनता है, लेकिन इसके सीने रूपी सड़कों में जो गहरे गढ्डे हैं उनमें गिरकर जब अपने ही बच्चों को घायल या मौत के मुंह में जाते देखता हूं तो कलेजा फट जाता है मेरा। आसुंओं की धारा बहने लगती हैं। बावजूद इसके कभी हमारे ही अपने रहे उन लोगों की आंखों का पानी मर चुका है जो खुद को हमारे वोट का ठेकेदार समझ बैठे हैं।
समय की रफ्तार ज्यों-ज्यों बढ़ रही है, नरेला समस्याओं के मकड़जाल में उलझता ही जा रहा है। इसके आगोश में मंडी भी है तो बहुत बड़ा औद्योगिक क्षेत्र भी। मंडी में दूर-दूर से अन्नदाता आता है अपना अन्न बेचने के लिए, लेकिन उसकी समस्या किसी को दिखाई नहीं देती। पूरे साल गर्मी-सर्दी में अन्न उगाता है, लेकिन समस्याओं के बीच यहां अपनी पैदावार औने पौने दामों में बेचकर रुख्सत हो जाता है। मेरी आह निकल जाती है जब नरेला के सीने पर वाहनों का रेला ठहर जाता है, चलता रहे तो कोई परेशानी नहीं लेकिन चलता ही तो नहीं। ठहर जाता है घंटो-घंटों, जब यह रेला, तो फिर इस नरेला का जीवन ही ठहर सा जाता है। इस रेले को ठहरने से रोकने के लिए खूब रोना रोया है यहां के लोगों ने, साहब लोगों के आगे गुहार भी लगाई नरेला की हालत को बदहाल होने से बचाने के लिए। मगर वातानुकूलन के आदी हो चुके इन साहब लोगों के कलेजे ही जम चुके हैं जिनमें भावनाएं ही दफन हो गई हैं।
मेट्रो रेल, नां बावा नां। कैसी बात कर रहे हैं आप, मेट्रो तो दूर यहां तो बस वाले भी बस लाने में कतराते हैं। आती हैं तो फिर रेले में ही फंसकर रह जाती हैं। सुनो-सुनो अब नरेला का 'मैं' मतदाता प्यासा भी हूं, मेरी प्यास बुझाने के लिए कई जोहड़ भी होते थे जिन्हें विकास के नाम पर विनाश ही लील गया। बड़े-बड़े खद्दधारी कहकर चले गए कि यहां बस अड्डा बनवाएंगे, मगर आज तक तो नहीं बना। हां, बस अड्डे की जगह सीने पर कूड़े का अंबार जरूर लगा दिया है नरेला के ही कुछ नादान लोगों ने।
देखो, डीडीए का भी खेल, वह भी मेरे हरे-भरे खेत खलिहान पर कंकरीट के जंगल खड़े करने आया था, खड़े कर भी दिए लेकिन आज तक वहां सुविधाएं ही नहीं दे पाया है तो फिर भला ऐसे में कैसे यहां मेरे कुनबे के सदस्यो की संख्या बढ़ेगी, जो आता है कुछ दिन रहता है फिर किनारा कर जाता है। बस चल रहा हूं मैं नरेला का मतदाता उसी तरह से जैसे वक्त चला रहा है, लेकिन समस्याओं के मकड़जाल में जल रहा हूं आस लगाए कोई तो आएगा लोकसभा चुनाव के मंथन से निकलकर जो मुझे कांटों की शैय्या से बाहर निकाल मुझे भी चमकायेगा जिससे खुशहाल हो सके मेरे यहां रहने वालों का जीवन और लोग मुझे यूं न कहें कि नहीं- नहीं नरेला की तरफ नहीं जाना है।