वामपंथी जकड़न से मुक्त होता देश का प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का वचरुअल माध्यम से अनावरण किया है। बीते कुछ वर्षो के दौरान घटित अप्रत्याशित घटनाओं के कारण जेएनयू परिसर चर्चा में रहा है। कई वजहों से इसे नकारात्मक नजरिये से देखा जाने लगा था।
सुजीत शर्मा। देश का प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पिछले दिनों एक बार फिर चर्चा के केंद्र में रहा। परंतु इस बार वजह अलग थी। अवसर था कैंपस में स्थापित स्वामी विवेकानंद की मूर्ति के अनावरण का। यह वही प्रतिमा है, जिसे एक साल पहले फीस बढ़ोतरी के विरोध में आंदोलन के नाम पर कुछ शरारती तत्वों ने क्षतिग्रस्त कर दिया था। देश में वामपंथ की आखिरी शरणगाह बन चुके जेएनयू परिसर में स्वामी विवेकानंद की मूर्ति का अनावरण सामान्य बात नहीं है। इसका एक संघर्षशील इतिहास है। जरा कल्पना करें कि जिस परिसर को देश के बुद्धिजीवी माओवाद और देश विरोध की सबसे उर्वर जमीन मानते थे, वहां भारत माता की जय और वंदे मातरम का उद्घोष देश को कितनी सुखद अनुभूति देता होगा।
कांग्रेसी सरकारों ने दिया प्रश्रय : फरवरी 2016 में घटी एक दुर्भाग्यपूर्ण देशविरोधी घटना से पहले जेएनयू देश-विदेश के एक विशेष वर्ग तक ही जाना जाता था। परंतु देश दुनिया को अचंभित कर देने वाली इस घटना के बाद तो जेएनयू लोगों के बीच चर्चा का केंद्र बन गया। देश की संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल गुरु की बरसी मनाए जाने की घटना भले ही देशवासियों को हतप्रभ करने वाली तथा कल्पना से परे थी, लेकिन जेएनयू के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। इससे पूर्व भी कैंपस में अफजल गुरु की बरसी मनाई जा चुकी थी। हां, इस बार एक बात पहली बार हुई कि जेएनयू के स्याह पक्ष को देश ने पहली बार देखा, जिसके लिए पूरा देश उन छात्रों का आभारी रहेगा, जिन्होंने न सिर्फ उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का जमकर विरोध किया, बल्कि उसे देश के सामने लाने का भी कार्य किया। हालांकि इन देश विरोधियों को बेपर्दा करने के बाद यह पूरा गैंग उन छात्रों व शिक्षकों को निशाना बनाने लगा, जो मुखर होकर इस देश विरोधी घटना का विरोध कर रहे थे।
उल्लेखनीय है कि 1969 में जेएनयू की स्थापना की गई थी। कांग्रेस के विभाजन के बाद, पहली बार इंदिरा गांधी वामपंथी दलों के बाह्य सहयोग से सत्तासीन थीं। देश का वैचारिक झुकाव साम्यवादी रूस की तरफ था। दुनिया शीत युद्ध और गुटनिरपेक्ष आंदोलन के दौर से गुजर रही थी। देश के मार्क्सवादी राजनीतिज्ञों ने भारत को तत्कालीन वैश्विक परिस्थितियों में एक अलग विचार देने की आवश्यकता बताकर जेएनयू को स्थापित कराया। अन्य विश्वविद्यालयों की अपेक्षा जेएनयू को मिलने वाली सुविधाएं और अनुदान बहुत अधिक थे। बाद की सरकारों ने भी इसे हर प्रकार की स्वतंत्रता दी, ताकि वामपंथी दलों और बुद्धिजीवियों को प्रसन्न रखा जा सके। लगभग दो दशकों के भीतर ही जेएनयू वामपंथी विचारधारा का गढ़ बन गया। फिर क्या, शुरू हुआ मार्क्सवाद- माओवाद- नक्सलवाद से सराबोर कार्यकर्ताओं को गढ़ने का दौर, जिसकी वर्तमान पीढ़ी में उमर खालिद और शरजील इमाम जैसे लोग आते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि कई अवसर ऐसे भी आए जब स्वच्छंद वामियों ने जेएनयू में कांग्रेस के बड़े बड़े नेताओं का न सिर्फ विरोध किया, बल्कि उन्हें अपमानित भी किया।
वामपंथी संगठनों ने इंदिरा गांधी से लेकर एपीजे अब्दुल कलाम तक का यहां विरोध किया। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि वामपंथी बुद्धिजीवियों के दबाव में कांग्रेस ने इन संगठनों के खिलाफ कभी सख्ती नहीं दिखाई। लंबे समय तक केंद्र की कांग्रेस सरकारों और परिसर के वाम संगठनों के बीच नूराकुश्ती चलती रही। इनके हौसले बढ़ते गए। हिंदू आस्थाओं का अपमान करने के लिए परिसर में अनेक आपत्तिजनक पोस्टर लगाए गए। लेकिन इन सब दुस्साहसिक घटनाओं को तत्कालीन विश्वविद्यालय प्रशासन और कांग्रेस की सरकारों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर अनदेखा कर दिया। हालांकि इन घटनाओं का राष्ट्रवादी छात्रों ने विरोध किया, परंतु संख्या कम होने से उनकी आवाज दबा दी गई।
वर्तमान कुलपति ने किए अनेक सुधार : जेएनयू में दशकों से चले आ रहे एकपक्षीय वामपंथी वैचारिक वर्चस्व का पतन फरवरी 2016 से शुरू हुआ। अब यह बात जगजाहिर हो चुकी थी कि वामपंथी संगठन देश में विभाजनकारी शक्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं। अब केंद्र में कांग्रेस सरकार नहीं थी, जो देश तोड़ने के नारे लगाने वालों को नासमझ बोलकर अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लेती। अब सही वक्त था जब इन लोगों को सबक सिखाया जा सके। उसी वर्ष वर्तमान कुलपति ने भी अपना कार्यभार संभाला था। उनके सामने एक बड़ी चुनौती थी कि परिसर में हो रही ऐसी गतिविधियों को जड़ से समाप्त कर विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को स्थापित किया जाए। कुलपति ने एक के बाद एक सुधार किए। छात्रों से सीधा संवाद कर उनकी समस्याओं का निवारण किया। विश्वविद्यालय का कार्य अबाध रूप से चलता रहे, इसके लिए न्यायालय ने प्रशासनिक भवन के आसपास नो प्रोटेस्ट जोन घोषित किया। अनिवार्य उपस्थिति के नियम से जहां शैक्षणिक गुणवत्ता बढ़ी, वहीं शिक्षक छात्र फॉर्मूला से शोध को गुणवत्तापरक बनाने का प्रयत्न किया। हालांकि वर्तमान प्रशासन के प्रत्येक कदम का वामपंथी संगठनों ने पुरजोर विरोध किया, परंतु वे असफल रहे। वर्तमान प्रशासन की सजगता एवं सामान्य छात्रों के सहयोग से जेएनयू में बदलाव की एक बयार चल पड़ी। इंजीनियरिंग, प्रबंधन, राष्ट्रीय सुरक्षा, नॉर्थ-ईस्ट स्टडीज जैसे नवीन केंद्रों से लैस जेएनयू परिसर देश को एक नई दिशा देने के लिए तैयार है।
वैसे इन सबके बावजूद जेएनयू द्वारा देश को दिए गए योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता है, जिसकी चर्चा हालिया संपन्न जेएनयू के चतुर्थ दीक्षांत समारोह के दौरान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी की। वैसे प्रशासन के हर कदम को स्वागतयोग्य नहीं कहा जा सकता, परंतु इन विभाजनकारी संगठनों के मकड़जाल से जेएनयू को मुक्त कराने के लिए वर्तमान कुलपति को अवश्य याद रखा जाएगा।
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