दिखा था सैनिक का जज्बा, गोलियां खत्म हुईं तो पत्थर से किया वार
पाकिस्तान के साथ हुए इस प्रथम युद्ध में बलवंत ने गोलियां खत्म होने के बावजूद हार नहीं मानी। वे पत्थर लेकर दुश्मन की ओर दौड़े और उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया।
नई दिल्ली (संजय बर्मन)। देश को आजाद हुए दो साल ही हुए थे। कश्मीर में अशांति फैलाने के लिए पाकिस्तान कोई कसर नहीं छोड़ रहा था। आखिरकार उसे जवाब देने के लिए भारतीय सैनिकों ने 1949 में मोर्चा संभाल लिया। इन जांबाजों में बलवंत सिंह भी शामिल थे। पाकिस्तान के साथ हुए इस प्रथम युद्ध में बलवंत ने गोलियां खत्म होने के बावजूद हार नहीं मानी। वे पत्थर लेकर दुश्मन की ओर दौड़े और उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया। पिता के रणकौशल का जिक्र करते-करते उनके बेटे नरेंद्र टटेसर की आंखों में जैसे चमक आ जाती है। कहतें है, पिताजी सच्चे देशप्रेमी थी, उन्होंने पूरा जीवन देश की सेवा में गुजार दिया।
बलवंत सिंह का जन्म मुंडका इलाके के टटेसर गांव में मध्यमवर्गीय जमींदार परिवार में हुआ था। 12वीं करने के बाद सेना में जाट रेजीमेंट में शामिल हुए। नरेंद्र बताते हैं कि उनके पिताजी 1949 की जंग की कहानी बार-बार सुनाते थे। कहते थे कि वह युद्ध बहुत कठिन परिस्थितियों में लड़ा गया था। बलवंत सिंह की पोस्टिंग कश्मीर की जिस घाटी में थी, वहां से एक नदी पाकिस्तान की ओर जा रही थी। नदी के रास्ते हो रही घुसपैठ पर निगरानी रखने के लिए बलवंत एक सैनिक के साथ वहां तैनात थे।
मौसम खराब था और बर्फबारी भी हो रही थी। अचानक शांत वातावरण में आवाज आने लगी। बलवंत सिंह ने देखा की चार-पांच पाकिस्तानी सैनिक नदी पार कर भारतीय सीमा में घुसने की कोशिश कर रहे हैं। टेंट में चाय बनाने गए साथी सैनिक का इंतजार कर रहे बलवंत ने तुरंत संकेत के रूप में एक कंकड़ अपने कैंप की तरफ फेंका। साथी सैनिक संकेत पाते ही सचेत हो गए। इसी दौरान बलवंत ने पाकिस्तानी सैनिकों पर फायरिंग शुरू कर दी।
बलवंत की सभी गोलियां खत्म हो गईं तो वह पाक सैनिकों के पास आने का इंतजार करने लगे। एक पाकिस्तानी सैनिक जैसे ही नजदीक पहुंचा बलवंत ने भारी पत्थर उसके ऊपर फेंका। कंधे पर पत्थर लगते ही पाक सैनिक नदी में समा गया। तब तक बलवंत के साथी जवानों ने भी मोर्चा संभाल लिया था।
भारतीय जांबाजों के हमले से घबराकर बचे हुए पाकिस्तानी सैनिक खराब मौसम का फायदा उठाकर भाग गए। नदी के रास्ते सर्च ऑपरेशन के दौरान बलवंत सिंह खुद भी फिसलकर नदी में गिर गए। सौभाग्य से उनके शरीर का ऊपरी हिस्सा बाहर रह गया। वह रातभर बेहोशी की हालत में नदी के किनारे पड़े रहे। अगले दिन बचाव दल उनके पास तक पहुंचा।
बलवंत ने चीनी सैनिकों को भी दिखाया था रणकौशल
1962 में चीन के साथ हुई जंग में भी बलवंत सिंह ने हिस्सा लिया था। इस युद्ध में उन्हें गोली लगी थी। घायल होने के बाद भी उनका हौसला कम नहीं हुआ था, वह दुश्मनों से लड़ते रहे। कई जंग में शामिल होने व अच्छी सैन्य सेवा के कारण उन्हें सेना मे रहते हुए सात तमगे भी मिले थे। सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद वह सामाजिक कार्यो में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। वर्ष 2015 में उनका निधन हो गया।