जानिए दिल्ली से जुड़ी इस मशहूर लेखक की यादें, मिलने के लिए कनॉट प्लेस होता था खास
अब बात दिल्ली शहर की करूं तो उन दिनों किसी से भी मिलना है या कहीं भी जाना है तो एक सेंटर प्वाइंट कनॉट प्लेस ही हुआ करता था।
नई दिल्ली [मनु त्यागी]। रवीन्द्रनाथ टैगोर अंतरराष्ट्रीय साहित्य पुरस्कार-2019 से सम्मानित डॉ हरिसुमन बिष्ट प्रतिष्ठित कथाकार, लेखक हैं। हिंदी अकादमी में सचिव रहते हुए उल्लेखनीय कार्य कर चुके बिष्ट की प्रमुख रचनाएं आसमान झुक रहा है, आछरी-माछरी, भीतर कई एकांत यात्रा-वृतांत आदि हैं। हिंदी अकादमी की त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’ का 27 वर्ष तक कुशल संपादन किया। आकाशवाणी तथा दिल्ली दूरदर्शन के कार्यक्रमों के निर्माण के लिए विषय विशेषज्ञ के रूप में सेवाएं दीं।
शहर और गांव के बीच एक बड़ी रेखा
उन्होंने बताया कि पहाड़ों से उतर जब दिल्ली की धरा पर आया तो मेरे स्मृति पटल पर पहाड़ के सुंदर गांव...शुद्ध वातावरण शांति सब सजे हुए थे। शहर और गांव के बीच एक बड़ी रेखा थी। लेकिन जैसे-जैसे मैं दिल्ली की तरफ कदम बढ़ाता गया, इसमें रमने लगा तो मुझे आनंद की अनुभूति होने लगी। मैं 1977 में यहां पढ़ाई और नौकरी दोनों ही मकसद से आया था। हालांकि मेरी पढ़ाई दिल्ली के किसी विश्वविद्यालय से नहीं हुई, उसका एक बड़ा कारण दिल्ली विवि और जेएनयू का माहौल भी था। मैं शायद उस माहौल के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाया था। एक साल सिर्फ जेएनयू से रशियन भाषा का कोर्स जरूर किया। बहरहाल मैंने एमए और पीएचडी की पढ़ाई दूसरे विश्वविद्यालयों से पूरी की। पिता जी और बड़े भाई पहले से ही पहाड़गंज में रहा करते थे।
पहाड़गंज होता था रिहाइशी इलाका
उन दिनों पहाड़गंज बहुत रिहाइश इलाका होता था। एक और रोचक बात थी पहाड़ों से आने वाले लोग सबसे पहले पहाड़गंज पर ही एक छोटा सा सेंटर होता था, उसी में रहते थे। इस सेंटर में जगह भले कम दिखती थी लेकिन दिल सभी का बड़ा होता था। यह बात मैंने दिल्ली के परिवेश में भी महसूस की। यहां पहले लोग मिलनसार होते थे, उनके घर भले छोटे हों लेकिन दिल बहुत बड़े होते थे।
बनारस से साहित्यिक माहौल दिल्ली पहुंचा
अब इसके विपरीत है। मैं जब 1977 में दिल्ली आया था उससे पहले ही कई पत्रिकाओं में मेरी कविताएं प्रकाशित हो रही थीं। और तब तक बनारस का साहित्यिक माहौल दिल्ली पहुंच चुका था। हर साहित्यकार के घर महीने में एक बार गोष्ठी जरूर होती थी। इसके अलावा साहित्यिक अड्डे होते ही थे। जगह-जगह सभागार थे। जहां कुछ न कुछ साहित्यिक हलचल चलती ही रहती थीं। दिल्ली के लाल किला पर होने वाला कवि सम्मेलन मुझे बहुत प्रिय था। उस सम्मेलन की सबसे बड़ी खासियत थी कि उस दौर के हर बड़े साहित्यकार की उपस्थिति ने उस मंच का सौंदर्य बढ़ाया है। विश्वसनीयता और मान बढ़ाया है, जिसे आज भी उस दौर का हर साहित्यकार याद करता है। उसे हम साहित्य का स्वर्णिम युग कह सकते हैं जो अब हाथ से निकला जा रहा है।
लेखन के लिए जगह नहीं, सोच की जरूरत होती है
साहित्य अकादमी में समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका में जब मैं नौकरी करने लगा था तब मुझे साहित्य की गोष्ठियों में, कनॉट प्लेस के कॉफी हाउस में जाने का खूब अवसर मिलता था। मेरा सौभाग्य रहा कि नामवर सिंह, केदारनाथ, जैनेंद्र, अज्ञेय, विष्णु प्रभाकर, पंकज बिष्ट, भीष्म साहनी, राजकुमार सैनी, चंद्रशेखर, कमलेश्वर जैसे साहित्यकारों को सुनने, उनकी गोष्ठियों में भाग लेने कुछ सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। तब गोष्ठियों में जो चर्चा होती थी वह विषयवार तो होती ही थी। इसके अलावा किसी भी छोटे-बड़े रचनाकार के लिखे को सभी के बीच पढ़ा जाता था उस पर बाद में चर्चा होती थी। सुधार किया जाता था।
यह याद है खास
एक प्रसंग बताता हूं मैंने एक गोष्ठी में एक बार विष्णु प्रभाकर जी से पूछा कि आप कैसे लिखते हैं, क्योंकि आप अजमेरी गेट जैसी जगह पर रहते हैं और मैं पहाड़गंज में रहता हूं, इन जगहों पर लिखने के जैसा कोई माहौल नहीं है? बहुत भीड़ भाड़ वाली जगह हैं। तब विष्णु प्रभाकर ने कहा कि ‘लिखने के लिए किसी स्थान या जगह की जरूरत नहीं होती। मन के उद्गार जब पैदा होते हैं तो आप उनको लिख लीजिए, उनका संयोजन करना बाद की बात है। इसलिए मैं लिखता हूं और उसे रख देता हूं और दूसरे दिन उसे फिर पढ़ता हूं उसमें कुछ कमी लगती है, सुधार करते हुए उसे दूसरे कागज पर लिखता हूं और पहले कागज को फाड़ देता हूं। ऐसा ही तीसरे दिन उस रचना में फिर से सुधार करता हूं, उसे नए पेज पर उतार लेता हूं...और फिर इसके बाद मेरे हाथ अब उस रचना को फाड़ने से रुक जाते हैं तब मुझे लगता है मेरी रचना मुकम्मल हो गई’। ये फाड़ना और फिर दोबारा सोचकर लिखना यही सुधारीय सोच है। यही है लेखन के प्रति प्रतिबद्धता। लेकिन आज सिर्फ एक बार लिखने के बाद हम दोबारा उसमें किसी वरिष्ठ से प्रतिक्रिया भी स्वीकार नहीं करते हैं। जबकि साहित्य सृजन का यही मूल सिद्धांत है।
पैदल चलना शौक होता था
अब बात दिल्ली शहर की करूं तो उन दिनों किसी से भी मिलना है या कहीं भी जाना है तो एक सेंटर प्वाइंट कनॉट प्लेस ही हुआ करता था। पहले लोगों को पैदल चलने का बहुत शौक होता था। मैं पहाड़गंज से रीगल पैदल चला जाता था। उन दिनों लोग साइकिल भी खूब चलाते थे। सुबह और शाम के वक्त सड़कों पर साइकिलों का सैलाब सा उतरता था। लेकिन, अब तो सड़कों पर गाड़ी भर गईं और फुटपाथ गायब हो गए। एक तरीके से पैदल चलने का मौलिक अधिकार खत्म सा हो गया। अब ट्रैफिक का डर है, प्रदूषण का डर है। अब सड़क बगैर डर के नहीं चल सकते। असुरक्षा का भाव रहता है।